इस बहस में नया क्या?
इस वर्ष के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से एक बार फिर गरीबी चर्चा के केंद्र में आई है। इसलिए कि जिन तीन लोगों को साझा तौर पर नोबेल कमेटी ने चुना, उन्हें वैश्विक गरीबी को दूर करने में प्रायोगिक रास्ता बनाने के लिए पुरस्कृत किया गया है। लेकिन ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। बाकी को छोड़ दें और बात भारत पर ही केंद्रित रखें तो ऐसा ही 21 साल पहले अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार दिए जाने से हुआ था। मगर क्या उससे सचमुच गरीबी हटाने की नीतियां अमल में आईं? कहना कठिन है। बल्कि यह मानने का कारण है कि ऐसा नहीं हुआ।
जोसेफ स्टिग्लिट से लेकर पॉल क्रुगमैन जैसे नामों को भी जब ये पुरस्कार मिला तो गरीबी पर खूब बात हुई। मगर बातों से तो कोई समाधान नहीं निकलता। तो अब अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो (अमेरिका में कैंब्रिज की मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर) और मिषाएल क्रेमर कैम्ब्रिज (हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी) को पुरस्कृत होने से अलग स्थितियां बनेंगी, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं है। वैसे नोबेल कमेटी ने अपना काम किया है। उसने पुरस्कारों की घोषणा करते हुए नोबेल कमेटी ने कहा कि इस साल के विजेताओं ने वैश्विक गरीबी से लड़ने की हमारी क्षमता को बहुत ज्यादा बढ़ाया है। इन तीनों के प्रयोग आधारित रास्ते ने डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स को बदल दिया है और अब यह रिसर्च का विकसित होता हुआ क्षेत्र है।
इतनी बात पर जिन्हें संतोष करना हो, वो कर सकते हैं। बहरहाल, भारतीयों को खुशी इस बात से हुई अभिजित बनर्जी भारतीय मूल के अमेरिकन हैं। वे कोलकाता में पले-बढ़े। एस्थर डुफ्लो अभिजीत की पत्नी हैं। वे भी डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट हैं। नोबेल कमेटी की राय है कि हाल में हुई नाटकीय घटनाओं के बावजूद मानवता के सबसे अहम मुद्दों में एक है गरीबी। चुनौती है उसे समग्र रूप से हटाना। हर साल करीब 50 लाख बच्चे पांच साल से कम उम्र में दम तोड़ देते हैं। इन बच्चों को इनसे बचाया जा सकता है, बशर्ते मामूली उपचार से उनका इलाज हो। दुनिया में बच्चों की आधी आबादी अब भी बुनियादी साक्षरता या फिर गिनती सीखे बगैर ही स्कूल छोड़ देती है। बेशक ये बात सच है और दुनिया की तमाम समृद्धि के बीच मौजूद भयावह सूरत की तरफ ध्यान खींचती है। यहां तक इस पुरस्कार की उपयोगिता सिद्ध है। इसके आगे जिम्मेदारी सरकारों की है, लेकिन उनका नजरिया निराशाजनक है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें