रविवार, 9 जुलाई 2017

दलित चेतना और देश की राजनीति!

भारत की राजनीति क्या दलित उभार के दौर में आ गई है? कई जानकार अभी इसकी संभावना नहीं देख रहे हैं, लेकिन यह जरूर मान रहे हैं कि नब्बे के दशक में जिस ओबीसी राजनीति का दौर शुरू हुआ था वह अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसके बाद देश की राजनीति दलित दौर में प्रवेश करेगी। बहरहाल, अभी इस राजनीति का समय शुरू हो गया या अगले दशक में शुरू होगा यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश की राजनीति इस दिशा में बढ़ गई है। 
राष्ट्रपति पद के चुनाव में दो दलित उम्मीदवारों का खड़े होना इसका एक प्रस्थान बिंदु हैं। हालांकि यह सवाल उठ सकता है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति और आधुनिक समय में उसकी आईकॉन के तौर पर उभरी मायावती के अवसान के साथ कैसे देश में दलित राजनीति की संभावना देखी जा सकती है। लेकिन मायावती का अवसान एक छोटा सा भटकाव है, जो व्यापक राजनीति को ज्यादा प्रभावित नहीं करता है। यह सही है कि वे लगातार तीन चुनाव हारी हैं, लेकिन उनका वोट बैंक अपनी जगह कायम है और वह उनके साथ बना रहेगा या दलित राजनीति करने वाली दूसरी पार्टी को जाएगा। 
अगर दलित राजनीति का दौर आने में समय लगता है कि उसके लिए एकमात्र जिम्मेदार कारक हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी भाजपा है। भाजपा को भी इसका अंदाजा है इसलिए उसने रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाया है। इसका तात्कालिक मकसद उत्तर प्रदेश में बसपा की राजनीति को कमजोर करना और गुजरात में कोली समुदाय का समर्थन जुटाना है। लेकिन लंबे समय में इसका मकसद दलित वोट को भाजपा के साथ लाना है। अगर भाजपा के हिंदुत्व और दलित कल्याण के दांव से प्रभावित होकर दलित उसकी ओर जाते हैं तो राजनीति का नया दौर शुरू होने में थोड़ी देर हो सकती है। 
भाजपा इस वजह से भी इस राजनीति के आगमन को थोड़ा आगे टाल सकती है कि उसके नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने को पिछड़ा, दलित, गरीब, वंचित आदि का प्रतीक खुद को बना रहे हैं। वे अपने तमाम फैसलों को गरीब के नाम से जोड़ कर यह मैसेज दे रहे हैं कि भाजपा अब ब्राह्मणों, बनियों की पार्टी नहीं है, बल्कि गरीबों की पार्टी है। उनका यह दांव दलितों को भाजपा के साथ जोड़ सकता है। इससे हो सकता है कि दलित राजनीति का दौर थोड़ा आगे खींच जाए। इसके बावजूद उसे ज्यादा समय तक नहीं रोका जा सकता है। 
राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सामाजिक कारणों से देश के अलग अलग हिस्सों में जिस दलित चेतना का उभार हुआ है वह राजनीति में एक नए दौर की राजनीति की शुरुआत का संकेत है। गुजरात में जिग्नेश मेवानी और उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद सिर्फ दो व्यक्तियों के नाम नहीं हैं, बल्कि एक नई राजनीति के प्रतीकों के नाम हैं। इनकी राजनीति अब तक दलित राजनीति करने वाले नेताओं से अलग है। रामविलास पासवान या रामदास अठावले या प्रकाश अंबेडकर इनकी राजनीति का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। कांशीराम और मायावती ने बिल्कुल शुरुआत में जैसी राजनीति की थी, उसके कुछ संकेत जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर आजाद में दिख रहे हैं। 
इसी तरह एक प्रतीक जस्टिस सीएस कर्णन हैं। कलकत्ता हाई कोर्ट के जज रहे जस्टिस कर्णन सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के मामले में जेल में हैं। लेकिन वे दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए प्रेरणा बन गए हैं। उनके बहाने यह प्रचार चल रहा है कि न्यायपालिका ब्राह्मणवादी है और वह एक दलित जज को प्रताड़ित कर रही है। सोशल मीडिया में अनगिनत दलित या पिछड़े विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर की जगह जस्टिस कर्णन की तस्वीर लगाई है। 
पंजाब के दलित उभार की कहानी भी मीडिया में बहुत कम आ पाई है। यह तथ्य है कि पंजाब में देश के किसी भी दूसरे राज्य के मुकाबले दलित आबादी ज्यादा है। लेकिन वहां आमतौर पर लोग अपनी दलित पहचान छिपाते थे। लेकिन अब खुल कर वे इसका इजहार करते हैं। दलित गायकों और गीतकारों की एक पूरी फौज तैयार हो गई है, जो अपनी अस्मिता को आधार बना कर गाने लिख रहे हैं और नौजवान उन्हें गाते हुए घूम रहे हैं। इसी वजह से पहली बार पंजाब में चुनाव लड़ने गई आम आदमी पार्टी ने दलित उप मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान किया था। 
नब्बे के दशक के आखिर में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद पिछड़ी जातियों की राजनीति में उभार आया और एक के बाद एक पिछड़े नेताओं के हाथ में सत्ता जानी शुरू हुई। इसके पीछे सिर्फ पिछड़ी जातियों की वोट ताकत का हाथ नहीं था, बल्कि इसमें एक बड़ी ताकत मुस्लिम वोट की थी। जिस सेकुलर राजनीति की आज बात होती है वह अनिवार्य रूप से पिछड़े और मुसलमानों की राजनीति है। अब मुस्लिम जमात दलित नेताओं की ओर देख रहा है। मेवानी और चंद्रशेखर दोनों की राजनीति में मुस्लिम शामिल हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में ठाकुरों और दलितों के टकराव के बाद इस राजनीति में एक मोड़ आया है। 
ऐसे ही पशु बिक्री और पशु वध को लेकर केंद्र सरकार के बनाए नए कानून ने भी दलित और मुस्लिम को एक मंच पर लाने का काम किया है। इस कानून से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले ये दो समुदाय हैं। गोरक्षा को लेकर चल रहे आंदोलन का भी असर सबसे ज्यादा इनके ऊपर हो रहा है। सो, सामाजिक और राजनीतिक दोनों हालात ऐसे बन रहे हैं कि अगले कुछ दिन में दलित राजनीति का दौर शुरू होता दिखने लगा है।

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