बुधवार, 16 अगस्त 2017

आदमी चोर नहीं है बल्कि भारत का तंत्र उसे चोर बनाता है? मोदीजी, सोचिए!

यों सोचने का आग्रह इसलिए निरर्थक है क्योंकि लाल किले से भाषण-फरमान देने वाला हर शंहशाह, हर प्रधानमंत्री याकि बादशाह-ए-हिंद प्रजा के लिए अवतार रहा है। उनकी तरह आप भी सर्वज्ञ है। त्रिकालदर्शी है। आपको समझने, समझाने, सोचने की भला क्या जरूरत। बावजूद इसके लिखने की हिम्मत कर रहा हूं तो इसलिए कि आपको जो अभूतूपूर्व अवसर मिला है, आगे जो मिलेगा और आप में कुछ जो बिरली खूबियां है उनके बावजूद यदि आने वाला वक्त भी वैसा ही गुजरा जैसे पिछले तीन साल गुजरे है तो फिर हिंदू में शायद ही कभी यह विश्वास बने कि उसके नसीब में सच्ची स्वतंत्रता है। पूछेगे भला कैसी स्वंतत्रता? स्वतंत्रता गुलामी की बेड़ियों से। वे बेड़ियां जो 1400 साल की गुलामी में बनी। जिनसे ज्ञान-विज्ञान की हमारी धाराएं सुखी। जिन्होने घर-परिवार को पर्दो में, अंधविश्वासों, रूढियों में बांधा। जिनसे भाषा में गुलाम हुए, विचार में गुलाम हुए, राजा के चारण बन बुद्वी ऐसी कुंद बना डाली कि अपने अस्तित्व, वजूद, इतिहास के वे द्वंद भी हम नहीं समझते जिन पर कौम, राष्ट्र-राज्य, धर्म सब में वैश्विक पहचान बनती-बिगड़ती हैं। वे बेड़ियां जिनके चलते हम भोले हिंदू मानते है कि नेहरू ने समाजवाद कहा तो समाजवाद आएगा। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओं कहा तो गरीबी हट जाएगी। आपने अच्छे दिन आने की कहां तो अच्छे दिन आ जाएंगे।
क्या ऐसे अंधविश्वासों से,  बेड़ियों से आपको सवा सौ करोड़ लोगों को आजाद नहीं कराना चाहिए? क्योंकर हिंदू यह माने बैठा है कि आप जादू का पिटारा है। क्या कोई देश, कोई कौम जादू के पिटारे से वैश्विक ताकत बनी है या बन सकती है? आपने दुनिया घूमी है। संघ के बतौर प्रचारक, निठल्ले समय में अमेरिका घूम कर बहुत गहराई से उसे देखा-समझा है। आपने जापान घूमा है। ब्रिटेन, जर्मनी घूमा है। क्या लगा नहीं कि वे देश यदि सोने की चीड़िया बने हंै, सभ्यताओं- आधुनिक वक्त के सिरमौर हंै तो वजह लोगों की स्वतंत्रता है। नागरिकों का वह बेसिक, स्वतंत्र संस्कार व अधिकार है कि उनसे देश है न कि राष्ट्रपति से या प्रधानमंत्री से या महारानी से। वहां गणों का तंत्र है न कि तंत्र के गण।
निश्चित ही अमेरिका या ब्रिटेन के प्रवास के वक्त आप गुजरात के पटेल परिवारों, उनके होटल-मोटल- कारोबार की सफलताओं से प्रभावित हुए होंगे। मोदीजी, आप मानेंगे कि ये सब भारत से ही गए हुए है। ये भारत का वही खून लिए हुए है जो यहा हम भारतीयों में है। वे भी वही काला खून लिए हुए थे जिसे आप हम भारतीयों में देख रहे है। आपने पिछले तीन साल से संकल्प ले रखा है कि सवा सौ करोड़ लोगों के काले खून की शुद्वी करेगें। इसके लिए आपने दस तरह के जतन किए। कईयों का मानना है, और सौ टका गारंटी से है कि आप बिल्कुल ठिक कर रहे है। ऐसा डंडा जरूरी है। बिना डंडे के, बिना शुद्वी के सदाचार नहीं बनेगा और न ही भारत सोने की चीड़िया बनेगा।
पर मोदीजी, कभी आपने सोचा है कि जिन प्रवासी पटेल या एनआरआई परिवारों के बीच आप अमेरिका में रहे थे उनका देशी काला खून वहां बिना डंडे, बिना नोटबंदी जैसी डायलिसिस के कैसे साफ-सुथरा लाल रहा कि वे अमीर भी बने और ईमानदार भी!  कभी यह विचार हुआ कि भला यह कैसा जादू कि सवा सौ करोड़ काले खून वाले भारतीयों से ही गए लोग अमेरिका में शुद्व खून लिए होते हैं। वे वहां शान-शौकत, पैसा- प्रतिष्ठा- ज्ञान-विज्ञान की बुद्दी सब लिए होते है!
सोचिए, क्यों आपको भारत में सदाचार बनाने के लिए इतनी मेहनत करनी पड़ रही है?  इतने डंडे चलाने पड रहे है? आपने पूरे देश को डायलिसिल पर पहुंचा दिया है। आर्थिकी की, कारोबारियों, नौकरीपेशा, बेरोजगार नौजवानों सबकी किडनियां स्वस्थ होते हुए भी खोखला गई है।  सोचने वाली बात है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस में ऐसा कुछ करने की जरूरत ही क्यों नहीं होती? वे कैसे देश है कि वहां न समाजवाद, गरीबी हटाओं, अच्छे दिन का जादू-मंतर होता है और न उनमें बाधा के चलते शासक नोटबंदी जैसे किसी नुस्खे की डायलिसिल पर जनता को यह उठक-बैठक कराता है कि जैसा कहे वैसा करो!
क्यों? क्या इसलिए नहीं कि हमारा काला खून उस तंत्र , उन अफसरों- नेताओं-कानूनों- एजेंसियों-दफ्तरों की वजह से है जिसका काम ही लाल को काला, सफेद को काला, ईमानदार को भ्रष्ट में परिवर्तित करने का है। सूरत का पटेल, सर्राफा कारोबारी यदि काला खून लिए हुए है और उसका भाई यदि अमेरिका में साफ लाल खून की मस्ती, आजादी को भोग रहा है तो फिर समस्या है कहां?
सो मोदीजी, आदमी चोर नहीं है बल्कि भारत का तंत्र उसे चोर बनाने वाला था , है और यदि नहीं बदला तो रहेगा। फिर भले कितने ही मोदी आए-जाए। देश में सदाचार लाना है तो उस तंत्र, उस प्रतिष्ठान को, उस डायलिसिस मशीन को हटाना होगा जिसके आज आप अधिष्ठाता है और जो भारत में लोगों को पकड़-पकड़ कर न केवल उसकी नसंबदी करता है बल्कि उसके लाल खून को काले खून में बेखटके बदलता है।
नसबंदी और काला खून दोनों प्रतीक है इस देश में व्यक्ति की आजादी, संस्कारों में बंधक होने की। भारत का नागरिक अमेरिका-योरोप जा कर समझदार हो जाता है, आधुनिक बनता है, अमीर हो जाता है क्योंकि वह वहां खुली हवा पाता है न कि तंत्र की घुटनभरी बासी हवा। वह आजादी का अवसर पाता है। वहा ताजा हवा, मुक्तता  उसमें ऐसा उल्लास पैदा करती है कि उसके झौको से गुलामी के इतिहासजन्य डीएनए गुल होते हंै और वह स्वतंत्र अर्जन, निर्माण बना सकने की स्थिति में स्वंयस्फूर्त अपने को बना हुआ पाता है।
सोचे., क्या हममें स्वतंत्रता दिवस के आज के दिन में ऐसी स्वंयस्फूर्तता है?
और मोदीजी, यह भी हकीकत है कि उन देशों में स्वतंत्रता, आजादी ही सदाचार के साथ में अस्तित्व, इतिहास के द्वंदों का भी सामूहिक समाधान निकलवाती है। निश्चय बनवाती है और वे निश्चय दो टूक हुआ करते है। मतलब अमेरिका में, फ्रांस में वह सीन नहीं है जो आज भारत में है कि पहले हिंदूओं में जयचंद बनाम पृथ्वीराज की सेनाओं में तय होगा कि कौन सही है?  या अमेरिका को रिपलब्लिकन मुक्त बनाना है या डेमोक्रेटिक मुक्त? वहां के लौकतंत्र में कोई सत्ता किसी दूसरी पार्टी से देश को मुक्त कराने का आव्हान करें, यह अकल्पनीय है। तब सोचे आप यदि ऐसी अनहोनी भारत में करवा दे रहे है तो इससे अंततः क्या बनेगा?  इस पर जितना सोचेगे उसका निचोड यह निकलेगा कि हम मंत्र-तंत्र-टोटको पर जीने को आश्रित है। हमने और खासकर हिंदूओं ने बौद्विक समुद्र मंथन का वह बंदोबस्त किया ही नहीं है जिसकी स्वतंत्र चेता में देव और असुर समान भाव इतनी समझ तो बनाएं हुए हो कि अमृत क्या है!
सो मोदीजी, आप ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, परमानंदी हंै, योगी हैं तपस्वी हंै, जादूगर हैं, अवतार हैं बावजूद इसके आप अपनी जवानी में जिन देशों के मुरीद हुए उन्ही की व्यवस्थाओं पर गौर फरमा कर जरूर सोचे कि वहां खून लाल रहता है तो यहां काला क्यों? और वे देश मदरसे में राष्ट्रगान, बकरों के रजिस्ट्रेशन के बजाय बुर्के-हिज्ब पर प्रतिबंध जैसी राष्ट्रीय सहमति लिए हुए कैसे हो जाते हंै?
इसलिए कि सहमति समझ से बनती है। और समझ विचारों की आजादी, सतत बौद्विक मंथन,  उदारता, स्वीकार्यता और सदइच्छा के लौकतंत्र पर खिला करती है। तभी वह टिकाऊ होती है और इतिहास भी बनवाती है।

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