शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

फिर लूटना-लुटाना शुरू

यही आजाद भारत का आर्थिक दर्शन है। विकास का फार्मूला है। इसके प्रतिपादक पंडित नेहरू थे तो अनुयायी तमाम प्रधानमंत्रियों से ले कर नरेंद्र मोदी- राहुल गांधी भी हैं। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से देश को कहा कि 2022 में ‘न्यू इंडिया’ होगा। इसके लिए उन्होने दसियों सरकारी योजनाओं का जिक्र किया। अगले दिन 16 अगस्त को राहुल गांधी ने बेंगलूरू में इंदिरा केंटिन शुरू कराई। ऐसी 100 केंटीन बनेगी। इनमें पांच रू में नाश्ता, दस रू में लंच व दस रू में डिनर मिलेगा!  बेंगलूरू में क्योंकि लाखों की संख्या में दिहाड़ी के मजदूर हंै, ऑटो रिक्शा चालक, नाई है सो उनके लिए लगभग मुफ्त का यह खाना इस उम्मीद में है कि इससे गरीब कांग्रेस के बने रहेंगे और अगले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को जीता देंगे। जाहिर है राहुल गांधी और कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया अभी भी गलतफहमी में है कि नरेंद्र मोदी गरीबों को लुभाने में पीछे रहने वाले है। अपनी पुरानी थीसिस है और 2015 में लिखा था कि 2019 के आते-आते नरेंद्र मोदी गरीबों के खाते में सबसिडी सीधे ट्रांसफर करने लगे तो आश्चर्य नहीं होगा। जन धन खातों, आधार, अलग-अलग सबसिडी को खातों में डालने के पायलट प्रोजेक्ट पर काम ही इसलिए है ताकि गरीब को पैसा लुटाने का काम सीधे बैंक खाते के जरिए हो। मतलब मोदी गरीब को लुटाने का काम डिजिटल अंदाज में ऐसे करेंगे कि कांग्रेस व विरोधी पार्टियां रोटी, राशन, मजूदरी, लेपटॉप, मंगलसूत्र, साड़ी आदि चीजों के जरिए जो लुटाती थी वह उसके आगे फीका पड़ेगा और मोदी जीतेगे गरीबों का दिल! 
और इसी से बनेगा न्यू इंडिया!  यही आजाद भारत का आर्थिक दर्शन है। नेहरू से नरेंद्र मोदी तक सबने इस धुन में काम किया कि सरकार समर्थ नागरिकों से अधिक से अधिक पैसा बटोरंे, लूटे और फिर लुटाए। अपनी थीसिस है कि भारत के पूरे इतिहास में जितना धन आजाद भारत की सरकारों ने इकट्ठा किया याकि लूटा उतना इतिहास में कभी नहीं लूटा गया। ( नादिर शाह या बाकि हमलावरों की लूट इसलिए मामूली रही होगी क्योंकि वह कुछ शहरों, कुछ लाख की आबादी में थी- उपमहाद्वीप स्तर की नहीं)। पंडित नेहरू ने कमान संभालते ही देश के उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया। प्राइवेट पूंजी सरकारी बनाई। नए-नए टैक्स लगे। दबा कर टैक्स वसूली हुई। विदेशों से अरबों- खरबों की मदद, कर्ज लिए गए। मतलब भारत के इतिहास में पूंजी एकत्र, पूंजी निर्माण, पूंजीकरण का वह सबसे बडा ऐसा यज्ञ था जिसमें विकास, समाजवाद, गरीब के नाम पर आहुति के लिए सर्वाधिक एकत्रीकरण हुआ। 
उस वक्त भी उद्यमी, कारोबारी, उद्योगपति याकि पैसे वालों को इस शक से देखते थे कि ये काले बाजारी है। जहां गरीब भूखा है वही ये फ्रीज या एसी की लक्जरी में जीते है। इसलिए इन चीजों पर 100 -200 प्रतिशत टैक्स। कारखाने, संपत्ती जनता की हो न कि निजी स्वामित्व में रहे। बैंक और बैंकों का पैसा अमीरों का काला पैसा माना गया। जैसे नरेंद्र मोदी ने घरों में गृहणियों के जमा पैसे को काला घन मान उसे बैंकों में जबरदस्ती डलवाया वैसे नेहरू, इंदिरा ने बीमा, बैंक के तमाम वित्तिय क्षेत्रिय को ही यह कहते हुए कब्जे में कर लिया कि ये तो बडे लोगों का गोरखधंधा। ये अब जनता के हुए। 
नेहरू ने जिस अंदाज में अपने को स्वप्नदृष्टा, आर्थिक चिंतक मानते हुए आजाद भारत में माईबाप सरकार की नींव रखी वह सिलसिला इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से ले कर वाजपेयी, नरेंद्र मोदी सबका अनवरत एक सा है। अपवाद अकेले पीवी नरसिंहराव थे। उन्होने भरसक कोशिश की कि सरकार से माईबाप का चौंगा उतरे और विकास का काम जनता के सुपुर्द हो। उद्यमियों के सुपुर्द हो। देशी-विदेशी कंपनियों के सुपुर्द हो। मुझे ध्यान नहीं पड रही है कि नरसिंहराव के राज में ऐसी कौन सी वह बात-योजना हुई जो डा मनमोहनसिंह के मनरेगा, किसानों की कर्ज माफी या खाद्य सुरक्षा गारंटी जैसी लुटाने वाली केटेगरी की थी। 
अब यह इस देश की बौद्विक चेतना, अर्थशास्त्रियों का दिवालियापन है जो कभी यह अध्ययन नहीं सुना कि नरसिंहराव ने लुटाना बंद किया, विकास का जिम्मा जनता को दिया तो उससे कैसे भारत ने अगले दस साल विकास को कमा खाया और उनके बाद वापिस सरकारों ने माईबाप बन विकास की आड़ में कैसे सरकारी योजनाओं की बाढ़ ला दी, लुटाना शुरू किया जिससे फिर लूटना-लुटाना शुरू हुआ। 
तभी सफल वित्त मंत्री डा मनमोहनसिंह ने नेहरू खानदान की समझ में बतौर प्रधानमंत्री जब मनरेगा, कर्ज माफी, खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं से लुटाना शुरू किया तो साथ में उनके राज में लूटने के रिकार्ड भी बने। 
आर्थिक म़ॉडल क्योंकि लुटने- लुटाने का है इसलिए देशी पूंजीवाद भी उसका हिस्सा, उसका पार्ट है। सरकार माईबाप है। प्रधानमंत्री की फितरत निर्णायक है तो भारत में अरबपति भी सरकार की कृपा से बनते है और बन कर प्राकृतिक संपदा को ये लूटेगे तो जनता को भी उल्लू बनाएगें। 70 साल का क्रोनी पूंजीवाद समभाव एक सिलसिला लिए हुए है। कभी चर्बी का डालडा घी बेच कर अरबपति बनते थे तो कभी गाय के शुद्द घी का फर्जीवाड़ा है। कभी गरीब के लिए सस्ता टेरीकोट लुटने का नुस्खा था तो अब फर्जी -4जी, 5 जी बेच कर लूटना है। 
बहरहाल, नेहरू के पूंजीकरण का परिणाम जहां दिवालिया सरकारी काऱखाने, भ्रष्टाचार था वही इनसे गरीब का विकास कुल यह हुआ कि उसकी भूख सुरसा की तरह बढ़ी। फिर उस भूख ने यह मिजाज बनवा दिया कि वोट लेना है तो बेगार दो, दारू दो, राशन दो, टीवी दो, साइकल दो, ड्रैस दो, मंगल सूत्र दो, कर्ज माफ करों और रूपए-दो रूपए, पांच-दस रू में नाश्ता, लंच, डिनर दो। 1947 में उसकी भूख रोटी की थी। 2017 में डिनर की है। फर्क यह है कि 1947 में भारत जब आजाद हुआ था तब जनता, गरीब आदमी अपनी आजादी में अपने काम के अवसर की तलाश में था। अंधेरे से उजाले में आने की फड़फड़ाहट थी। किसान को मेहनत की आदत थी। मजदूर डट कर काम करता था। कारोबारी, उद्यमी टाटा, बिड़ला वाले या यूनीलीवर वाले संस्कार लिए हुए थे। उन सबमें 1947 के बाद माईबाप सरकार ने यह कह कर दीमक लगा दी कि सरकार है न सब करने के लिए। वह गरीब को राशन देगी। किसान को पैसा देगी। कारोबारी- उद्मी को लाईसेंस देगी। बताएगी, व्यवस्था करेगी, कानून बनाएगी कि जीया कैसे जाता है! विकास कैसे करना है!
तबी अम्मा- इंदिरा नाम के सरकारी लंगर विकास के नाम पर बने है बन रहे है। बिना काम के मजदूरी, बेईमानी होने पर भी कर्ज माफी तो कभी आत्मनिर्भरता, कभी स्वदेशी, कभी मैक इन इंडिया के नाम पर क्रोनी पूंजीवाद के नए प्रतिमान बनने की यह दास्तां ऐसी है कि दुनिया में ( मतलब सभ्य-विकसित देश) भारत का यह म़ॉडल अजूबा है। हमारी मूर्खताओं का प्रतिमान है। यों सर्वहारा–जनता के नाम पर साम्यवादी विचारधारा में भी लूटने-लुटाने की थ्योरी का तरीका था मगर वह विकास का सुविचारित रोडमैप लिए हुए था। उसमें डंडा चला कर जनता का खून-पसीना निकलवाया गया। नोट रखे कि चीन कामगारों को बेगारी देकर, उनके लिए लंगर खोल कर दुनिया की फैक्ट्री नही बना। उसने उद्योपति बनवा कर वैश्विक महासागर के मगरमच्छों के बीच फेंके। बाकि कम्युनिस्ट देशों में वक्त ने साम्यावादी मॉडल को फेल किया तो उसके खात्मे के बाद उद्यमशीलता, स्वतंत्रता का नया रास्ता खुला। लेकिन भारत दुनिया का अकेला देश है जिसमें सरकार अभी भी वैसी ही माईबाप है जैसे 1950 में थी। तब नेहरू नया जमाना बनवा रहे थे और आज नरेंद्र मोदी न्यू इंडिया बनवा रहे है। दोनों की फितरत एक की मैं हू और मेरी सरकार है तो मेरी बनाई सरकारी योजनाओं से नए दिन आ गए। गरीब के खाते में पैसा और पांच रू में भरपेट नाश्ता।  
सो भारत का आर्थिक दर्शन सवा सौ करोड लोगों को मुंगेरीवाल बनाते हुए टाइम पास का जुगाड़ है। लोग कर्ज ले कर, कर्ज खा कर निठल्ले बैठे, मजदूरी के नाम पर बेगारी हो, डेढ़ हजार रू का स्मार्टफोन ले कर नौजवान टाइम पास कर विकास के सपने देखे यही हमारे विकास का कुल प्रायोजन है। यह प्रायोजन सवा सौ करोड़ लोगों की संख्या से आर्थिकी को बड़ी दिखलाता है तो वही अपना झूमना भी है। पर बिना इस बोध के कि सस्ते स्मार्टफोन के लिए आप चीन पर आश्रित हंै तो डिजिटल के आईटी कर्मी दिहाड़ी के लिए अमेरिका- योरोप पर!

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