मंगलवार, 22 अगस्त 2017

भारत में दो ध्रुवीय राजनीति की नींव पड़ गई है।

भारत में दो पार्टियों वाली राजनीति की सदिच्छा बहुत पहले से जताई जाती रही है। अमेरिका की तरह दो दलीय प्रणाली की बात गाहेबगाहे उठती रही है। भारत जैसे विविधता वाले देश में यह तो संभव नहीं है कि सिर्फ दो पार्टियां बचें और बाकी खत्म हो जाएं या इन्हीं दो पार्टियों में विलीन हो जाएं। परंतु यह संभावना अब साकार होती दिख रही है कि भारत में दो ध्रुवीय राजनीति हो जाए। ऐसा भी हो जाता है तो यह बहुत बड़ी बात होगी क्योंकि इससे दो दलीय राजनीति की ओर बढ़ने का रास्ता खुलता है।
भारत में दो ध्रुवीय राजनीति की नींव पड़ गई है। इसे गठबंधन की राजनीति की अनिवार्य परिणति कहा जा सकता है। चुनाव बाद गठबंधन करके सरकार बनाने वाली पार्टियां अब चुनाव पूर्व गठबंधन पर जोर देने लगी हैं और उसके वैचारिक आधार को रेखांकित किया जाने लगा है। इस लिहाज से बिहार में भाजपा के विरोध में 2015 में हुए महागठबंधन को प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। संभवतः पहली बार राज्य के स्तर पर इस तरह का प्रयोग हुआ था। केंद्रीय स्तर पर कई बार कांग्रेस के खिलाफ पार्टियां गठबंधन करके लड़ी हैं, लेकिन तब भी वैचारिक आधार पर कुछ पार्टियां अलग रहीं, भले उन्होंने बाद में सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया।
जेपी आंदोलन के बाद भी कांग्रेस बनाम जनता पार्टी की लड़ाई से अलग लेफ्ट का एक वैचारिक खेमा था या वीपी सिंह के आंदोलन में भी कांग्रेस के खिलाफ भाजपा और लेफ्ट का अलग मोर्चा था। हालांकि बाद में इन दोनों ने वीपी सिंह की सरकार बनाने में मदद की। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि जेपी या वीपी के आंदोलन में वैचारिक आधार पर भारत की राजनीति दो ध्रुवीय हुई थी। लेकिन अब सचमुच वैचारिक आधार पर देश की राजनीति दो ध्रुवीय हो रही है।
इस राजनीति का एक ध्रुव भाजपा है और दूसरी कांग्रेस है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जैसा प्रदर्शन किया, उससे अपने आप उसका एक राजनीतिक मुकाम बना। उसके बाद पार्टी ने अपने पुराने आर्थिक दर्शन को छोड़ कर नया दर्शन अपनाया। गरीब के साथ हिदुत्व को जोड़ने का प्रयास शुरू हुआ और प्रयास में अभी तक भाजपा सफल होती दिख रही है। तभी आज वह पुराने एनडीए से बड़ा स्वरूप बनाने में सक्षम है। एक तरह से कहा जा सकता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय एनडीए का जो विस्तार था, वह नरेंद्र मोदी के समय भी हो रहा है, लेकिन बदले हुए वैचारिक दर्शन के आधार पर।
भाजपा के साथ इस समय कुल 31 पार्टियां जुड़ गई हैं। ध्यान रहे वाजपेयी के समय एनडीए के घटक दलों की संख्या 24 थीं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह 31 पार्टियों से ही संतुष्ट नहीं हैं। वे नई और अलग वैचारिक आधार वाली पार्टियों को साथ ला रहे हैं। इसमें सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियां शामिल हैं तो कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टियां भी हैं यहां तक की मुस्लिम तुष्टिकरण और अलगाववादियों का समर्थन करने की आरोपी पार्टियां भी इसमें शामिल हैं। इस वैचारिक दर्शन का क्या नाम होगा, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन मोटे तौर पर अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी या ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी और लिबरल पार्टी की तरह इसका स्वरूप बन रहा है।
इससे मुकाबले में जो एक ध्रुव बन रहा है, उसका गठन मजबूरी में शुरू हुआ, लेकिन अब उसका एक स्वरूप उभरने लगा है। इसका वैचारिक आधार भाजपा के मुकाबले ज्यादा स्पष्ट है। इसमें पारंपरिक रूप से उदार और समावेशी राजनीति करने वाली, सामाजिक न्याय की प्रतिनिधि पार्टियां शामिल हैं। इसके बावजूद इसे भी कोइलेशन ऑफ एक्सट्रीम यानी अतिवादी गठबंधन कह सकते हैं। क्योंकि इसमें एक दूसरे के विरोध में खड़ी हुई पार्टियां एक साथ हैं। यहां तक कि अलग अलग सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां भी इसमें एक साथ आई हैं। इसके बावजूद कि इनके समर्थक सामाजिक समूहों के बीच जमीनी स्तर पर कई तरह के झगड़े और अंतर्विरोध हैं। इसमें सपा और बसपा या लेफ्ट और तृणमूल कांग्रेस का नाम लिया जा सकता है। यह भी हकीकत है कि इस तरह के स्वरूप वाली पार्टियां और गठबंधन ज्यादा बिखरते रहे हैं। लेकिन वह बनने के बाद के बात है। कहा जा सकता है कि अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी ये ब्रिटेन की लेबर पार्टी की तरह भारत में दूसरा ध्रुव बन रहा है।
भारत की राजनीति भाजपा और कांग्रेस के दो ध्रुवों पर घूमने लगी है। इस बार देश की लगभग सभी पार्टियों का ध्रुवीकरण इनके आसपास होगा और यह काम चुनाव से पहले होगा। चुनाव के बाद दोनों बड़ी पार्टियां समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ तालमेल करती रही हैं, लेकिन इस बार यह काम चुनाव से पहले हो रहा है। लोकसभा चुनाव में अभी डेढ़ साल का समय है। इस डेढ़ साल में दोनों पार्टियों का ध्रुवीकरण तेज होगा और दोनों विलय और गठबंधन के जरिए ज्यादा से ज्यादा पार्टियों को अपने साथ लाने का प्रयास करेंगी। इस प्रयास के दायरे से बाहर अब सिर्फ एक या दो बड़ी पार्टियां दिख रही हैं। लेकिन अगले डेढ़ साल तक ये पार्टियां अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए दो बड़े गठबंधनों से दूर रहेंगी, यह कहना थोड़ा मुश्किल है।

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