शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

ऐसा विपक्ष किस काम का!

फ्रेडरिक नीत्शे लोकतंत्र और अखबार दोनों को क्रांति का विरोधी मानते थे। उनको लगता था कि ये दोनों चीजें क्रांति की संभावना को खत्म करती हैं। लोकतंत्र में आम लोग वोट देकर यह भ्रम पालते हैं कि उन्होंने सरकार बनाई है और सरकार उनकी सेवा के लिए है। पर असल में सरकार उनके ऊपर शासन करने के लिए होती है। इसी तरह अखबार आम लोगों के गुस्से के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करते हैं। लोग जिस चीज से परेशान होते हैं उसकी खबर अखबार में पढ़ कर शांत हो जाते हैं। उनको लगता है कि अखबार उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं। पर असल में अखबार सत्ता का स्वार्थ पूरा कर रहे होते हैं, उसके भागीदार होते हैं। यहीं बात इन दिनों विपक्ष के लिए कही जा सकती है। 

ऐसा लग रहा है कि देश का समूचा विपक्ष सत्ता का स्वार्थ पूरा करने में लगा है। चाहे जिस कारण से हो पर विपक्षी पार्टियां और उनके नेता वहीं कर रहे हैं, जो सरकार चाह रही है। कई बार तो ऐसा लग रहा है कि सरकार जो सोच रही है उसे पूरा करने में विपक्षी पार्टियां आगे बढ़ कर भूमिका निभा रही हैं। उनको झुकने के लिए कहा जा रहा है और वे रेंगने लग रहे हैं। कहने को विपक्षी पार्टियां सरकार का विरोध कर रही हैं पर उस विरोध का क्या हासिल है? किसी भी मसले पर विपक्ष का विरोध पूरी तरह से ईमानदार भी नहीं दिख रहा है। अगर विपक्ष का ईमानदार विरोध हो और वह सचमुच लोगों के हितों को आगे रख कर सरकार पर दबाव बनाए तो सरकार झुकती है। पिछली सरकार में इसी तरह भूमि अधिग्रहण बिल बदला गया था।

पर उसके बाद विपक्ष वैसा कोई काम नहीं कर सका। न वह संसद में प्रभावी भूमिका निभा रहा है और न संसद से बाहर कोई आंदोलन खड़ा कर पा रहा है। मीडिया का एक माध्यम था तो वहां भी ज्यादातर विपक्षी पार्टियों ने अपने प्रतिनिधियों, प्रवक्ताओं को भेजना बंद कर दिया है। सो, सारी बहसें एकतरफा हो रही हैं। विपक्ष के प्रतिनिधि के तौर पर जो विशेषज्ञ चैनलों में बैठाए जा रहे हैं वे सौ फीसदी भाड़े पर लाए गए लोग होते हैं, जो सरकार का उतना ही विरोध करते हैं, जितना चैनल वाले उनको इजाजत देते हैं। वे उससे ज्यादा विरोध नहीं कर सकते हैं क्योंकि फिर चैनल वाले उन्हें बुलाना बंद कर देंगे।

विपक्ष के इस तरह दबने, चुप रहने, पीछे हटने और जनता के हितों के साथ धोखा करने का आखिर क्या कारण है? क्या सिर्फ इसलिए कि सब डरे हुए हैं? संभव है। आज किसी विपक्षी पार्टी में ऐसा नैतिक बल नहीं है कि वह पूरी प्रतिबद्धता के साथ सरकार को कठघरे में खड़ा कर सके। हर पार्टी के शीर्ष नेता किसी न किसी मामले के घोटाले में फंसे हैं और उनकी गर्दन सरकार के पैरों तले दबी है। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कालजयी रचना गोदान में लिखा है- जिन पैरों के तले गर्दन दबी हो उन पैरों को सहलाने में ही भला है। सो, सारी विपक्षी पार्टियां अपनी गर्दन पर रखे सरकार के पैरों को सहला रही हैं। ऐसे डरे हुए विपक्ष से क्या उम्मीद की जा सकती है!

विपक्ष इससे पहले कभी ऐसा डरा हुआ नहीं रहा है। इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के जमाने में भी नेता खुल कर लड़े। क्योंकि उनमें नैतिक बल था। आज समूचा विपक्ष बिना नैतिक बल के है। कई नेता आय से अधिक संपत्ति या धनशोधन के मामले में फंसे हैं। कोई कोयले घोटाले का आरोपी है तो कोई टूजी का आरोपी है। कोई हेलीकॉप्टर घोटाले का आरोपी है तो किसी पर सिंचाई घोटाले का आरोप लगा है। कोई चारा चोरी का आरोपी है तो किसी पर बालू के ठेके में तो किसी पर चीनी मिल बेचने में गड़बड़ी का आरोप है। कोई जमीन घोटाले में फंसा है तो कोई चिटफंड घोटाले की जांच झेल रहा है। तभी सरकार जो चाह रही है सब कर रही है। संसद में जो बिल सरकार चाहे पास हो रहे हैं। राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के बावजूद सरकार जीत रही है। अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर बिल पास कराए जा रहे हैं। देश में म़ॉब लिंचिंग हो रही है, टैक्स टेरेरिज्म से परेशान कारोबारी खुदकुशी कर रहे हैं, चहेते कारोबारियों को आगे बढ़ाया जा रहा है, बैंकिंग व वित्तीय संस्थाएं घोटालों के कारण दिवालिया हो रही हैं पर विपक्ष हर मामले में सिर्फ दिखावे का विरोध कर रहा है।

इंदिरा गांधी ने नेताओं को गिरफ्तार कराया था तो वे राजनीतिक बंदी थे। पर अब गिरफ्तारी होगी तो भ्रष्टाचार के आरोप में होगी, जिस पर जनता की सहानुभूति नहीं मिलने वाली है। तभी विपक्षी नेता डरे हैं और अपनी खोल में दुबके हैं। मौजूदा विपक्ष बुनियादी रूप से जनता के हितों को नुकसान पहुंचा रहा है। वह जनता के खुद आंदोलन खड़ा करने की राह में रोड़ा बन रहा है। उसकी वजह से सरकार को ताकत मिल रही है और जनता को हर लड़ाई में पराजय मिल रही है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें