रविवार, 11 अगस्त 2019

अटल बिहारी वाजपेयी नहीं, पंडित नेहरू के रास्ते पर हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

कश्मीर के आधुनिक इतिहास के बारे में तीन अकाट्य तथ्य हैं: पहला, पाकिस्तान घाटी के साथ ही भारत के अन्य हिस्सों में (कश्मीर का बहाना बनाकर) लगातार हिंसा और आतंक को बढ़ावा दे रहा है। दूसरा, जिनके बारे में माना जा रहा था कि वे कश्मीरियों का नेतृत्व करेंगे, उन्होंने घाटी में जातीय आधार पर पंडितों के जनसंहार को लेकर किसी तरह का अफसोस या प्रायश्चित करने का कोई संकेत नहीं दिया। तीसरा, एक के बाद एक बनने वाली भारतीय सरकारों ने (एक अपवाद को छोड़कर जिसके बारे में आगे बताऊंगा) चुनाव में धांधली की, भ्रष्टाचार को बढ़ाया, राज्य की ताकत का इस्तेमाल किया और अन्य तरीकों से घाटी में अलोकतांत्रिक प्रथाओं को बढ़ावा दिया।

ये तीनों बातें स्वतंत्र रूप में और एक साथ भी सही हैं। फिर भी जो लोग कश्मीरियों और कश्मीर की नियति का फैसला करना चाहते हैं, वे इनमें से कुछ सच्चाइयों को तो स्वीकार करते हैं, मगर सभी को नहीं। उदाहरण के लिए पाकिस्तान तीसरे सत्य पर तो ध्यान केंद्रित करता है, जबकि पहले और दूसरे सत्य को वह दबा रहा है। अतिराष्ट्रवादी भारतीय इसका ठीक उलटा कर रहे हैं।

इस प्रकार, जिन लोगों ने अनुच्छेद 370 के हाल ही में निष्प्रभावी किए जाने की इतनी जल्दी और अनजाने में सराहना की है, उन्होंने पाकिस्तान द्वारा प्रोत्साहित आतंक और पंडितों के उत्पीड़न को औचित्य के रूप में इस्तेमाल किया है। वास्तव में जिस तरह से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया गया, उससे सिर्फ कश्मीर के संबंध में तीसरे सत्य की पुष्टि हुई है और उसे मजबूती मिली है।

पिछले हफ्ते जो कुछ हुआ, वह भारतीय राज्य द्वारा घाटी में किए जाने वाले मनमाने और निरंकुश आचरण के कई उदाहरणों में से ही सबसे ताजा मामला है। कश्मीर घाटी में पहला राजनीतिक अपराध ठीक छियासठ वर्ष पहले अगस्त, 1953 में किया गया था, जब जम्मू-कश्मीर के निर्वाचित मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला को पदच्युत कर उन्हें जेल भेज दिया गया था। वह पांच साल तक जेल में रहे, उनके खिलाफ कोई आरोप नहीं लगाया गया।

1958 में शेख को थोड़े समय के लिए रिहा किया गया, लेकिन उन्हें दोबारा फिर से पांच वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया। इस बार उन पर पाकिस्तानी एजेंट होने का आरोप लगाया गया। यह आरोप हास्यास्पद होने के साथ ही घृणित भी था, क्योंकि शेख दुविधा में थे कि भारत के साथ जाएं या आजादी का समर्थन करें, लेकिन कहीं दूर तक भी पाकिस्तानी राज्य के साथ उनका कोई लगाव नहीं था, क्योंकि उनका मानना था कि हिंदुओं और सिखों को बिल्कुल मुस्लिमों जैसे अधिकार प्राप्त हैं। 

वह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे, जिन्होंने कश्मीर के निर्वाचित मुख्यमंत्री को शर्मनाक और अवैध तरीके से गिरफ्तार करने की मंजूरी दी थी। अप्रैल, 1964 में देर से नेहरू का ह्रदय परिवर्तन हो गया और शेख को रिहा किया गया। यह त्रासदपूर्ण था, जब नेहरू के निधन के बाद शेख को फिर से जेल भेज दिया गया, जहां उन्हें पहले लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी के आदेश पर सात वर्ष बिताने पड़े।

अंततः 1972 में उन्हें रिहा किया गया, तब तक वह टूट चुके थे और नई दिल्ली की शर्तों पर उसके साथ समझौता करने को तैयार हो गए। जिन वर्षों में उनके लोकप्रिय निर्वाचित नेता जेल में थे, जम्मू-कश्मीर में अलगाव की गहरी भावना व्याप्त हो गई। 1960 और 1970 के दशकों में जब केंद्र की कांग्रेस की सरकारों ने चुनावों में धांधली की और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया, नई दिल्ली की नीयत के प्रति अविश्वास बढ़ता गया। 

जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने थोड़े समय के लिए उम्मीद की खिड़की खोली थी, जब 1978 में उनकी देखरेख में पहली बार घाटी में निष्पक्ष चुनाव करवाए गए थे। लेकिन 1980 में कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई और फिर से गड़बड़ियां शुरू हो गईं। 1983 में  इंदिरा गांधी ने कपटपूर्ण तरीके से निर्वाचित राज्य सरकार को बेदखल कर दिया।

चार साल बाद उनके बेटे राजीव गांधी के समय चुनाव में खुलेआम धांधली हुई। जिन नेताओं ने चुनाव  लड़ा था और जो (यदि निष्पक्षता कायम रहती) कुछ सीटें जीत सकते थे, वे अंसतुष्ट होकर सीमा पार चले गए और1989 में जहां से उन्होंने जेहाद शुरू कर दिया।

अटल बिहारी वाजपेयी जब 1998 में प्रधानमंत्री बने, तो उन्हें कश्मीर में अलगाव और अविश्वास के इस लंबे इतिहास से जूझना पड़ा। उन्होंने राज्य में अपनी देखरेख में निष्पक्ष चुनाव करवाकर, कश्मीर के दोनों विभाजित हिस्सों को बस संपर्क से जोड़कर और घाटी के लोगों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाकर इससे उबरने का प्रयास किया।

वाजपेयी ने अपनी सरकार की नीति के तीन स्तंभों के रूप में इंसानियत, जम्हूरियत और बहुलवाद की पेशकश की। उनका दृष्टिकोण कांग्रेस की पिछली सरकारों से एकदम उलट था, जिन्होंने लोगों को विभाजित करने के लिए भ्रष्टाचार और गुटबाजी का सहारा लिया था और उन्हें दबाने के लिए राज्य की शक्ति का।

कश्मीर में राज्य की शक्ति का क्रूर इस्तेमाल कर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की प्लेबुक का ही अनुसरण किया है। वह हमें बता रहे हैं कि अनुच्छेद 370 को कश्मीर के लोगों के हित में ही निष्प्रभावी किया गया है, लेकिन इस निर्णय में उन्हीं लोगों की कोई भूमिका नहीं है। 

सरकार ने घाटी को भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी जेल में बदल दिया है, जहां 80 लाख लोग बंद हैं, उनके लैंडलाइन और मोबाइल फोन बंद हैं, खाद्य सामग्री और दवाओं तक उनकी सीमित पहुंच है। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार किया गया है (अगस्त 1953 की खौफनाक स्मृतियों की पुनरावृत्ति की तरह)।

हजारों सुरक्षा बलों को पहले से सैन्य क्षेत्र में बदल दिए गए क्षेत्र में भेजा गया है, मानो उसे अब कब्जे वाले क्षेत्र में बदलना हो। हमारे कश्मीरी नागरिकों को अपनी बात कहने का अवसर दिए बिना संसद ने एक ऐसा बिल हड़बड़ी में पास किया है, जो उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल देगा।

कश्मीर में पिछले हफ्ते जो हुआ वह भारतीय लोकतंत्र के लिए बुरा हुआ। कानून खुद को रेखांकित करते हैं और उन्हें संशोधित या परिवर्तित करना पड़ सकता है। फिर भी, इस परिवर्तन से प्रभावित होने वाले लोगों पर भरोसा किया जाना चाहिए, उनका सम्मान किया जाना चाहिए, और सुना जाना चाहिए। काश, राष्ट्रपति ने आंख मूंदकर आदेश पर हस्ताक्षर करने से पहले थोड़ा विचार किया होता।

उन्हें पता था कि उन लाखों नागरिकों को पहले ही चुप करा दिया गया था, जो इस कानून से प्रभावित होंगे। क्या वह यह कहते हुए आदेश को नहीं लौटा सकते थे कि इस पर कश्मीर में और कश्मीरियों के साथ व्यापक मशविरा किया जाए और उसके बाद ही इसे संसद में पेश किया जाए?

जो भारतीय अभी कश्मीर में जो कुछ हुआ उससे आनंदित हो रहे हैं, वे शायद ही इस पर विचार करेंगे कि इसने कैसी भयावह परंपरा की शुरुआत कर दी है। नागरिकों को चुप कराने और उन्हें अलग-थलग करने के लिए राज्य सत्ता का यह दुरुपयोग कल को आपके जिले, आपके प्रांत, आपके नेताओं और आपके बच्चों के साथ भी हो सकता है।


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