सोमवार, 31 जुलाई 2017

यह तो अच्छा, मंडल खत्म!

एक-एक कर सबको कमंडल ने निगल लिया! हां, नीतीश कुमार मंडल राजनीति का आखिरी चेहरा थे जो सियासी संभावना लिए हुए थे। डा लोहिया और वीपीसिंह ने पिछड़ी जातियों का हल्ला कर भारत की राजनीति में जात का जो फार्मूला चलवाया था वह इस 27 जुलाई को हमेशा के लिए कब्र में दफन हो गया है। मेरी इस थीसिस में आप कई किंतु, परंतु बता सकते हैं। यह भी कह सकते है कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह भी वोट के लिए जातियों का हिसाब रखते हंै। उस नाते मेरा यह भी मानना है कि कि नरेंद्र मोदी ने नेहरू और इंदिरा की गरीब राजनीति, सत्ता एकाधिकार, तंत्र की मनमानी बनवाने आदि के फार्मूलों की नकल के साथ वीपीसिंह के जात फ्रेमवर्क को भी अपना रखा है। लेकिन इसके साथ यह बात भी गांठ बांध ले कि ये पहलू कमंडल के अब हिस्से है। पासवान हो मांझी हो, कुशवाह हो या मौर्य या नीतीश या राजभर नेता सभी का स्वतंत्र अस्तित्व खत्म है। जातियां कमंडल में समाहित है। ये इस कमंडल से वापिस जिन्न बन कर बाहर निकले यह आगे संभव नहीं है!
बहुत बड़ी बात कह दे रहा हूं। उस नाते नरेंद्र मोदी, अमित शाह के अपन कायल है। दोनों वोट के लिए भले जात का हिसाब लगाए रहे मगर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बनेगें। पटेलों के ऊपर एक-दो प्रतिशत आबादी के जैन प्रतिनिधी रूपानी मुख्यमंत्री है तो जाट दबंगी वाले हरियाणा में पंजाबी मुख्यमंत्री या महाराष्ट्र में ब्राह्यण मुख्यमंत्री बना हुआ है। मामूली बात नहीं है कि मायावाती, उिदतराज, पासवान, मराठा क्षत्रप शरद पवार, लालू यादव, नीतीश कुमार सब खत्म हो गए है। समझ ले कि इनका होना, न होना अब बेमतलब है। और यह भी नोट कर लें कि ओबीसी- हिंदी- उपराष्ट्रीयता के जुमलों पर कर्नाटक में सिद्वारमैया या देवगौडा चुनाव जीतने की अभी जो उड़ान भर रहे है वह बुरी तरह फुस्स होगी। अगले साल कर्नाटक में ओबीसी, जात राजनीति की हार मंडल राजनीति के ताबूत पर आखिरी कील का ठुकना होगा। 
निश्चित ही मेरी इस बात से वे नेता, पत्रकार असहमत होंगे जो मंडल राजनीति के दौर में पक्के-बड़े  हुए  है। वे जाति के वोटों की गणित में ही सोचेगें। पासवान, नीतीश, मांझी, कुशवाह, लालू के चेहरों के वोटों पर हिसाब लगाएंगे और फिर फेल होंगे। इसलिए कि  अगले एक-दो दशक तो न कमंडल गायब होना है और न वक्त पीछे लौटना है। पूरे देश में अब दिल्ली की राजनीति को देखने का लोगों का चश्मा बदल गया है। दूसरे अगले दस-पंद्रह साल नौजवान आबादी जात से और दूरी बना चुकी होंगी। 
यह स्थिति अंततः कांग्रेस के लिए भी फायदेमंद होनी है। कांग्रेस को मंडल, जात राजनीति ने ही बरबाद किया था। कांग्रेस आजादी के वक्त हिंदू पार्टी थी न कि समाजवादी या जात पार्टी। इसलिए राहुल गांधी ने यदि समझदारी दिखाई (क्या दिखा सकते है? और क्या मुस्लिम-जात राजनीति में बंधे कांग्रेसी नेता ऐसा होने देंगे?) और वे राजनीति में टिके रहे तो अपने आप उनका विकल्प बनेगा। आने वाले सालों में लालू, मायावती आदि कांग्रेस को डिक्टेट नहीं कर सकेंगे। सभी विरोधियों, मोदी सरकार से नाखुश लोगों को कांग्रेस के छाते में ही शरण लेनी होगी। 
जो हो, बुनियादी मुद्दा है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने यूपी-बिहार में 2014 के नतीजों को 2019 रीपिट करवाने का बंदोबस्त कर लिया है। बिहार में भाजपा-एनडीए को तब 31 सीटे मिली थी। सो 2019 में जब लोकसभा चुनाव होंगा तो नीतीश कुमार और उनके जनता दलयू  को भाजपा अधिक से अधिक  तब विपक्ष की जीती 7-8 सीटे देगी। ये सीटे ओबीसी-मुस्लिम बहुल है। वहां लालू-कांग्रेस की पार्टी उन्हे शायद ही जीतने दे। सो नीतीश के 2-3 सांसद भी चुने जाए तो बडी बात होगी। फिर विधानसभा चुनाव में भाजपा महाराष्ट्र वाला फार्मूला चलाएगी। मतलब भाजपा ऐसी नौबत ला देगी कि खुद अकेले लड़ेगी और जैसे शिवसेना से कहा था कि अकेले लड़ो चुनाव बाद देखेंगे वही नीतीश कुमार के साथ होगा। सो बिहार में अगला मुख्यमंत्री अनिवार्यतः पूर्ण बहुमत से कमंडल से निकला चेहरा होगा। भले वह ओबीसी प्रेमकुमार जैसा हो या हिंदू तेंवर वाले गिरिराजसिंह का!

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