महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार बन जाएगी। पर हकीकत यह है कि जनादेश दोनों राज्यों की भाजपा की मौजूदा सरकारों के खिलाफ है। इन दोनों राज्यों के अलावा कोई डेढ़ दर्जन राज्यों में 50 के करीब विधानसभा और दो लोकसभा सीटों पर उपचुनाव भी हुए थे। इन उपचुनावों के नतीजे भी भाजपा के विरूद्ध लोगों का मूड बताने वाले हैं। इस नजरिए को प्रमाणित करने के लिए दो-तीन नतीजों की मिसाल दी जा सकती है। जैसे गुजरात में अल्पेश ठाकोर चुनाव हार गए हैं। 2017 के दिसंबर में वे कांग्रेस की टिकट से विधायक बने थे। बाद में पाला बदल कर भाजपा में चले गए और अपनी राधनपुर सीट से भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर लड़े और हार गए। ऐसे ही एनसीपी की टिकट से जीते सतारा के सांसद उदयन राजे भोसले पाला बदल कर भाजपा में गए थे पर सतारा की जनता ने उनको हरा दिया है। ध्यान रहे वे सबसे बड़े मराठा आईकॉन छत्रपति शिवाजी की आठवीं पीढ़ी के वारिस हैं।
कांग्रेस मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की एक-एक सीट पर उपचुनाव तो जीती ही अपने शासन वाले पंजाब में भी चार में से तीन सीटें जीत गई। पर सबसे हैरान करने वाला नतीजा बिहार में आया। पांच विधानसभा सीटों में से तीन सीटें विपक्ष के खाते में चली गईं। ये छोटे छोटे नतीजे लोगों का मूड बताने वाले हैं। दलबदल करने वालों को लोगों ने सबक सिखाया है। पता नहीं भाजपा इससे कोई सबक सीखती है या नहीं। उसने दो दिन पहले ही झारखंड में कांग्रेस और जेएमएम के पांच विधायकों को टिकट देने का वादा करके अपनी पार्टी में शामिल कराया है।
यह जनादेश कैसे भाजपा के विरूद्ध है, इसे इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों जगह विपक्षी पार्टियों में से कम से कम कांग्रेस तो बिल्कुल ही दम लगा कर लड़ती नहीं दिख रही थी। चुनाव की घोषणा के बाद तक दोनों राज्यों में पार्टी का झंडा-बैनर उठाने वाले लोग नहीं थे। चुनाव की घोषणा से 44 दिन पहले कांग्रेस ने हरियाणा में नेतृत्व बदला था और अशोक तंवर को हटा कर कुमारी शैलजा को अध्यक्ष और किरण चौधरी को हटा कर भूपेंदर सिंह हुड्डा को विधायक दल का नेता बनाया था। मुंबई में भी ऐन चुनावों से पहले मिलिंद देवड़ा का इस्तीफा मंजूर हुआ था और मुंबई का नया अध्यक्ष बनाया गया था।
महाराष्ट्र में एनसीपी जरूर दम लगा कर लड़ रही थी पर वह लड़ाई अकेले मराठा क्षत्रप शरद पवार की थी। उनके सारे सेनापति पार्टी छोड़ कर भाजपा में चले गए थे। इसके बावजूद कभी हार नहीं मानने वाली अपनी जिद के दम पर पवार ने चुनाव लड़ा और दिखाया कि कैसे लड़ने वाले की कभी हार नहीं होती। पर चाहे कांग्रेस की लड़ाई हो, शरद पवार की हो या दुष्यंत चौटाला की हो, इन तीनों भाजपा विरोधी पार्टियों की लड़ाई दीये और तूफान की लड़ाई की तरह थी। भाजपा के मुकाबले ये पार्टियां तैयारी, संसाधन, उम्मीदवार, प्रचार किसी मामले में टिक नहीं रही थीं। इसके बावजूद इन्होंने भाजपा को नाको चने चबवाए तो इसलिए क्योंकि जनता ऐसा चाहती थी। आम लोग ऐसा चाहते थे। उन्होंने भाजपा से अपनी नाराजगी जाहिर की।
यह जनादेश इस बात का संकेत है कि राष्ट्रवाद का मुद्दा भूख, गरीबी और बेरोजगारी से बड़ा मुद्दा नहीं है। यह भी जाहिर हुआ है कि लोग भले गाफिल दिखें पर वे अपने हितों को पहचानते हैं। उन्हें देशभक्ति, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान जैसे मुद्दों से लंबे समय तक बरगलाए नहीं रखा जा सकता है। अंततः असली और जमीनी मुद्दों पर बात करनी होगी।
सरकारों को नतीजे देने होंगे। हो सकता है कि यह जनादेश को कुछ ज्यादा पढ़ने का प्रयास लगे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों राज्यों की अपनी 15 सभाओं में पाकिस्तान, कश्मीर, अनुच्छेद 370, मां भारती के नाम का जिक्र किया और जिस तरह से वास्तविक आर्थिक संकट की अनदेखी की, उससे यह मानने में हिचक नहीं है कि भाजपा जिसे तुरूप का पत्ता समझ रही थी उसे लोगों ने पूरी तरह से खारिज कर दिया।
इस बार के नतीजे इसलिए भी भाजपा के विरूद्ध है क्योंकि उसने पांच साल डबल इंजन की सरकार चलाने के बाद अपने दोनों मुख्यमंत्रियों के चेहरे पर चुनाव लड़ा था। जिस तरह लोगों ने भाजपा की ओर से उठाए गए मुद्दों को खारिज किया उसी तरह से उसकी ओर से पेश किए गए चेहरों को भी खारिज किया। यह भी मामूली संकेत नहीं है कि दोनों राज्यों में लोगों ने भाजपा के दिग्गजों और सरकार के अनेक मंत्रियों को हरा दिया।
विपक्ष के लिए भी यह एक बड़ा संकेत है। वह लोगों की भावना को समझे और अपने ऊपर यकीन करे। इस बात से हताश होकर बैठने की जरूरत नहीं है कि सत्तापक्ष के पास ढेरों संसाधन हैं, प्रचारक हैं और वे उनके सामने कहीं टिकते नहीं हैं। लोकतंत्र में प्रचार तभी तक सफल है, जब तक लोग उस पर यकीन करें और साथ दें। अन्यथा सारे प्रचार वैसे ही धरे रह जाते हैं, जैसे महाराष्ट्र और हरियाणा में रह गए।

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