पांच साल पहले नरेंद्र मोदी और अमित शाह का विजय रथ दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने रोका था। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 2014 का लोकसभा चुनाव जीता था और उसके मोदी व शाह के नेतृत्व में भाजपा ने महाराष्ट्र, हरियाणा व झारखंड का विधानसभा चुनाव जीता। पहली बार तीनों राज्यों में भाजपा ने अपने दम पर अपना मुख्यमंत्री बनाया। दो राज्यों में तो पहली बार ही भाजपा के मुख्यमंत्री बने थे। ऐसे शानदार माहौल के बाद जनवरी 2015 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली जैसे छोटे राज्य में चार बड़ी रैलियां कीं, इसके बावजूद भाजपा को सिर्फ तीन सीटें मिलीं।
सोचें, 70 सदस्यों की विधानसभा में सिर्फ तीन सीट! बाकी 67 सीटें अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने जीती। मोदी और शाह को यह पहला झटका था। चुनावी राजनीति में उतरने के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार कोई चुनाव हारे थे। और वह भी राष्ट्रीय राजधानी में, अपनी नाक के नीचे! उस हार की टीस निश्चित रूप से अब भी उनके और शाह के मन में होगी। इस टीस का इजहार पांच साल होता रहा है। पांच साल तक राज्य सरकार केंद्र पर आरोप लगाती रही कि वह उसे काम नहीं करने दे रही है।
बहरहाल, एक बार फिर समय का चक्र घूम कर उसी मुकाम पर आ गया है, जहां पांच साल पहले था। इस बार भाजपा ज्यादा बहुमत से लोकसभा का चुनाव जीती है और महाराष्ट्र व हरियाणा का चुनाव भी जीत चुकी है। अब झारखंड और दिल्ली का चुनाव होना है। दोनों चुनाव साथ भी हो सकते हैं और अलग अलग भी। इससे इनकी राजनीति पर असर नहीं होगा क्योंकि दोनों राज्यों की राजनीतिक तासीर अलग है और मुद्दे भी अलग हैं। सो, यह सवाल है कि क्या इस बार मोदी और शाह 2015 की हार का बदला ले पाएंगे या अरविंद केजरीवाल फिर उनको मात देंगे?
महाराष्ट्र और हरियाणा ने जो मैसेज दिया है वह केजरीवाल को पहले से पता था। इसलिए उन्होंने अपनी राजनीति बिल्कुल स्थानीय मुद्दों पर सीमित कर रखी है। वे मुफ्त बिजली-पानी के मुद्दे पर सबसे ज्यादा जोर दे रहे हैं। वे महिलाओं के मुफ्त बस यात्रा शुरू कर रहे हैं और सरकारी स्कूलों, अस्पतालों को विश्व स्तर का बना दिया है। पर ऐसा नहीं है कि वे उन्होंने भाजपा की ओर से उठाए जाने वाले राष्ट्रवाद के या धार्मिकता के भावनात्मक मुद्दों से परिचित नहीं हैं। तभी उन्होंने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन किया हुआ है। वे भाजपा से ज्यादा जोर से भारत माता की जय के नारे लगाते हैं और अपनी पार्टी के झंडे के साथ साथ हमेशा भारत का तिरंगा भी लगवाते हैं।
सो, केजरीवाल ने अपने को ज्यादा राष्ट्रवादी साबित किया हुआ है। पिछले दो महीने में हिंदुओं के दो बडे उत्सव गुजरे। पहले गणेश चतुर्थी और उसके बाद दशहरा। दोनों मौकों पर केजरीवाल ने अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन दिए। भगवान गणेश और देवी दूर्गा की मूर्तियों के सामने हाथ जोड़े अपनी तस्वीर इन विज्ञापनों में छपवाई औऱ भगवान से दिल्लीवासियों के कल्याण की कामना की। जाहिर है उन्होंने रत्ती भर भी यह मैसेज नहीं जाने दिया है कि उनकी पार्टी दिल्ली के मुस्लिमों की एकमात्र पसंद है और इस वजह से वे मुसलमानों की तरफदारी करते हैं या हिंदुओं से दूरी दिखाते हैं। उन्होंने अपने को राष्ट्रवादी भी बताया हुआ है और हिंदू भी।
तभी उनको घेरने और हराने के लिए भाजपा को कुछ और रणनीति बनानी होगी। असल में वे हर मामले में भाजपा से एक कदम आगे चल रहे हैं। भाजपा सिर्फ उनके एजेंडे पर प्रतिक्रिया दे रही है। एजेंडा वे सेट कर रहे हैं। उन्होंने अपने को दिल्ली के लोगों के भले के लिए समर्पित किया हुआ नेता स्थापित किया है। दिल्ली के लोगों से उनकी कनेक्ट बाकी किसी भी नेता के मुकाबेल अच्छी है। इसकी काट भाजपा के पास नहीं है। ले देकर भाजपा के पास राम मंदिर का मुद्दा बचता है। अगले महीने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाएगा। उसके बाद चुनाव तक भाजपा इसे बड़े चुनावी मुद्दे में तब्दील करने का प्रयास करेगी। अगर फैसला मंदिर के पक्ष में आता है और अयोध्या में मंदिर निर्माण का काम शुरू होता है तो इससे भाजपा को अपने वोटर एकजुट करने का मौका मिलेगा। हालांकि तब अदालत के फैसले की दुहाई देते हुए केजरीवाल भी इसका समर्थन ही करेंगे। जो हो अगले दो-तीन महीने दिल्ली में दिलचस्प राजनीति होगी। मोदी और शाह आसानी से दिल्ली नहीं हार सकते हैं। उनको पता है कि दिल्ली के नतीजे की गूंज दूर तक जाती है। पिछली बार भी दिल्ली के बाद भाजपा बिहार में भी हारी थी। इसके अलावा अगर दूसरी बार केजरीवाल दिल्ली में जीतते हैं तो वे विपक्षी राजनीति की धुरी बन सकते हैं। वे मोदी से मुकाबले का चेहरा बनेंगे और यह धारणा टूटेगी कि मोदी के मुकाबले कोई नहीं है।

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