अखबार में दो खबरें ऐसी थी जिनकी अनदेखी नहीं कर सका। पहली खबर 51 साल पहले फ्रांस की एलास पर्वत माला में घटी एयर इंडिया के विमान बोइंग 707 की दुर्घटना की थी जिसमें 117 लोग मारे गए थे। इनमें सबसे अहम नाम होमी भाभा का था जो हमारे परमाणु ऊर्जा आयोग के प्रमुख थे। इस दुर्घटना के पीछे सीआईए का हाथ होने का शक जताया गया था। कुछ साल पहले एक विदेशी पत्रकार ग्रेकरी इशलस ने सीआईए के पूर्व अफसर राबर्ट टी क्राउले के हवाले से यह खुलासा किया कि जब 1960 में भारत में परमाणु ऊर्जा पर काम शुरू हुआ तो हमारा चिंतित होना स्वाभविक था। इसकी असली वजह यह थी कि यह देश रूस के काफी करीब था।
होमी भाभा ने अक्तूबर 1965 में आल इंडिया रेडिया पर कहा था कि अगर सरकार हमें इशारा करे तो हम 18 महीनों के अंदर परमाणु बम बना सकते हैं। भाभा का मानना था कि अगर देश को दुनिया में अपनी हैसियत हासिल करनी है तो उसे परमाणु ऊर्जा के उपयोग के क्षेत्रों जैसे बिजली, कृषि, दवाओं के साथ-साथ बम को ले कर भी सोचना चाहिए।
मालूम हो कि परमाणु बम के बारे में दुनिया में कहा जाता है कि यह सत्ता की अंर्तराष्ट्रीय मुद्रा है। बताते हैं कि उनके इस ऐलान के बाद सीआईए ने एयर इंडिया के उस विमान में बम लगा दिया जिससे वे मारे गए। अंततः 18 मई 1974 को पोखरण में किए गए परमाणु परीक्षण या मिशन स्माइलिंग बुद्ध के जरिए उनका वह सपना पुरा हुआ। देश के परमाणु कार्यक्रम का पितामह एक पारसी था।
संयोग से दूसरी खबर भी पारसी लोगों के बारे में ही है जो कि देश के सबसे छोटे अल्पसंख्यक है। वे सही अर्थो में अल्पसंख्यक कहे जा सकते हैं क्योंकि वे कुल जनसंख्या का महज .002 फीसदी ही हैं। वे ऐसे अल्पसंख्यक है जो कि न केवल बडे शांत स्वभाव के हैं बल्कि न तो कभी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग करते हैं और न ही राजनीति या जीवन में आगे बढ़ने के लिए सरकार से किसी तरह की मदद की मांग करते हैँ।
मूलतः पर्शिया (ईरान) के निवासी पारसी करीब 1000 साल पहले वहां से अपनी जान बचा कर भारत आए थे। उनकें पैगंबर ने इस्लाम व ईसाई धर्म आने के पहले जोरस्ट्रियन धर्म चलाया था जोकि अच्छाई व बुराई के बीच अंतर करना सिखाता था। जब अरबों ने उनके देश पर आक्रमाण किया तो वे लोग अपनी जान बचाने के लिए सबसे पहले भडुंच पहुंचे जो कि गुजरात में है। तत्कालीन हिंदू राजा ने उन पर तीन शर्ते लगाते हुए उन्हें शरण दी। पहली शर्त थी कि वे स्थानीय भाषा बोलना सीखेंगे। वे स्थानीय रीति-रिवाज अपनाएं। वे न तो हथियार रखेंगे और न ही धर्म परिवर्तन करवाएंगे। उसने उन्हें अपना अग्नि मंदिर (फायर टेपल) बनाने के लिए जमीन भी दी।
दूसरी खबर यह थी कि लगभग विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके पारसी लोगों की पिछले तीन वर्षों में जनसंख्या बढ़ी है। पिछले तीन वर्षों में 101 बच्चे पैदा हुए हैं। पारसी लोगों की संपन्नता के बावजूद उनकी आबादी बहुत तेजी से घट रही है। सन 1941 में उनकी जनसंख्या 1.14 लाख थी जो कि 2011 की मतगणना के दौरान सिर्फ 57,264 रह गई। औसतन 10 फीसदी सालाना की दर से उनकी जनसंख्या कम हो रही है।
समुदाय में हर 800 लोगों की मृत्यु होती है तो इसकी तुलना में सिर्फ 200 जन्म होते हैं। उनकी संख्या घटने के कई कारण है। पहला अहम कारण यह है कि अपने ही समुदाय में शादियां करने के कारण उनका डीएनए कुछ इस तरह से प्रभावित हुआ है कि जन्म दर में कमी आ रही है। ऐसा देखा गया है कि पारसी आम तौर पर या तो काफी देर से शादी करते है अथवा शादी ही नहीं करते हैं। करीब 10 फीसदी महिलाएं व 20 फीसदी पुरूष अविवाहित रहते हैं।
यह स्थिति तो तब है जबकि आम तौर पर उन्हें आर्थिक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है। पारसी लोगों की खासियत यह है कि वे अपने समुदाय में ही शादी करते हैं व एक दूसरे की काफी मदद करते हैं। उनकी प्रगति व संपन्नता की शुरुआत 1668 में हुई जबकि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत में अपना व्यापार शुरू किया व फैक्टरियां आदि लगाई। पारसी लोग पढ़ने लिखने में तेज थे व ईमानदार थे। उन्होंने अंग्रेंजी भाषा सीखी और अंग्रेंजो के लिए काम करना शुरू कर दिया।
उनकी खासियत यह थी कि वे अंग्रजों की हर तरह की जरूरत चाहे वह उद्योग हो या जहाज या निर्माण पूरा कर देते थे। उन्हें पता था कि मजदूर कहां मिलते है? जहाज निर्माण करने वाले वाले कारीगर कहां से लाए जा सकते हैं? जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने चार्ल्स द्वितीय को दहेज मे मिले मुंबई को अपना कार्यस्थल बना कर वहां पहला बंदरगाह स्थापित किया तो इस काम में पारसी लोगों ने उनकी पूरी मदद की। पारसी व्यापारी रूस्तम मानेकजी की ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पहला एजेंट बनाया और उनके नाम के साथ सेठ विशेषज्ञ जुड़ गया। उसके बाद उन्होंने बड़ी तादाद से पारसी लोगों को बंबई बुलाया जोकि ब्रोकरेज कमीशन एजेंट व जहाजरानी का धंधा करने लगे। उन्होंने जहाज निर्माण में अहम भूमिका अदा की।
18वीं सदी में भारत और चीन के बीच व्यापार शुरू हुआ। तब आम तौर पर यहां से लकड़ी, सिल्क व अफीम चीन जाती थी। अफीम के धंधे में पारसी खूब पनपे। रूस्तम मानेकजे ने अनेक शिक्षण संस्थाएं स्थापित की। वे पारसी लोगों को आर्थिक मदद करते। उन्हें नौकरी देते। उनके बड़े बेटे नौरीज ने बांबे पारसी पंचायत बनाई। इसके बाद पढ़े लिखे पारसी लोगों का बैंको, मिलों, शिपयार्ड पर एकाधिकार होता गया।
उन्होंने मुंबई मे कपड़ा मिलो से लेकर हर तरह के उद्योग स्थापित किए। जमशेदजी टाटा को तो उद्योगों का जन्म माना जाता है। भीकाजी कामा, दादा भाई नौरोजी सरीखे पारसी आजादी के आंदोलन में काफी आगे रहे। दादा भाई नौरोजी तो पहले एशियाई थे जिन्हें ब्रिटिश संसद की सदस्यता प्रदान की गई। इन लोगों ने हर क्षेत्र में सफलता हासिल की। पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशा, क्रिकेट खिलाड़ी फारूख इंजीनियर, पाली उमरीगर, अभिनेता बोमन इरानी, संगीतकार जुबीन मेहता, जाने-माने वकील सोली सेराबजी, जेआरडी टाटा, गोदरेज, नुस्ली वाडिया और इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी सभी पारसी थे। लेखक व पत्रकार बच्ची करकरिया व कूमी कपूर भी पारसी है।
पारसी लोगों की मदद के लिए पारसी पंचायत ने विशेष अभियान चला रखा है। जहां देश में मासिक 570 रुपए कमाने वाले को गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाला माना जाता है वही पारसी पंचायत अपने उन लोगों को गरीब मानती है जिनकी मासिक आय 9300 रुपए से कम है। ऐसे लोगों की वह आर्थिक मदद करती है। उन्हें मुफ्त में रहने के लिए घर उपलब्ध करवाती है। पारसी लोगों की संख्या बढ़ाने के लिए जियो पारसी अभियान शुरू किया गया है। इसके लिए यूनेस्को ने पुरजोर प्रोजेक्ट शुरू किया है जिसे भारत सरकार, बंबई पारसी पंचायत व टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से भी मदद मिल रही है।
आमतौर पर अगर कोई पारसी युवती या पुरूष किसी और धर्म में शादी करता है तो वह पारसी होने के कारण मिलने वाली समाज की तमाम सुविधाओं से वंचित हो जाता है। तेजी से कम होती जनसंख्या के साथ ही उनकी एक बड़ी समस्या अंतिम संस्कार की भी है। पारसी धर्म में अग्नि, जल व भूमि को बहुत पवित्र माना जाता है। इसलिए वे लोग न तो मरने के बाद शव को जलाते है न, गाड़ते हैं या न उसे जल में प्रवाहित करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से ये तीनों अपवित्र हो जाते हैं। उनके धर्म अनुसार मृत्यु के बाद शव को टावर आफ साइलेंस या दोखमा में छोड़ा जाता है जहां गिद्द आकर पार्थिक शरीर को खा जाते थे। मगर पिछले कुछ दशको में गिद्दों की संख्या में भी बहुत कमी आई। इसकी वजह दूध देने वाले जानवरों से ज्यादा दूध हासिल करने के लिए उस इंजेक्शन का इस्तेमाल करना रहा जिसने डाइकलोफेनल नामक रसायन होता है।
जब गिद्दो ने मरे हुए जानवरों को खाया तो यह रसायन उनके शरीर में पहुंचा और उसके कारण उनकी किडनी खराब हो गई और बड़ी तादाद में गिद्द मरना शुरू हो गए। आज तो गिद्द नजर ही नहीं आते हैं। मुबई में दोखमा, मालाबार हिल्स सरीखे सबसे महंगे इलाके में स्थित है। वहां के निवासियों ने दोखमा से लाशों के सड़ने की, बदबू आने की शिकायत की। एक पारसी महिला ने दोखमा की चोरी छिपे तस्वीरे खींची जिनमें लाशों के सड़ते व उन पर कौवों को चोंच मारते दिखाया गया था। वे अपनी मां का इस तरह से अंतिम संस्कार नहीं करना चाहती थी। उनकी इस पहल पर पारसी समाज में बहुत जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। दोनों तरह के तर्क आए और अब कुछ लोगों ने अंतिम संस्कार करने के कुछ और तरीके इस्तेमाल करने शुरू कर दिए हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें