पिछले काफी समय से ईसाई मां की संतानों की संख्या अन्य धर्मों की तुलना में ज्यादा रहती आई हैं। पियू रिसर्च सेंटर की माने तो 2035 तक मुस्लिम मां की संताने इस होड़ में सबसे आगे होगीं। सेंटर का आकलन है कि नबंर की दौड़ में कोई भी आगे रहे। ईसाई और मुस्लिम संताने संख्या के लिहाज से भविष्य में दुनिया के कुल शिशुओं में करीब तीन-चौथाई हो जाएगी। सन् 2010 से 2015 के बीच दुनिया में जितने शिशुओं का जन्म हुआ उनमें से 66 फीसद की मां ईसाई या मुसलिम थी। 2055 से 2060 के बीच यह आंकड़ा 71 फीसद का रहेगा। सेंटर का आकलन है कि 2015 से ईसाई व मुस्लिम मां ज्यादा संतानों को जन्म दे रही हैं।
2060 तक दोनों के बीच करीब साठ लाख का फर्क आ जाएगा। 22 करोड़ 60 लाख ईसाई शिशुओं की संख्या की तुलना में तब मुस्लिम शिशुओं की संख्या 23 करोड़ बीस लाख हो जाएगी। सेंटर की रिपोर्ट बतानी हैं कि अन्य धर्मों की संतानों की संख्या 2015 से 2060 की बीच तेजी से गिरेगी। ज्यादा गिरावट हिंदुओं में आएगी। 2010 से 2015 की तुलना में 2055 से 2060 की बीच हिंदू संतानों की संख्या तीन करोड़ तीस लाख कम हो जाएगी। दुनिया में बढ़ती आबादी पर चिंतन और विमर्श का नजरिया बदल रहा है। अब इस आधार पर आकलन हो रहा है कि आने वाले सालों में किस धर्म को मानने वालों की संख्या ज्यादा होगी। भारत में जब भी बढ़ती आबादी में धार्मिक अनुपात असंतुलित होने की बात कही जाती है तो उसे सांप्रदायिक विद्धेष फैलाने का प्रयास करार दे दिया जाता है।
बहरहाल 2015 के तीन महीने में धार्मिक पहचान के आधार पर दो रिपोर्ट सामने आई है। 2011 में हुई जनगणना के जिन आंकड़ों को धार्मिक आधार पर अलग-अलग किया गया है, उसके मुताबिक 2001 की तुलना में 2011 में मुस्लिम आबादी 24 फीसद बढ़ी और कुल जनसंख्या में उसका हिस्सा 13.4 फीसद हो गया। दशक के आधार पर विश्लेषण करें तो 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम आबादी बढ़ने की रफ्तार 1991 से 2001 के दशक के 29 फीसद से कम जरूर रही। फिर भी 2001 से 2011 के बीच अन्यों की आबादी 18 फीसद की दर से ही बढ़ी। उधर अमेरिका के एक शोध संस्थान का आकलन है कि 2050 तक दुनिया भर में आबादी बढ़ने की सबसे तेज रफ्तार मुसलमानों की होगी। शोध में बताया गया था कि 2050 तक भारत हिंदू बहुल देश तो बना रहेगा लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी अगर कहीं होगी तो वह भारत में होगी। अभी इंडोनेशिया सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है। 2050 में भारत उसे पीछे छोड़ सकता है।
अमेरिकी शोध संस्थान का मानना था कि 35 साल में हिंदू और ईसाई आबादी मुस्लिम आबादी बढ़ने की रफ्तार से कदम ताल नहीं मिला पाएगी। हालांकि अध्ययन में माना गया था कि अगले कम से कम चार दशक तक दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी ईसाइयों की ही रहेगी। लेकिन 2050 में ईसाई और मुस्लिम आबादी इतिहास में पहली बार लगभग बराबरी पर आ जाएंगी। तब 280 करोड़ मुसलमान दुनिया की आबादी का 30 फीसद होंगे और ईसाई 290 करोड़ के साथ 31 फीसद। 2010 में दुनिया में मुस्लिम आबादी 160 करोड़ थी और ईसाई आबादी 217 करोड़। अध्ययन का मानना था 2070 तक इस्लाम को मानने वाले दुनिया में सबसे ज्यादा हो सकते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक तक हिंदुओं की अभी के करीब सौ करोड़ से बढ़ कर 140 करोड़ ही हो पाएगी और हिस्सा महज 14.9 फीसद होगा। धर्म के आधार पर बढ़ रही आबादी के संदर्भ में पियू रिसर्च सेंटर ने एक और तस्वरी पेश की है। सेंटर का मानना है कि 2010 से 2015 के बीच मुसलिम आबादी दुनिया भर में पंद्रह करोड़ से ज्यादा बढ़ी। 2015 से 2060 के बीच मुसलिम आबादी 70 फीसद बढ़ने का अनुमान है। 2070 तक इस्लाम को मानने वाले दुनिया में सबसे ज्यादा हो जाएगें। धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को लेकर भारत में हमेशा वैचारिक बहस चलती रही है। राजनीति चमकाने का भी यह सबसे आसान जरिया है। लेकिन धर्म को लेकर सबसे ज्यादा आस्था अगर दुनिया में कहीं है तो भारत में। यह इतनी विस्तृत है कि आबादी के अनुपात में स्कूल, कालेज या अस्पताल ही नहीं शौचालय तक भले ही कम हो लेकिन पूजा स्थलों की भरमार है।
देश में हर एक हजार परिवारों के लिए औसतन 12.1 पूजा स्थल हैं। केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में तो यह औसत 40.4 है। उसकी तुलना में चंडीगढ़ में हर एक हजार परिवारों के लिए 1.9 पूजा स्थल हैं। राष्ट्रीय औसत से नीचे तो गिने चुने राज्य केंद्र शासित प्रदेश ही हैं। राजधानी दिल्ली में यह औसत 2.5 है। दादरा और नगर हवेली में 5.6, हरियाणा में 6.9, पुडुचेरी में 7.6, नगालैंड में 8.1 और बिहार में 8.80 पूजा स्थल ही एक हजार परिवारों के लिए हैं। इस अध्ययन का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जिन राज्यों की धर्मनगरी के रूप में ख्याति है वहां आबादी की तुलना में पूजा स्थल कम हैं। उत्तराखंड को देवभूमि माना जाता है। वहां हर एक हजार परिवारों के लिए 16.4 पूजा स्थल हैं जबकि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश् में यह औसत 25.8 का है। उत्तर प्रदेश में तो यह राष्ट्रीय औसत से भी कम 10.7 का है। मध्य प्रदेश का औसत 11.3, झारखंड का 10.3 और महाराष्ट्र का 11.5 है।
कुछ दक्षिणी राज्य धर्म के प्रति आस्था के मामले में काफी आगे माने जाते हैं। वहां विभिन्न धर्मों की प्रतीक प्राचीन व भव्य इमारतें तो हैं लेकिन गली गली में पूजा स्थलों का बिखराव नहीं है। आंध्र प्रदेश में एक हजार परिवारों के लिए 9.1 और आंध्र प्रदेश में 9.2 पूजा स्थल पर्याप्त मान लिए गए हैं। कर्नाटक में यह औसत आश्चर्यजनक रूप से 16.5 का है। सबसे ज्यादा शिक्षित व प्रगतिशील और कम्युनिस्ट विचारधारा से ज्यादा प्रभावित केरल में एक हजार परिवारों को अपने धार्मिक अनुष्ठान निपटाने के लिए 13.5 पूजा स्थल उपलब्ध है। राज्य में सरकार किसी भी विचारधारा की रही हो, धर्म के प्रति लोगों की आस्था खुरच नहीं पाती। पश्चिम बंगाल में बरसों वामपंथी शासन रहा लेकिन वहां के पूजा स्थलों का औसत 12.7 रहा। अध्ययन में धर्म के आधार पर पूजा स्थलों की संख्या का खुलासा नहीं किया गया है लेकिन मंदिर-मस्जिद की संख्या में आम तौर पर ज्यादा फर्क नहीं दिखता। जिन राज्यों में अल्पसंख्यक आबादी की बहुलता है वहां के पूजा स्थलों में किस धर्म को मानने वालों की प्रधानता है, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
असम में एक हजार परिवार पर 25, जम्मू कश्मीर में 23.3, मिजोरम में 17.4, गोवा में 17.5, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 15.9, अरुणाचल प्रदेश में 12.9, मेघालय में 12.8, त्रिपुरा में 12.2 पूजा स्थल हैं जो राष्ट्रीय औसतम से ज्यादा है। लेकिन समानुपातिक नहीं है। हिंदीभाषी राज्यों में राजस्थान (17.7) का औसतम चौंकाने वाला है। गुजरात में यह 14.9 और ओडिशा में 13.9 है। दुनिया के किसी अन्य देश की तुलना में भारत में पूजा स्थलों की बहुतायत की वजह देश की सांस्कृतिक विविधता है। यह विविधता एकता का सबसे बड़ा आधार हो सकती है, लोगों की जीवन शैली और सोच को उदारवादी बना सकती है।
हर धर्म सामंजस्यता और भाईचारे की सीख देता है और उन्हें बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन धर्म में इतनी गहरी और व्यापक आस्था होने के बावजूद मानवीय मोर्चे पर भारतीय म्यांमार, भूटान, थाइलैंड और मलेशिया तक के लोगों से काफी पीछे है। छह साल में पहली बार उन देशों की रैकिंग जारी की गई है जहां के लोग दान देने, दूसरों की मदद करने और परमार्थ में समय देने में विशेष रुचि रखते हैं। रिपोर्ट का निचोड़ है कि 80 फीसद भारतीय सामाजिक कल्याण के कामों के लिए दान नहीं देते। ऐसे कामों के लिए समय देने में भी 83 फीसद भारतीय कोताही बरतते हैं।
हर धर्म सामंजस्यता और भाईचारे की सीख देता है और उन्हें बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन धर्म में इतनी गहरी और व्यापक आस्था होने के बावजूद मानवीय मोर्चे पर भारतीय म्यांमार, भूटान, थाइलैंड और मलेशिया तक के लोगों से काफी पीछे है। छह साल में पहली बार उन देशों की रैकिंग जारी की गई है जहां के लोग दान देने, दूसरों की मदद करने और परमार्थ में समय देने में विशेष रुचि रखते हैं। रिपोर्ट का निचोड़ है कि 80 फीसद भारतीय सामाजिक कल्याण के कामों के लिए दान नहीं देते। ऐसे कामों के लिए समय देने में भी 83 फीसद भारतीय कोताही बरतते हैं।
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