भारत में धंधे की सफलता के तीन मंत्र धंधेबाज पर माईबाप सरकार की कृपा हो। उसे भीड़ को उल्लू बनाने की कला आती हो और एकाधिकार, मोनोपॉली का वह दुस्साहस रखता हो। ये तीन बातें यदि है तो खरबपति बनना चुटकियों का काम है। आपको कोई आविष्कार, कैपिटल, क्वालिटी, लीडरशीप आदि की उन बातों की जरूरत नहीं है जिनके बिना अमेरिका में, जापान-जर्मनी में उद्यमशीलता बन ही नहीं सकती। तभी भले हम 21 वीं सदी में हों व डिजिटल युग ही क्यों न हों पर भारत में धंधा मुगलई राज वाला ही है! जियो शब्द का देशज अर्थ यह भाव है कि आप जिंदा रह लो। आप हाथ में कटोरा लिए खड़े हंै और कोई कृपा कर आपको मुफ्त में वह सबकुछ दे रहा है जो आपके बगल का अमीर भोग रहा है। आप भी जियो, मजे मारो! सोंच सकते हैं कि धंधे से क्रांति लिवा लाने के धीरूभाई, मुकेश, अनिल अंबानी ने जो नुस्खे भारत राष्ट्र-राज्य में पिछले 40 सालों में अपनाए हंै वह सचमुच में आजाद भारत के 70 साल के इतिहास का बेजोड़ मामला है। यही हकीकत अपने आप मंे भारत को अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन याकि विकास के सच्चे देशों से एकदम अलग बनवाती है। सोंचने वाली बात है कि धंधे की ऐसी क्रांति उन देशों में क्यों नहीं होती? फोन, स्मार्टफोन, इंटरनेट, डाटा सब ईजाद अमेरिका-यूरोप में हुए। पर वहां कोई धंधे वाला अंबानी की तरह कटोरे में मुफ्त डाटा, मुफ्त फोन देने वाला क्यों नहीं पैदा हुआ?
क्यों?
इसलिए कि वहा लोग उल्लू नहीं बनते और राष्ट्र-राज्य ऐसे कानून-कायदे बनवाएं हुए होते हंै जिससे न तो ग्राहक-उपभोक्ता को ठगा जा सकता है और न व्यापार में किसी का एकाधिकार बनने दिया जाता है। न ही उपभोक्ता की शिकायत अनसुनी होती है। अमेरिका और यूरोप याकि विकसित देशों में संभव ही नहीं है कि किसी एक खरबपति की धंधे में मोनोपॉली बने या सेवा का वायदा कर ग्राहक को कंपनी सेवा न दे। अमेरिका ने फोन की जनक मूल फोन कंपनी एएंडटी का एकाधिकार उसके टुकड़े-टुकड़े करवा कर खत्म कराया। अभी यूरोपीय संघ ने गूगल कंपनी पर धंधे की एक मामूली गड़बड़ी (जो अपने को मामूली लग सकती है मगर वहां बहुत गंभीर है) पर भारी जुर्माना ठोका। यह सब अपने यहां नहीं है। पश्चिम की नकल कर हमने कानून भले बना लिए हों, उपभोक्ता संरक्षण, उनके हक का बेहिसाब प्रचार भी होता हो मगर सब फिजूल। अंग्रेजों ने दस तरह से भारत को ठगा होगा मगर वे जो व्यवस्था बनवा गए हंै जो क्रोनी पूंजीवाद बनवा गए हैं उसके चलते भारत की सरकारी-गैर सरकारी कंपनियों ने असंख्य गुना अधिक भारतीयों को ठगा,लूटा है। किसी भी मामले में ग्राहक को क्वालिटी सेवा दी ही नहीं है। अपवाद और बिरले ही ऐसे दो-तीन उदाहरण है जिसमें ग्राहक को, भारत के नागरिक को जो कहा गया वह सेवा मिली हो या मिलती हो।
इसलिए कि नागरिक उर्फ ग्राहक हमारे यहां भीड़ है। वह भीड़ है जिसे धंधेबाज, सेठ प्रदाता इस उपकार भाव चीज बेचता है, सेवा देता है मानो ग्राहक कटोरा लिए खड़ा हो। कटोरे में यह लो फोन, यह डाटा और जियो! भीड़ के लिए यही बहुत है कि हाथ में फोन है, सड़क पर बिजली का खंभा है, सिलैंडर आने लगा है, स्कूल खुल गई है, सड़क बन गई है। यही सब क्योंकि उसका अपने आपमें जियो है इसलिए उसे यह समझ नहीं आता कि कॉल ड्राप हो रही है तो कैसे चूना लग रहा है या बिजली कितने वक्त आती है या गैस कितनी जल्दी चूकती है या स्कूल में मास्टर नहीं या सड़क खड्डों वाली है।
तभी देशी कंपनियों के लिए भारत की भीड़, भारत का गरीब अपने आपमें धंधे का मंत्र है। कुछ नहीं करों भीड़ को उल्लू बनाओं। भीड़ को उल्लू बनाना भारत में बिजनेश प्लानिंग, मार्केटिग का नंबर एक अचूक नुस्खा है। सचमुच यह विश्लेषण होना चाहिए कि ग्राहक को प्रॉडक्ट और सर्विस देने के वायदे में भारतीय बनाम योरोपीय, ब्रितानी कंपनियों की एप्रोच में कितना और क्यों फर्क होता है? और क्या यही तो वह वजह नहीं है जिससे रिलायंस, एयरटेल में कभी अमेरिका व योरोप के ग्राहकों के बीच जा कर धंधा करने की हिम्मत नहीं हुई?
इसलिए कि वे लोग जियो की मजबूरी, मेहरबानी और उल्लूपने में नहीं जीते। वे गुणवत्ता, अधिकार, पारदर्शिता और जवाबदेही की जिंदगी में जीते हुए समझ रखते है कि क्या सच है और क्या गलत? वहा का सिस्टम उल्लू बनने-बनाने के धंधे पर चौकस होता है। यह संभव नहीं कि आप सेवा 4 जी की दे रहे हैं और इंटरनेट कनेक्शन 16 केबी का अनुभव कराएं। या मोबाइल की दस काल में से पांच-छह ड्राप हो या कई जीबी डाटा का वादा हो और वह डाटा ट्रांसफर की जगह आपके वक्त की फिजूल बरबादी कराएं।
आप भी सोचें, आप भी अनुभव करें कि पिछले बीस सालों में हम लोगों ने क्या अनुभव किया? नाम है संचार क्रांति? और यह कथित क्रांति इस बात का सबूत है कि इसी में भीड़ सर्वाधिक उल्लू, मूर्ख बनी। इंटरनेट और मोबाइल सेवा में जितने-जैसे वायदों-भरोसा से सेवा बेची गई उसका आधा-अधूरा भी ग्राहक को अनुभव नहीं हुआ। भारत के हर नागरिक ने हर दिन यह अनुभव किया कि वह फोन कर रहा है और कॉल ड्राप हो रही है। एक बात दो-तीन बार कॉल के बिना पूरी नहीं होती। विदेश में ऐसा अनुभव नहीं होता। विदेशी दोस्त ऐसी जानकारी नहीं देते। जैसे वहां बिजली कभी नहीं जा सकती तो कॉल ड्रॉप भी नहीं होती। हां, जान ले जापान, ब्रिटेन, अमेरिका में ऐसा होना दुर्लभ और बिरला है।
इसलिए कि वहा सरकार, खरबपति, कंपनियां, सेठ वैसे नहीं है जैसे अपने हैं। सबसे बड़ी बात वहां लोग अधिकार संपन्न समझदार नागरिक है। ठीक विपरित हम सर्तक नागरिक नहीं बल्कि उस भीड़ का पर्याय है जिसका जी लेना ही याकि जियो में सांस लेना ही अपने आपमें बहुत है। अब ऐसा है तो क्यों न अंबानी अपनी मोनोपॉली बनाएं। जिस धंधे में ग्राहक फोन रख कर ही खुश है, कनेक्शन की बात से ही मस्त-मस्त है तो उसमें क्यों न मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी जियो से वैसा बम-बम बिजनेश बनाए जैसा पंद्रह साल पहले उन्होने अपने भाई अनिल अंबानी के साथ रिलायंस कम्युनिकेशन का बनवाया था। सीडीएम की सस्ती तकनीक से तब अनाधिकृत झुग्गीझोपडि़यों जैसे जबरदस्ती के फैलाव का धंधा बना कर लाइसेंसशुदा जीएसएम की मोबाइल कंपनियों के यहां से भीड़ गायब करवाई वैसे ही अब भी होगा। मुकेश अंबानी ने भीड़ के कटोरों में पहले डाटा डाला, अब फ्री फोन डालेंगे और क्रांति कर दिखाएंगे। यह क्रांति उल्लू बनाने वाली होगी तो मोनोपॉली वाली भी!
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