सोमवार, 31 जुलाई 2017

पर यह कैसा कमल?

कमंडल में मंडल का समा जाना राजनैतिक तौर पर भले देश की तासीर बदलने वाला हो मगर कमल तो कीचड़ में लथपथ है। कभी भाजपा की पूंजी उसके चाल, चेहरे, चरित्र और सबसे अलग तरह की पार्टी का नारा था। अब कुल मिला कर कीचड़ का फैलना है। पिछले तीन सालों में भाजपा ने जितना दलबदल कराया, सत्ता की भूख, जीतने की अंधी धुन में जैसे जो तरीके अपनाएं, जो राजनीति की, जैसे सरकारें बनाई है वैसा आजाद भारत में कभी नहीं हुआ। दलबदल करा, गले लगा दलबदलूओं को जैसे सत्ता में बैठाया है और जम्मू-कश्मीर में मेहबूबा मुफ्ती से एलायंस से ले कर केरल, गुजरात से अरुणांचल प्रदेश, बिहार में जैसी तोड़फोड़, गंदगी की है या कराई है वह न तो कमल की पुण्यता को चार चांद है और न संघ संस्कार से मेल खाता है और न श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, आडवाणी, गडकरी, राजनाथसिंह की अध्यक्षता की सौम्य विरासत की प्रतिनिधी राजनीति है। यह तब है जब अपने आप वक्त, हिंदू की सोच में हवा बनी हुई है। हिंदू वैसे ही बावला हुआ पड़ा है, वोट अपने आप आ रहा है तो विपक्ष को खत्म करने या जीतने की भूख का लगातार बढ़ते जाना भला क्योंकर? 
शायद इसलिए कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह इस जल्दी में है कि वे फटाफट साबित कर दिखाएं कि उन्होंने जितनी जल्दी सभी प्रदेशों में अपनी सरकार बनवा डाली वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया। ऐसा होने से हताशा में विपक्ष लड़ने लायक नहीं बचेगा। कमल, चरित्र आदि की चिंता छोड़ों अभी विपक्ष को तोड़ों। 
तभी नीतीश-लालू-कांग्रेस महागठबंधन को तुड़ाना और गुजरात की विधानसभा में इंच जमीन भी कांग्रेस की न रहने देने का मिशन पूरे देश को निर्णायक मैसेज होगा। जैसे बिहार में महागठबंधन तुड़ाने की स्क्रीप्ट पर महीनों से काम हो रहा था वैसे ही सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल को एक सीट के लिए भी मोहताज बना देना बहुत बड़ा राजनैतिक मैसेज है। इधर राहुल गांधी के पप्पू होने का प्रचार और उधर तुर्रमखा रणनीतिकार अहमद पटेल की हार से मैसेज बनेगा कि इनमें है क्या दम? न तो कांग्रेस में गुजरात चुनाव लड़ने की हिम्मत बचेगी और न फिर अहमद पटेल या कोई और कांग्रेसी विपक्षी एकता की राजनीति की हिम्मत जुटा सकेगा। कांग्रेस व अहमद पटेल अपने विधायकों को कही भी छुपा कर रखे पहले से ही सबकुछ तय हुआ पडा है। जंग में सब जायज है, का मंत्र अपना कर नरेंद्र मोदी, अमित शाह ने स्क्रीप्ट लिखी हुई है। सो अपने को आश्चर्य होगा यदि अहमद पटेल जीते। अपन उनकी हार देख रहे है। 
जो हो, कमल अब न सौम्य-गुलाबी है और न कीचड़ में खिला हुआ। वह तो खुद कीचड़ बना दे रहा है। शायद यह सोचते हुए कि जितना कीचड़ बनाएगे, गंदी राजनीति करेंगे उतना खिलेगे।  

समझो राष्ट्रवादियों, समझो!

दुनिया में आज नंबर एक बहस, नंबर एक संकट, नंबर एक धंधे का मुद्दा है कि इंसान के दिमाग पर कैसे कब्जा हो? कब्जे का नंबर एक औजार है फोन, हवा की तंरगों से संचार व आनलाइन इंसानी व्यवहार। इसलिए दुनिया में भारी चिंता है कि गूगल, फेसबुक जैसी कंपनियों का एकाधिकार, मोनोपॉली कैसे खत्म की जाए? ये सरकारों से ज्यादा पॉवरफुल हो गई है। स्थिति ऐसी बन गई है कि यदि कोई व्यक्ति खरीदने का फैसला कर रहा है तो संचार की कंपनियां उस वक्त उसके सामने ऐसा भ्रमजाल बना देगी कि खरीददारी का फैसला व्यक्ति की निज सोच-समझ में नहीं होगा बल्कि उस कंपनी के दिमाग से होगा। भारत में हम लोगों को, हमारे नियंताओं को, हमारी सरकार, अदालतों को पता नहीं है कि संचार, सोशल मीडिया की कंपनियों से कैसे सवा सौ करोड़ लोगों के दिमाग को कंट्रोल करने की मोनोपॉली बनने वाली है। हम अपने आपको बिना जाने गिरवी बना दे रहे है। ध्यान रहे पश्चिम के विकास से अपना उल्लू साधने में अपने कारोबारी पहले से ही अव्वल रहे है। अंबानियों, रिलायंस को हमेशा गम रहा कि उनकी तूती थी फिर भी में अचानक भारत में आईटी कंपनियां ऐसे पनपी कि उनका वैश्विक ढंका बना!  आईटी  में मौका चूकने का गम रहा तो फिर संचार में भी हूंक बनी की वे कैसे चूके? चूके तो अब कैसे नंबर एक बने?  सो फार्मूला सीधे साधे गरीबों को मुफ्त के नाम पर ग्राहक बनाने और फिर उनके ऑनलाईन व्यवहार, उनके दिमाग को कंट्रोल करने का चुना है। 
हां, जियो के छाते में 25-30 करोड़ गरीब ग्राहकों के हाथ में फोन दे कर उसके एकाधिकार से रिलायंस वह करने वाली है जो दुनिया की कोई कंपनी नहीं कर पाई। वह यह करिश्मा कर सकती है कि भारत की भेड़ों को वह चाहे जिस दिशा में मोड़े। जो पश्चिम में चिंता है। जिस पर द इकोनोमिस्ट जैसी पत्रिकाओं और वैश्विक थिंक टैंक या योरोपीय संघ के सच्चे लोकतांत्रिक देश चिंता कर रहे हंै, सोच- विचार कर रहे है वह भारत में मुनाफे के साथ चुपचाप ऐसे हो सकता है जिसमें आपको पता भी नहीं पड़े और ग्राहक, यूजर अपने विवेक, अपनी बुद्दी को भोजपुरी गानों का बंधुआ बना डाले!
यहां भोजपुरी गाने एक प्रतीक, मतलब लिए है। अपनी थीसिस है कि 21 वीं सदी भारत के लिए और खासकर हिंदू समाज, संस्कृति, बुद्वी सबके लिए भयावह संकट बना रही है। भारत में बुद्दवी, विवेक, विरासत खत्म हो रही है और स्मार्टफोन ने जन-जन को (गरीब को खासकर) भोजपुरी गानों का रसिया बना दिया है। आप एंड़्रियोड फोन खोले, यू ट्यूब पर जाए तो देशी कंटेट की जो बाढ़ आएगी उसमें हिंदी या भारतीय भाषाओं का कंटेट सर्च करते-करते जो खुलेगा तो दिमाग घूम जाएगा। इस पर मैं फिर कभी विस्तार से लिखूंगा लेकिन फिलहाल इतना समझ ले कि भारत का आम हिंदूजन (खासकर युवा) आज या तो नरेंद्र मोदी के दिखाएं सपनों में जी रहा है या भोजपुरी गानों और हवस की उस अवस्था में है जिसमें समाज, बौद्धिक विमर्श, समझ-बुद्दी के सभी संस्कार, दरवाजे चुपचाप तार-तार हुए जा रहे है। उसका दिमाग नियंत्रित हुआ पड़ा है। अभी यह प्रारंभिक अवस्था है। इसका वायरस आगे भारत को दुनिया का सर्वाधिक लिजलिजी व बुद्दीहीन आबादी में कनवर्ट करने वाला होगा। 
आपको विश्वास नहीं होता? तो आप गरीब याकि सामान्य गांव-देहात के नौजवान के फोन में उसके व्यवहार को कभी देखे-समझे। उसके सरोकार, उसकी खोज, उसके टेस्ट, टाइमपास के भटकाव से तब आपको समझ आएगा कि समाज और तरूणाई किधर जा रही है। 
भला इस सबका अंबानी, रिलायंस, जियो का क्या लेना-देना होगा? है और बहुत भारी है। ये अपने स्मार्टफोन के साथ कंटेंट की मोनोपॉली भी बनाने वाले है। एक अनुमान है कि टीवी चैनलों- मीडिया की कंपनियों को खरीद कर रिलायंस ने कुल मीडिया के 45 प्रतिशत पर कब्जा कर लिया है। सांस-बहू के किस्से हो या खबर सबमें आगे भारत की तीन-चार कंपनियां होगी जो सवा सौ करोड़ लोगों के मनोरंजन, उनके टाइमपास, खबरों, बुद्धि का रिमोट लिए होगी। कल मुझे एक प्रकाशक ने सूचना दी कि उसका अखबार भी अब दस करोड़ ग्राहकों वाले जियो प्लेटफार्म पर है! उसे यह समझ नहीं आया कि एक स्वतंत्र आवाज बिना समझे गिरवी हो गई है। जियो की मोहताज रहेगी। सोचे यदि जियो 25-30 करोड़ ग्राहक बना कर फिर उन्हंे लगभग मुफ्त की रेट में पांच-दस साल सारे अखबार, सारी चैनल दिखाने की मोनोपॉली बना ले तो उससे भारत की भीड़ पर उसका कैसा कंट्रोल होगा? 
तर्क के नाते ठीक है कि इसमें हर्ज क्या है?  कंपनी को बिजनेश का हक है तो वह चाहे जो करें। पर देश के संर्दभ में सोचना जरूरी है। आखिर कंटेट किंग होता है। मतलब बुद्दी के बिना न देश बनता है न कौम बनती है और न इंसान। गरीब को पटाया जा रहा है, गरीब को उल्लू बनाया जा रहा है तो उसमें समझ बनाम नासमझ, बुद्दी बनाम अंधविश्वास, संस्कृति बनाम अपसंस्कृति, संगीत बनाम देवर-भौजी के भोजपुरी संगीत का भेद सब खत्म होना इसलिए है क्योंकि वह एक सोर्स के, एक परोसे हुए व्यवसायी कंटेट में व्यवहार बनाए होगा। बता दूं कि सास-बहू या भोजपुरी संगीत प्रतीक है इसके साथ जो प्रवृतिया हजारों तरह के एप से अपने यहां जैसे चल रही वह बहुत कुत्सित है। हो सकता मैं गलत हूं पर मै जो देख-समझ रहा हूं और नौजवान अपने आसपास के लड़के-लड़कियों के फोटो देखने के लिए नशे माफिक जैसे समय बरबाद करते है वैसे एप यदि भारत में हिट है और अमेरिका, योरोप में नहीं तो मौटे तौर पर आगे की तस्वीर यह भी बनती है कि गरीब को मुफ्त डाटा, मुफ्त फोन दे और मोनोपॉली वाले कंटेट से उन्हे किधर धकेला जा रहा है।
गरीब पर फोकस है। उससे मोनोपॉली बनानी है और उसके टेस्ट को ( जो स्वभाविक तौर पर अभी कच्चा, अपसंस्कृति वाला होगा) हवा देते हुए कंटेट परोसा जाना है तो अंततः धंधा भले हो जाए, भारत का क्या बनेगा?  
सो नोट करके रखे कि संचार क्रांति के नाम पर जो हो रहा है और अगले 20-25 साल जो होगा वह न केवल हिंदू परिवार, समाज रचना, बुद्दी विकास, वैज्ञानिक समझ सबको चौपट कराने वाला है बल्कि दिमाग को नियंत्रित, कुंठित कर उसे ऐसा बनवा देगा कि कौम न स्वतंत्र चेता होगी और न समर्थ-काबिल। इसलिए कि 20-50 करोड़ गरीब आबादी को उसके स्मार्टफोन से जो ज्ञान-समझ मिलेगी तो उसकी नौजवान पौध किसी भी सूरत में अमेरिका, योरोप, जापानियों जैसी स्वतंत्रचेता और बुद्धिमततापूर्ण नहीं हो सकती। 
सो है राष्ट्रवादियों सोचो, समझो और बूझों की मोनोपोली, बुद्धिहीनता अंततः कौम को गुलाम बनवाती है।
नहीं समझे? यही तो हम हिंदुओं का सनातनी संकट है!

यह तो अच्छा, मंडल खत्म!

एक-एक कर सबको कमंडल ने निगल लिया! हां, नीतीश कुमार मंडल राजनीति का आखिरी चेहरा थे जो सियासी संभावना लिए हुए थे। डा लोहिया और वीपीसिंह ने पिछड़ी जातियों का हल्ला कर भारत की राजनीति में जात का जो फार्मूला चलवाया था वह इस 27 जुलाई को हमेशा के लिए कब्र में दफन हो गया है। मेरी इस थीसिस में आप कई किंतु, परंतु बता सकते हैं। यह भी कह सकते है कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह भी वोट के लिए जातियों का हिसाब रखते हंै। उस नाते मेरा यह भी मानना है कि कि नरेंद्र मोदी ने नेहरू और इंदिरा की गरीब राजनीति, सत्ता एकाधिकार, तंत्र की मनमानी बनवाने आदि के फार्मूलों की नकल के साथ वीपीसिंह के जात फ्रेमवर्क को भी अपना रखा है। लेकिन इसके साथ यह बात भी गांठ बांध ले कि ये पहलू कमंडल के अब हिस्से है। पासवान हो मांझी हो, कुशवाह हो या मौर्य या नीतीश या राजभर नेता सभी का स्वतंत्र अस्तित्व खत्म है। जातियां कमंडल में समाहित है। ये इस कमंडल से वापिस जिन्न बन कर बाहर निकले यह आगे संभव नहीं है!
बहुत बड़ी बात कह दे रहा हूं। उस नाते नरेंद्र मोदी, अमित शाह के अपन कायल है। दोनों वोट के लिए भले जात का हिसाब लगाए रहे मगर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बनेगें। पटेलों के ऊपर एक-दो प्रतिशत आबादी के जैन प्रतिनिधी रूपानी मुख्यमंत्री है तो जाट दबंगी वाले हरियाणा में पंजाबी मुख्यमंत्री या महाराष्ट्र में ब्राह्यण मुख्यमंत्री बना हुआ है। मामूली बात नहीं है कि मायावाती, उिदतराज, पासवान, मराठा क्षत्रप शरद पवार, लालू यादव, नीतीश कुमार सब खत्म हो गए है। समझ ले कि इनका होना, न होना अब बेमतलब है। और यह भी नोट कर लें कि ओबीसी- हिंदी- उपराष्ट्रीयता के जुमलों पर कर्नाटक में सिद्वारमैया या देवगौडा चुनाव जीतने की अभी जो उड़ान भर रहे है वह बुरी तरह फुस्स होगी। अगले साल कर्नाटक में ओबीसी, जात राजनीति की हार मंडल राजनीति के ताबूत पर आखिरी कील का ठुकना होगा। 
निश्चित ही मेरी इस बात से वे नेता, पत्रकार असहमत होंगे जो मंडल राजनीति के दौर में पक्के-बड़े  हुए  है। वे जाति के वोटों की गणित में ही सोचेगें। पासवान, नीतीश, मांझी, कुशवाह, लालू के चेहरों के वोटों पर हिसाब लगाएंगे और फिर फेल होंगे। इसलिए कि  अगले एक-दो दशक तो न कमंडल गायब होना है और न वक्त पीछे लौटना है। पूरे देश में अब दिल्ली की राजनीति को देखने का लोगों का चश्मा बदल गया है। दूसरे अगले दस-पंद्रह साल नौजवान आबादी जात से और दूरी बना चुकी होंगी। 
यह स्थिति अंततः कांग्रेस के लिए भी फायदेमंद होनी है। कांग्रेस को मंडल, जात राजनीति ने ही बरबाद किया था। कांग्रेस आजादी के वक्त हिंदू पार्टी थी न कि समाजवादी या जात पार्टी। इसलिए राहुल गांधी ने यदि समझदारी दिखाई (क्या दिखा सकते है? और क्या मुस्लिम-जात राजनीति में बंधे कांग्रेसी नेता ऐसा होने देंगे?) और वे राजनीति में टिके रहे तो अपने आप उनका विकल्प बनेगा। आने वाले सालों में लालू, मायावती आदि कांग्रेस को डिक्टेट नहीं कर सकेंगे। सभी विरोधियों, मोदी सरकार से नाखुश लोगों को कांग्रेस के छाते में ही शरण लेनी होगी। 
जो हो, बुनियादी मुद्दा है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने यूपी-बिहार में 2014 के नतीजों को 2019 रीपिट करवाने का बंदोबस्त कर लिया है। बिहार में भाजपा-एनडीए को तब 31 सीटे मिली थी। सो 2019 में जब लोकसभा चुनाव होंगा तो नीतीश कुमार और उनके जनता दलयू  को भाजपा अधिक से अधिक  तब विपक्ष की जीती 7-8 सीटे देगी। ये सीटे ओबीसी-मुस्लिम बहुल है। वहां लालू-कांग्रेस की पार्टी उन्हे शायद ही जीतने दे। सो नीतीश के 2-3 सांसद भी चुने जाए तो बडी बात होगी। फिर विधानसभा चुनाव में भाजपा महाराष्ट्र वाला फार्मूला चलाएगी। मतलब भाजपा ऐसी नौबत ला देगी कि खुद अकेले लड़ेगी और जैसे शिवसेना से कहा था कि अकेले लड़ो चुनाव बाद देखेंगे वही नीतीश कुमार के साथ होगा। सो बिहार में अगला मुख्यमंत्री अनिवार्यतः पूर्ण बहुमत से कमंडल से निकला चेहरा होगा। भले वह ओबीसी प्रेमकुमार जैसा हो या हिंदू तेंवर वाले गिरिराजसिंह का!

तो सबसे ज्यादा होगी मुस्लिम आबादी

पिछले काफी समय से ईसाई मां की संतानों की संख्या अन्य धर्मों की तुलना में ज्यादा रहती आई हैं। पियू रिसर्च सेंटर की माने तो 2035 तक मुस्लिम मां की संताने इस होड़ में सबसे आगे होगीं। सेंटर का आकलन है कि नबंर की दौड़ में कोई भी आगे रहे। ईसाई और मुस्लिम संताने संख्या के लिहाज से भविष्य में दुनिया के कुल शिशुओं में करीब तीन-चौथाई हो जाएगी। सन् 2010 से 2015 के बीच दुनिया में जितने शिशुओं का जन्म हुआ उनमें से 66 फीसद की मां ईसाई या मुसलिम थी। 2055 से 2060 के बीच यह आंकड़ा 71 फीसद का रहेगा। सेंटर का आकलन है कि 2015 से ईसाई व मुस्लिम मां ज्यादा संतानों को जन्म दे रही हैं।
2060 तक दोनों के बीच करीब साठ लाख का फर्क आ जाएगा। 22 करोड़ 60 लाख ईसाई शिशुओं की संख्या की तुलना में तब मुस्लिम शिशुओं की संख्या 23 करोड़ बीस लाख हो जाएगी। सेंटर की रिपोर्ट बतानी हैं कि अन्य धर्मों की संतानों की संख्या 2015 से 2060 की बीच तेजी से गिरेगी। ज्यादा गिरावट हिंदुओं में आएगी। 2010 से 2015 की तुलना में 2055 से 2060 की बीच हिंदू संतानों की संख्या तीन करोड़ तीस लाख कम हो जाएगी। दुनिया में बढ़ती आबादी पर चिंतन और विमर्श का नजरिया बदल रहा है। अब इस आधार पर आकलन हो रहा है कि आने वाले सालों में किस धर्म को मानने वालों की संख्या ज्यादा होगी। भारत में जब भी बढ़ती आबादी में धार्मिक अनुपात असंतुलित होने की बात कही जाती है तो उसे सांप्रदायिक विद्धेष फैलाने का प्रयास करार दे दिया जाता है।
बहरहाल 2015 के तीन महीने में धार्मिक पहचान के आधार पर दो रिपोर्ट सामने आई है। 2011 में हुई जनगणना के जिन आंकड़ों को धार्मिक आधार पर अलग-अलग किया गया है, उसके मुताबिक 2001 की तुलना में 2011 में मुस्लिम आबादी 24 फीसद बढ़ी और कुल जनसंख्या में उसका हिस्सा 13.4 फीसद हो गया। दशक के आधार पर विश्लेषण करें तो 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम आबादी बढ़ने की रफ्तार 1991 से 2001 के दशक के 29 फीसद से कम जरूर रही। फिर भी 2001 से 2011 के बीच अन्यों की आबादी 18 फीसद की दर से ही बढ़ी। उधर अमेरिका के एक शोध संस्थान का आकलन है कि 2050 तक दुनिया भर में आबादी बढ़ने की सबसे तेज रफ्तार मुसलमानों की होगी। शोध में बताया गया था कि 2050 तक भारत हिंदू बहुल देश तो बना रहेगा लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी अगर कहीं होगी तो वह भारत में होगी। अभी इंडोनेशिया सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है। 2050 में भारत उसे पीछे छोड़ सकता है। 
अमेरिकी शोध संस्थान का मानना था कि 35 साल में हिंदू और ईसाई आबादी मुस्लिम आबादी बढ़ने की रफ्तार से कदम ताल नहीं मिला पाएगी। हालांकि अध्ययन में माना गया था कि अगले कम से कम चार दशक तक दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी ईसाइयों की ही रहेगी। लेकिन 2050 में ईसाई और मुस्लिम आबादी इतिहास में पहली बार लगभग बराबरी पर आ जाएंगी। तब 280 करोड़ मुसलमान दुनिया की आबादी का 30 फीसद होंगे और ईसाई 290 करोड़ के साथ 31 फीसद। 2010 में दुनिया में मुस्लिम आबादी 160 करोड़ थी और ईसाई आबादी 217 करोड़। अध्ययन का मानना था 2070 तक इस्लाम को मानने वाले दुनिया में सबसे ज्यादा हो सकते हैं। 
रिपोर्ट के मुताबिक तक हिंदुओं की अभी के करीब सौ करोड़ से बढ़ कर 140 करोड़ ही हो पाएगी और हिस्सा महज 14.9 फीसद होगा। धर्म के आधार पर बढ़ रही आबादी के संदर्भ में पियू रिसर्च सेंटर ने एक और तस्वरी पेश की है। सेंटर का मानना है कि 2010 से 2015 के बीच मुसलिम आबादी दुनिया भर में पंद्रह करोड़ से ज्यादा बढ़ी। 2015 से 2060 के बीच मुसलिम आबादी 70 फीसद बढ़ने का अनुमान है। 2070 तक इस्लाम को मानने वाले दुनिया में सबसे ज्यादा हो जाएगें। धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को लेकर भारत में हमेशा वैचारिक बहस चलती रही है। राजनीति चमकाने का भी यह सबसे आसान जरिया है। लेकिन धर्म को लेकर सबसे ज्यादा आस्था अगर दुनिया में कहीं है तो भारत में। यह इतनी विस्तृत है कि आबादी के अनुपात में स्कूल, कालेज या अस्पताल ही नहीं शौचालय तक भले ही कम हो लेकिन पूजा स्थलों की भरमार है।
देश में हर एक हजार परिवारों के लिए औसतन 12.1 पूजा स्थल हैं। केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में तो यह औसत 40.4 है। उसकी तुलना में चंडीगढ़ में हर एक हजार परिवारों के लिए 1.9 पूजा स्थल हैं। राष्ट्रीय औसत से नीचे तो गिने चुने राज्य  केंद्र शासित प्रदेश ही हैं। राजधानी दिल्ली में यह औसत 2.5 है। दादरा और नगर हवेली में 5.6, हरियाणा में 6.9, पुडुचेरी में 7.6, नगालैंड में 8.1 और बिहार में 8.80 पूजा स्थल ही एक हजार परिवारों के लिए हैं। इस अध्ययन का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जिन राज्यों की धर्मनगरी के रूप में ख्याति है वहां आबादी की तुलना में पूजा स्थल कम हैं। उत्तराखंड को देवभूमि माना जाता है। वहां हर एक हजार परिवारों के लिए 16.4 पूजा स्थल हैं जबकि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश् में यह औसत 25.8 का है। उत्तर प्रदेश में तो यह राष्ट्रीय औसत से भी कम 10.7 का है। मध्य प्रदेश का औसत 11.3, झारखंड का 10.3 और महाराष्ट्र का 11.5 है। 
कुछ दक्षिणी राज्य धर्म के प्रति आस्था के मामले में काफी आगे माने जाते हैं। वहां विभिन्न धर्मों की प्रतीक प्राचीन व भव्य इमारतें तो हैं लेकिन गली गली में पूजा स्थलों का बिखराव नहीं है। आंध्र प्रदेश में एक हजार परिवारों के लिए 9.1 और आंध्र प्रदेश में 9.2 पूजा स्थल पर्याप्त मान लिए गए हैं। कर्नाटक में यह औसत आश्चर्यजनक रूप से 16.5 का है। सबसे ज्यादा शिक्षित व प्रगतिशील और कम्युनिस्ट विचारधारा से ज्यादा प्रभावित केरल में एक हजार परिवारों को अपने धार्मिक अनुष्ठान निपटाने के लिए 13.5 पूजा स्थल उपलब्ध है। राज्य में सरकार किसी भी विचारधारा की रही हो, धर्म के प्रति लोगों की आस्था खुरच नहीं पाती। पश्चिम बंगाल में बरसों वामपंथी शासन रहा लेकिन वहां के पूजा स्थलों का औसत 12.7 रहा। अध्ययन में धर्म के आधार पर पूजा स्थलों की संख्या का खुलासा नहीं किया गया है लेकिन मंदिर-मस्जिद की संख्या में आम तौर पर ज्यादा फर्क नहीं दिखता। जिन राज्यों में अल्पसंख्यक आबादी की बहुलता है वहां के पूजा स्थलों में किस धर्म को मानने वालों की प्रधानता है, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
असम में एक हजार परिवार पर 25, जम्मू कश्मीर में 23.3, मिजोरम में 17.4, गोवा में 17.5, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 15.9, अरुणाचल प्रदेश में 12.9, मेघालय में 12.8, त्रिपुरा में 12.2 पूजा स्थल हैं जो राष्ट्रीय औसतम से ज्यादा है। लेकिन समानुपातिक नहीं है। हिंदीभाषी राज्यों में राजस्थान (17.7) का औसतम चौंकाने वाला है। गुजरात में यह 14.9 और ओडिशा में 13.9 है। दुनिया के किसी अन्य देश की तुलना में भारत में पूजा स्थलों की बहुतायत की वजह देश की सांस्कृतिक विविधता है। यह विविधता एकता का सबसे बड़ा आधार हो सकती है, लोगों की जीवन शैली और सोच को उदारवादी बना सकती है। 
हर धर्म सामंजस्यता और भाईचारे की सीख देता है और उन्हें बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन धर्म में इतनी गहरी और व्यापक आस्था होने के बावजूद मानवीय मोर्चे पर भारतीय म्यांमार, भूटान, थाइलैंड और मलेशिया तक के लोगों से काफी पीछे है। छह साल में पहली बार उन देशों की रैकिंग जारी की गई है जहां के लोग दान देने, दूसरों की मदद करने और परमार्थ में समय देने में विशेष रुचि रखते हैं। रिपोर्ट का निचोड़ है कि 80 फीसद भारतीय सामाजिक कल्याण के कामों के लिए दान नहीं देते। ऐसे कामों के लिए समय देने में भी 83 फीसद भारतीय कोताही बरतते हैं।

भाई हो तो रामविलास पासवान जैसा!

भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान जैसा भाई बहुत दुर्लभ है। उनका दिल हमेशा अपने भाइयों के लिए धड़कता है। वे हर बार कोशिश करते हैं कि उनके साथ साथ उनका एक भाई सांसद रहे और दूसरा विधायक रहे। लेकिन पिछले चुनाव में उनको बड़ा झटका लगा था। उन्होंने भाजपा से तालमेल करके अपने साथ साथ अपने भाई रामचंद्र पासवान और बेटे चिराग पासवान को तो सांसद बना लिया था। लेकिन दूसरे भाई पशुपति कुमार पारस, जिनको बिहार में उप मुख्यमंत्री का दावेदार माना जा रहा था, वे अलौली की अपनी पारंपरिक सीट से हार गए थे।
तब से रामविलास पासवान उनको लेकर चिंतित थे। कई जानकारों का कहना है कि वे अपने भाई की चिंता में ही बार बार नीतीश कुमार को एनडीए में आने का न्योता देते थे। यह हकीकत है कि नीतीश को एनडीए में लाने के लिए सबसे ज्यादा चिंतित पासवान ही थे। और जैसे ही नीतीश ने महागठबंधन छोड़ कर भाजपा का दामन थामा, पासवान सक्रिय हो गए और अपने भाई पशुपति पारस को सरकार में शामिल करा दिया।
पारस इस समय विधायक नहीं हैं। सो, जाहिर है कि मंत्री बनाए जाने के उनको विधायक भी बनाया जाएगा। विधान परिषद की एक सीट उनको मिलेगी। इस तरह पासवान ने भाई को विधायक भी बना दिया और मंत्री भी बना दिया। असल में मौजूदा स्थिति में पासवान को अपनी स्थिति का अंदाजा है। भाजपा ने बिहार की दलित बेटी मीरा कुमार का विरोध करके दलितों के एक वोट समूह को नाराज किया है। ऐसे में भाजपा को पासवान के चेहरे की जरूरत है। सो, उन्होंने अपना काम कर लिया। लालू प्रसाद के ऊपर परिवारवाद का आरोप लगाने वाले भाजपा के नेता भी इस पर चुप हैं। सिर्फ दूसरे सहयोगी जीतन राम मांझी ने इसका विरोध किया।

डिजिटल साक्षरता की राह में रुकावटें

बात जब ई-लर्निंग की आती है, तो संसाधन और बुनियादी ढांचे की कमी के कारण गांव साफ तौर पर शहरों से पिछड़ते नजर आ रहे हैं। सरकार ने देश के हर हिस्से में ई-लर्निंग को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं तैयार की हैं। लेकिन बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना इस अंतर को पाटना मुश्किल है। स्मार्टफोन के बढ़ते चलन की वजह से गावों और शहरों के बीच डिजिटल खाई कम हुई है। शहर ही नहीं, बल्कि गांवों में भी अब मोबाइल और स्मार्टफोन फोन पहुंच गए और इंटरनेट का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। इसलिए कंप्यूटर और इंटरनेट से अब गांव देहात के लोग शायद उतने अनजान नहीं है, जितने कुछ साल पहले हुआ करते थे। जानकारों के मुताबिक गांवों में भी आज बच्चे फेसबुक और व्हाट्सएप के बारे में बात करते हैं। बच्चे उनसे फेसबुक और गूगल के बारे में बाते करते रहते हैं। जानकारों के मुताबिक सरकारी स्कूलों में बहुत कम काम हो रहा है। सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर लैब तो बना रही है, लेकिन कई जगहों पर बिजली ही नहीं आती तो फिर कंप्यूटर कैसे चलेंगे। कंप्यूटर को जैसी सर्विस की जरूरत होती है, वह नहीं हो पाती है। ऐसे में, साल भर के भीतर कंप्यूटर खराब होने लगते हैं। उनके मुताबिक 25 से 30 हजार का लैपटॉप या कंप्यूटर खरीदना गांव वालों के बस में नहीं होता। लेकिन साढ़े तीन या चार हजार रुपये का टैबलेट वे आसानी से खरीद सकते हैं।
 ई-लर्निंग के तहत ऐसी डिजिटल ऑडियो और वीडियो सामग्री तैयार की जा रही है, जिससे पढ़ाना और पढ़ाना दोनों सहज और मजेदार बने। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का अऩुभव है कि डिजिटल सामग्री से चीजें आसान हो गई हैं। सिलेबस की जितनी भी किताबें हैं, वह एक सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन में आ गयी हैं। स्मार्टक्लास का चलन बढ़ रहा है। किताब पीडीएफ की शक्ल में प्रोजेक्टर पर दिखती हैं। साथ में वीडियो होते हैं। आकृतियां होती हैं। छात्रों के लिए भी इस तरह पढ़ना एक मजेदार अनुभव होता है। अब उन्हें चीजें ज्यादा रटनी नहीं पड़ती हैं।
राष्ट्रीय डिजिटल सारक्षरता मिशन के तहत हर घर से एक बच्चे को डिजिटल साक्षर बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। इसके तहत नेट कैफे होंगे, जहां पर 10-12 कंप्यूटर लगे होंगे। वहां इंटनेट होगा और लोगों को वहां आकर ट्रेनिंग लेनी होगी। लेकिन ग्रामीण इलाकों में नेट कैफे हैं ही नहीं। लेकिन ऐसे मॉडल महंगे हैं। आलोचकों का कहना है कि हमें सस्ते मॉडल्स के बारे में सोचना चाहिए जिन्हें गांवोंत में लागू किया जा सके।
 बहरहाल, ई-लर्निंग को बढ़ावा देना सरकार की प्राथमकिताओं में शामिल है। कई बड़ी कंपनियां इस क्षेत्र में आगे आ रही हैं। कक्षाओं को डिजिटल सामग्री से लैस किया रहा हैं। स्किल डेवेलपमेंट मंत्रालय ने इस दिशा में बहुत ऊंचे लक्ष्य तय किए हैं और उन्हें हासिल करने के लिए कई सारी प्राइवेट कंपनियों के साथ मिल कर काम हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में ई-लर्निंग तीन अरब डॉलर के उद्योग का रूप ले चुका है और इस दायरा लगातार बढ़ रहा है।

रविवार, 30 जुलाई 2017

लोकतंत्र को ध्वस्त करने में कांग्रेस की भी बाप निकली भाजपा

अनैतिकता और लोकतंत्र का उपहास उड़ाने का कार्य पिछले 60 साल से कांग्रेस करती आई, भाजपा उसकी भी बाप निकली । उसने नैतिकता के तमाम मूल्यों को धता बताते हुए उस नीतीश कुमार का साथ दिया है जिन्होंने भाजपा को नाग से भी जहरीली पार्टी का प्रमाणपत्र दिया था ।
दरअसल पिछले काफी दिनों से लालू से छुटकारा पाने के लिए गहरी साजिश रची जा रही थी । अब तो यह भी साफ होगया है कि लालू परिवार पर मारे गए छापे राजनैतिक षड्यंत्र के अलावा कुछ नही था । कल तक जो सुशील मोदी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर तीखे हमले कर रहे थे, आज वही मोदी सत्ता की कुर्सी हासिल करने के लिए नीतीश कुमार की गोद मे जा बैठे । नैतिकता तो तब होती, जब सुशील मोदी कुर्सी पर बैठने के लिए इनकार कर देते । लेकिन कुर्सी के लिए भाजपा जो घटिया और ओछे हथकंडे अपना रही है, उनसे पर्दा उठ चुका है और मि. क्लीन नीतीश कुमार का कालिख पुता चेहरा भी जनता के सामने आ चुका है । वह दिन दूर नही जब शरद यादव केंद्र में प्रभावशाली मंत्री होंगे ।
भाजपा अगर कांग्रेस के अच्छे कार्यो का अनुशरण करती तो यह देश और खुद के लिए भी बेहतर होता । लेकिन सत्ता की भूख ने भाजपा की मानसिक स्थिति का बेड़ा गर्क कर दिया है । विकास के बजाय भाजपा केवल अपने विस्तार के लिए लोकतंत्र की सभी मर्यादा को ध्वस्त करती आ रही है । भाजपा को यह नही भूलना चाहिए कि अपने कुकर्मो के कारण देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस आज हाशिये पर है । अगर भाजपा इसी रास्ते पर चलती रही तो उसे भी रोने के लिए मजदूर नहीं मिलेंगे । जो भक्त आज अंधे होकर भाजपा का गुणगान कर रहे है, कल वे सफेद कुर्ता और पायजामा पहने कांग्रेस की जय जयकार करते दिखाई देंगे । अहंकार तो रावण का भी चकनाचूर होगया था । फिर भाजपा किस खेत की मूली है ?

बुधवार, 26 जुलाई 2017

भीड़ पर धंधा और बेसुध भेड़े!

भारत में धंधे की सफलता के तीन मंत्र धंधेबाज पर माईबाप सरकार की कृपा हो। उसे भीड़ को उल्लू बनाने की कला आती हो और एकाधिकार, मोनोपॉली का वह दुस्साहस रखता हो। ये तीन बातें यदि है तो खरबपति बनना चुटकियों का काम है। आपको कोई आविष्कार, कैपिटल, क्वालिटी, लीडरशीप आदि की उन बातों की जरूरत नहीं है जिनके बिना अमेरिका में, जापान-जर्मनी में उद्यमशीलता बन ही नहीं सकती। तभी भले हम 21 वीं सदी में हों व डिजिटल युग ही क्यों न हों पर भारत में धंधा मुगलई राज वाला ही है! जियो शब्द का देशज अर्थ यह भाव है कि आप जिंदा रह लो। आप हाथ में कटोरा लिए खड़े हंै और कोई कृपा कर आपको मुफ्त में वह सबकुछ दे रहा है जो आपके बगल का अमीर भोग रहा है। आप भी जियो, मजे मारो! सोंच सकते हैं कि धंधे से क्रांति लिवा लाने के धीरूभाई, मुकेश, अनिल अंबानी ने जो नुस्खे भारत राष्ट्र-राज्य में पिछले 40 सालों में अपनाए हंै वह सचमुच में आजाद भारत के 70 साल के इतिहास का बेजोड़ मामला है। यही हकीकत अपने आप मंे भारत को अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन याकि विकास के सच्चे देशों से एकदम अलग बनवाती है। सोंचने वाली बात है कि धंधे की ऐसी क्रांति उन देशों में क्यों नहीं होती? फोन, स्मार्टफोन, इंटरनेट, डाटा सब ईजाद अमेरिका-यूरोप में हुए। पर वहां कोई धंधे वाला अंबानी की तरह कटोरे में मुफ्त डाटा, मुफ्त फोन देने वाला क्यों नहीं पैदा हुआ?
क्यों? 
इसलिए कि वहा लोग उल्लू नहीं बनते और राष्ट्र-राज्य ऐसे कानून-कायदे बनवाएं हुए होते हंै जिससे न तो ग्राहक-उपभोक्ता को ठगा जा सकता है और न व्यापार में किसी का एकाधिकार बनने दिया जाता है। न ही उपभोक्ता की शिकायत अनसुनी होती है। अमेरिका और यूरोप याकि विकसित देशों में संभव ही नहीं है कि किसी एक खरबपति की धंधे में मोनोपॉली बने या सेवा का वायदा कर ग्राहक को कंपनी सेवा न दे। अमेरिका ने फोन की जनक मूल फोन कंपनी एएंडटी का एकाधिकार उसके टुकड़े-टुकड़े करवा कर खत्म कराया। अभी यूरोपीय संघ ने गूगल कंपनी पर धंधे की एक मामूली गड़बड़ी (जो अपने को मामूली लग सकती है मगर वहां बहुत गंभीर है) पर भारी जुर्माना ठोका। यह सब अपने यहां नहीं है। पश्चिम की नकल कर हमने कानून भले बना लिए हों, उपभोक्ता संरक्षण, उनके हक का बेहिसाब प्रचार भी होता हो मगर सब फिजूल। अंग्रेजों ने दस तरह से भारत को ठगा होगा मगर वे जो व्यवस्था बनवा गए हंै जो क्रोनी पूंजीवाद बनवा गए हैं उसके चलते भारत की सरकारी-गैर सरकारी कंपनियों ने असंख्य गुना अधिक भारतीयों को ठगा,लूटा है। किसी भी मामले में ग्राहक को क्वालिटी सेवा दी ही नहीं है। अपवाद और बिरले ही ऐसे दो-तीन उदाहरण है जिसमें ग्राहक को, भारत के नागरिक को जो कहा गया वह सेवा मिली हो या मिलती हो। 
इसलिए कि नागरिक उर्फ ग्राहक हमारे यहां भीड़ है। वह भीड़ है जिसे धंधेबाज, सेठ प्रदाता इस उपकार भाव चीज बेचता है, सेवा देता है मानो ग्राहक कटोरा लिए खड़ा हो। कटोरे में यह लो फोन, यह डाटा और जियो! भीड़ के लिए यही बहुत है कि हाथ में फोन है, सड़क पर बिजली का खंभा है, सिलैंडर आने लगा है, स्कूल खुल गई है, सड़क बन गई है। यही सब क्योंकि उसका अपने आपमें जियो है इसलिए उसे यह समझ नहीं आता कि कॉल ड्राप हो रही है तो कैसे चूना लग रहा है या बिजली कितने वक्त आती है या गैस कितनी जल्दी चूकती है या स्कूल में मास्टर नहीं या सड़क खड्डों वाली है। 
तभी देशी कंपनियों के लिए भारत की भीड़, भारत का गरीब अपने आपमें धंधे का मंत्र है। कुछ नहीं करों भीड़ को उल्लू बनाओं। भीड़ को उल्लू बनाना भारत में बिजनेश प्लानिंग, मार्केटिग का नंबर एक अचूक नुस्खा है। सचमुच यह विश्लेषण होना चाहिए कि ग्राहक को प्रॉडक्ट और सर्विस देने के वायदे में भारतीय बनाम योरोपीय, ब्रितानी कंपनियों की एप्रोच में कितना और क्यों फर्क होता है? और क्या यही तो वह वजह नहीं है जिससे रिलायंस, एयरटेल में कभी अमेरिका व योरोप के ग्राहकों के बीच जा कर धंधा करने की हिम्मत नहीं हुई?
इसलिए कि वे लोग जियो की मजबूरी, मेहरबानी और उल्लूपने में नहीं जीते। वे गुणवत्ता, अधिकार, पारदर्शिता और जवाबदेही की जिंदगी में जीते हुए समझ रखते है कि क्या सच है और क्या गलत? वहा का सिस्टम उल्लू बनने-बनाने के धंधे पर चौकस होता है। यह संभव नहीं कि आप सेवा 4 जी की दे रहे हैं और इंटरनेट कनेक्शन 16 केबी का अनुभव कराएं। या मोबाइल की दस काल में से पांच-छह ड्राप हो या कई जीबी डाटा का वादा हो और वह डाटा ट्रांसफर की जगह आपके वक्त की फिजूल बरबादी कराएं।
आप भी सोचें, आप भी अनुभव करें कि पिछले बीस सालों में हम लोगों ने क्या अनुभव किया? नाम है संचार क्रांति? और यह कथित क्रांति इस बात का सबूत है कि इसी में भीड़ सर्वाधिक उल्लू, मूर्ख बनी। इंटरनेट और मोबाइल सेवा में जितने-जैसे वायदों-भरोसा से सेवा बेची गई उसका आधा-अधूरा भी ग्राहक को अनुभव नहीं हुआ। भारत के हर नागरिक ने हर दिन यह अनुभव किया कि वह फोन कर रहा है और कॉल ड्राप हो रही है। एक बात दो-तीन बार कॉल के बिना पूरी नहीं होती। विदेश में ऐसा अनुभव नहीं होता। विदेशी दोस्त ऐसी जानकारी नहीं देते। जैसे वहां बिजली कभी नहीं जा सकती तो कॉल ड्रॉप भी नहीं होती। हां, जान ले जापान, ब्रिटेन, अमेरिका में ऐसा होना दुर्लभ और बिरला है। 
इसलिए कि वहा सरकार, खरबपति, कंपनियां, सेठ वैसे नहीं है जैसे अपने हैं। सबसे बड़ी बात वहां लोग अधिकार संपन्न समझदार नागरिक है। ठीक विपरित हम सर्तक नागरिक नहीं बल्कि उस भीड़ का पर्याय है जिसका जी लेना ही याकि जियो में सांस लेना ही अपने आपमें बहुत है। अब ऐसा है तो क्यों न अंबानी अपनी मोनोपॉली बनाएं। जिस धंधे में ग्राहक फोन रख कर ही खुश है, कनेक्शन की बात से ही मस्त-मस्त है तो उसमें क्यों न मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी जियो से वैसा बम-बम बिजनेश बनाए जैसा पंद्रह साल पहले उन्होने अपने भाई अनिल अंबानी के साथ  रिलायंस कम्युनिकेशन का बनवाया था। सीडीएम की सस्ती तकनीक से तब अनाधिकृत झुग्गीझोपडि़यों जैसे जबरदस्ती के फैलाव का धंधा बना कर लाइसेंसशुदा जीएसएम की मोबाइल कंपनियों के यहां से भीड़ गायब करवाई वैसे ही अब भी होगा। मुकेश अंबानी ने भीड़ के कटोरों में पहले डाटा डाला, अब फ्री फोन डालेंगे और क्रांति कर दिखाएंगे। यह क्रांति उल्लू बनाने वाली होगी तो मोनोपॉली वाली भी! 

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

कांग्रेस ने वेंकैया पर लगाए आरोप!

नई दिल्ली। राष्ट्रपति चुनाव के गरिमामय अभियान के बाद ऐसा लग रहा है कि विपक्ष उप राष्ट्रपति चुनाव में ऐसी किसी मर्यादा का पालन करने के मूड में नहीं है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सोमवार को सत्ता पक्ष के उप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार वेंकैया नायडू पर तीखा हमला बोला और उनके व उनके परिवार के लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। कांग्रेस ने उनसे और उनके परिजनों से जुड़े जमीन से संबंधित कथित गड़बड़ियों के मामले में जवाब मांगे हैं।
कांग्रेस पार्टी ने कहा कि जवाबदेही, पारदर्शिता और शुचिता का दावा करने वाले नायडू को इन मामलों में जवाब देना चाहिए। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सोमवार को संवाददाताओं से कहा कि भाजपा के वरिष्ठ नेता नायडू अक्सर समाचार पत्रों में आलेख लिख कर और अपने बयानों में जवाबदेही, पारदर्शिता और शुचिता व भ्रष्टाचार को बिल्कुल भी बरदाश्त नहीं करने का दावा करते हैं। उन्हें इन्हीं मापदंडों के अनुरूप कांग्रेस के चार सवालों का जवाब देना चाहिए।
रमेश ने संवाददाताओं के सामने नायडू से पहला सवाल किया, क्या यह सच नहीं है कि 20 जून 2017 को तेलंगाना सरकार ने एक आदेश जारी कर स्वर्ण भारत ट्रस्ट को हैदराबाद महानगर विकास प्राधिकरण के विभिन्न बकाया के भुगतान से छूट दी थी और यह छूट दो करोड़ रुपए से अधिक है? उन्होंने कहा- ऐसी छूट पहले कभी नहीं दी गई और यह छूट इसलिए दी गई क्योंकि नायडू की बेटी इस संगठन की प्रबंधक न्यासी हैं।
रमेश ने दूसरा सवाल जुलाई 2014 के तेलंगाना सरकार के एक आदेश के बारे में किया, जिसमें पुलिस के लिए 271 करोड़ रुपए के विभिन्न वाहनों की खरीद की जानी थी। यह आदेश दो कंपनियों- वेंकैया नायडू के बेटे की स्वामित्व वाली कंपनी हर्ष ट्योटा और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के बेटे के स्वामित्व वाली कंपनी हिमांशु मोटर्स को दिया गया। उन्होंने कहा कि यह आदेश खुली निविदा के बिना ही दे दिया गया।
रमेश ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने छह अप्रैल 2011 के आदेश में मध्य प्रदेश सरकार की ओर से भोपाल में कुशाभाऊ ठाकरे स्मारक ट्रस्ट को 20 एकड़ जमीन देने के आवंटन आदेश को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि नायडू इस ट्रस्ट के अध्यक्ष थे। कांग्रेस नेता ने यह भी सवाल किया कि भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नायडू पर नेल्लोर जिले में अपने पैतृक गांव में गरीबों के लिए जमीन हथियाने का आरोप लगाया था। उन्होंने सवाल किया कि क्या यह सही नहीं है कि आरोप लगने के बाद नायडू 17 अगस्त 2002 में 4.95 एकड़ जमीन लौटाने के लिए मजबूर हुए थे? रमेश ने कहा कि नायडू को अपने और अपने परिजनों पर लगे इन आरोपों का जवाब देकर स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।

सोमवार, 24 जुलाई 2017

यादव समाज का जन—समरसता एवं प्रतिभा सम्मान समारोह सम्पन्न



जयपुर। न्यू सांगानेर रोड़ स्थित सुमेर पैरेड़ाइज पर अखिल भारतीय यादव महासभा की ओर से आयोजित'जन समरसता एवं प्रतिभा सम्मान समारोह'सम्पन्न हुआ। समारोह का शुभारम्भ महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामानन्द यादव,राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष अशोक यादव व राजस्थान सरकार के मुख्य सचेतक व कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त कालूलाल गुर्जर ने भगवान कृष्ण के सम़क्ष दीप प्रज्ज्वलन करके किया। कार्यक्रम में प्रदेश व प्रदेश से बाहर के विभिन्न जिलों से आये यादव समाज के गणमान्य लोगों ने भाग लिया। कार्यक्रम के दौरान जहाँ मुख्य सचेतक कालूलाल गुर्जर ने अपने सम्बोधन में यादव गुर्जर एकता की बात कही ,वहीं राष्ट्रीय अध्यक्ष रामानन्द यादव ने अहीर रेजीमेन्ट की मांग के समर्थन में अक्टूबर के आसपास आर—पार की लड़ाई की बात कही। रामानन्द यादव ने यादव समाज के विभिन्न घड़ों के एक होने की आवश्यकता पर बल दिया तथा सभी संगठनों को भंग करके यादव समाज की सिर्फ एक महासभा बनाने की वकालत की। राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष डॉ.अशोक यादव ने 'अहीर रेजीमेन्ट' की बजाय देश में जाति के आधार पर सेना में बनी सभी रेजीमेंटों को भंग करने का सुझाव दिया ताकि न सिर्फ जातिवाद के जह़र से सेना को बचाया जा सके वरन् अन्य समाजों को भी इस तरह की मांग के लिए आंदोलन करने से रोका जा सके। डॉ.अशोक यादव ने भी अनेक संगठनों की बजाय यादवों की सिर्फ एक महासभा बनाने की मांग की। अशोक यादव ने कहा कि यादवों के सभी संगठनों के पदाधिकारियों को अपने अपने पदों से स्तीफा दे देना चाहिए तथा सभी संगठनों को मिलाकर उन्हें एक विशाल व शक्तिशाली महासभा के रूप में पुनर्गठित किया जाना चाहिए। डॉ.अशोक यादव ने पहल करते हुए यादवों के एकीकरण् के लिए वे स्वयं सबसे पहले स्तीफा देने को तैयार हैं। कार्यक्रम के दौरान यादव समाज की दो दर्जन से अधिक प्रतिभाओं का सम्मान किया गया। 
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देश में भाजपा शासित राज्यों में अपराध ज्यादा है

बिहार प्रदेश जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद ने कहा है कि यह गहन
जांच, शोध और व्यापक विश्लेषण का विषय है कि भाजपा शासित राज्यों में अपराध ज्यादा
व अपराधी बेलगाम क्यों हैं। अपराध शास्त्र, समाज शास्त्र और राजनीति शास्त्र के विद्वानों
को अपराध व इस पार्टी के कनेक्शन को तलाशना चाहिए, ताकि देश और समाज का भला
हो सके। देश में कहीं की भी भाजपा सरकार हो, उसकी एक बड़ी पहचान अपराध की
अनदेखी व अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई करने में अरुचि है। केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा
संचालित कानून-व्यवस्था वाली दिल्ली आज अपराधों की भी राजधानी बनी हुई है। अलग-
अलग संज्ञेय व जघन्य अपराधों में भी बीजेपी शासित राज्य उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,
महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड, गुजरात ही शीर्ष पर हैं। योगी आदित्यनाथ का उत्तर
प्रदेश इन दिनों बेलगाम अपराधियों के कारण सुर्खियों में है।
राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी की
सरकार बनने के बाद अपराध बेतहाशा बढ़ गए हैं। खुद योगी सरकार में संसदीय कार्य मंत्री
सुरेश खन्ना ने पिछले दिनों विधानसभा में माना कि सरकार के गठन से लेकर 9 मई तक
राज्य में 729 हत्याएं, 803 बलात्कार, 60 डकैती, 799 लूट व 2682 अपहरण की घटनाएं हुई हैं।
यानी, यूपी में प्रतिदिन 13.3 हत्या, 14.6 बलात्कार, 14.5 लूट, 48.8 अपहरण व 1.1 डकैती हो
रही है। भाजपा के पुराने नेता रहे यूपी के राज्यपाल राम नाईक ने भी शनिवार को पत्रकारों
से कहा है कि वहां कानून-व्यवस्था ठीक नहीं है। खूब प्रचार, झूठे वायदे व साम्प्रदायिक
गोलबंदी करके सत्ता हासिल कर लेने वाली भाजपा बाद में आम जनता के विरुद्ध व
अपराधियों के पक्ष में हो जाती है। यूपी भी उसी का उदाहरण है।

रविवार, 23 जुलाई 2017

संत कहलाने का क्या फायदा?

बचपन से पढ़ता आ रहा था कि सिंह झुण्ड में नहीं चलते और संतों की जमात नहीं होती.. लेकिन अब तो जमात में साधु संत नेताओं से आ कर मिलने लगे हैं जिन्हें ईश्वर की भक्ति में डूबे हुए होना चाहिए वे राजनीति में तैरने लगे हैं. इसमें दोष नेताओं का नहीं है जो अपनी सत्ता के लिए समाज को किसी भी दिशा में ले जा सकते हैं.. यहाँ श्रीमद भगवत गीता के २रे अध्याय के ४६ वे श्लोक की विसंगतियां उजागर होती है जो साधु संतों के लिए कहा गया है "" हे अर्जुन जैसे बड़े जलाशय के प्राप्त होने पर जल के लिए छोटे जलाशयों की जरूरत नहीं होती वैसे ही ब्रम्हानंद की प्राप्ति होने पर आनंद के लिए वेदो की आबश्यकता नहीं होती..'' . तो ये साधु संत ;यदि परमात्मा को जानते हैं तो नेताओं से क्या सीखते है. ? यदि नेताओं से सीखते हैं तो साधु संत कहलाने का क्या फायदा?

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

तीनों टॉप पदों पर पहली बार भाजपा!

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारत के तीन शीर्ष संवैधानिक पदों पर उनके लोग आसीन होंगे। राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तीनों भाजपा के हैं और संघ की पृष्ठभूमि के होंगे। आजाद भारत के इतिहास में यह भी संभवतः पहली बार हो रहा है कि राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और प्रधानंमत्री कांग्रेस का या उसके समर्थन का नहीं है। इससे पहले या तो तीनों पद कांग्रेस के पास होते थे या किसी न किसी पद पर उसकी पसंद का व्यक्ति होता था। 
अटल बिहारी वाजपेयी छह साल प्रधानमंत्री रहे, लेकिन उस दौरान भी राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति पद पर कांग्रेस समर्थित व्यक्ति ही रहा। अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन की मजबूरी के कारण आरएसएस के किसी स्वंयसेवक को राष्ट्रपति नहीं बना सके थे। उनको मुलायम सिंह की पसंद के एपीजे अब्दुल कलाम को चुनना पड़ा था और कांग्रेस ने भी उनको समर्थन दिया था। उस समय प्रधानमंत्री वाजपेयी और उप राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत तो संघ की पृष्ठभूमि के थे, लेकिन राष्ट्रपति नहीं थे। 
उससे पहले वाजपेयी सरकार के चार साल के कार्यकाल में उप राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति दोनों कांग्रेस की मदद से चुने गए थे। 1997 से 2002 तक राष्ट्रपति केआर नारायणन थे और उप राष्ट्रपति कृष्णकांत। तभी इस बार जब भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आई और एक के बाद एक राज्यों में उसने जीत हासिल की तो यह तय हो गया था कि वह देश के पहले और दूसरे नागरिक को चुनने में कोई समझौता नहीं करने वाली है। 
कई जानकार मान रहे थे कि प्रधानमंत्री मोदी किसी अराजनीतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति बना सकते हैं। लेकिन ऐसा कभी सोचा भी नहीं गया। सो, अब तीनों शीर्ष पदों पर संघ के स्वंयसेवक हैं और कांग्रेस के हाथ में कुछ नहीं है। इस बार खास यह है कि लोकसभा स्पीकर का पद भी भाजपा के पास है। वाजपेयी के राज में यह पद टीडीपी और शिवसेना के सांसदों के हाथ में रहा। वेंकैया नायडू के उप राष्ट्रपति चुने जाने के बाद दोनों सदनों की कमान भाजपा के हाथ में होगी। कुछ राज्यों में राज्यपाल जरूर अब भी कांग्रेस के नियुक्त किए हुए हैं लेकिन अगले एक साल में वहां भी भाजपा और संघ से जुड़े लोगों की नियुक्ति हो जाएगी। 

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

पत्रकारों के लिए दरवाजे और बंद!

देश के नए राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति को लेकर चौतरफा उत्सुकता और जिज्ञासा है तो पत्रकारों की बिरादरी में चिंता भी है। यह चिंता कई तरह की है। संसद भवन में चर्चा का एक अहम मुद्दा यह भी है कि नए राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति अपने पूर्ववर्तियों के नक्शे कदम पर चलेंगे या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नक्शे कदम पर चलेंगे। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने साथ पत्रकारों को विदेश दौरे पर नहीं ले जाते हैं। उनकी देखादेखी ज्यादातर केंद्रीय मंत्री भी पत्रकारों को साथ नहीं ले जाते हैं। 
प्रधानमंत्री के साथ सिर्फ आकाशवाणी और दूरदर्शन की टीम जाती है और बाकी पत्रकार अपने संस्थान की ओर से भेजे जाते हैं। लेकिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी इस मामले में बहुत उदार रहे हैं। वे अपने साथ पत्रकारों को ले जाते रहे हैं। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनका तौर तरीका नहीं बदला। लेकिन अब इन दोनों शीर्ष पदों पर भाजपा के नेता आ रहे हैं। रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति और वेंकैया नायडू का उप राष्ट्रपति बनना तय हो गया है। ऐसे में पत्रकारों को चिंता इस बात की है कि कहीं ये दोनों भी प्रधानमंत्री की तरह पत्रकारों को साथ ले जाना न बंद कर दें। 
एक दूसरी चिंता राज्यसभा टीवी के पत्रकारों को है। हामिद अंसारी के उप राष्ट्रपति रहते राज्यसभा टीवी का एक सा नजरिया रहा और घटनाओं की कवरेज और वैचारिक स्तर पर भी यह अलग ही रहा। लोकसभा टीवी की तरह राज्यसभा सरकारी टीवी नहीं बना। देश के तमाम सेकुलर और उदार पत्रकारों को किसी न किसी रूप में राज्यसभा टीवी में जगह मिली। लेकिन अब वहां का निजाम बदल रहा है। दस साल बाद हामिद अंसारी की विदाई हो रही है और आठ अगस्त के बाद वेंकैया नायडू कमान संभालेंगे। सो, वहां बड़ा बदलाव तय माना जा रहा है। इसलिए राज्यसभा से जुड़े पत्रकार और के कार्यक्रमों में बतौर गेस्ट जाने वाले विशेषज्ञ सब चिंतित हैं। 
एक पहलू इफ्तार की दावतों का है, जिसकी चर्चा पत्रकारों से लेकर नेता बिरादरी में भी हो रही है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद इफ्तार की दावतों का चलन खत्म कर दिया। लेकिन राष्ट्रपति भवन और उप राष्ट्रपति आवास में यह परंपरा जारी रही थी। भले प्रधानमंत्री और सरकार के मंत्री इन दावतों में नहीं जाते थे। पर अब चर्चा है कि नए राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति इफ्तार दावतों की परंपरा खत्म कर सकते हैं। 

महात्मा गांधी चुनाव यदि लड़ते तो?

महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी को विपक्ष द्वारा उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के साथ ही उनके खिलाफ अभियान शुरू हुआ है। बताया जा रहा है कि उन्होंने कुख्यात आतंकवादी याकूब को फांसी दिए जाने का विरोध किया था। यह सब देख कर मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए लिए मजबूर हो जाना पड़ा कि अगर महात्मा गांधी जीवित होते और यदि उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति बनाने की कोशिश की जाती तो क्या होता? जब उनकी 1948 में हत्या हुई तब तक तो देश का संविधान भी नहीं बना था न ही भारत गणतंत्र बना था। पर वे जीवित रहते, संविधान बनने के बाद चुनाव होते और सोशल मीडिया होता व कांग्रेंस पार्टी महात्मा गांधी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाती तो उस समय उनके बारे में खबरों में क्या चल रहा होता? 
यह कहना गलत होगा कि गांधी की कुछ बनने में रूचि ही नहीं होती क्योंकि वे तो किंगमेकर थे। यह सोचने वाले भूल जाते हैं कि वे लंबे अरसे तक कांग्रेंस के अध्यक्ष रहे थे और जब सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष पद का चुनाव जीते थे तो उन्हें हराने के लिए गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए थे व उनकी इस जिद को देखते हुए ही नेताजी को कांग्रेंस छोड़ कर अपना संघर्ष अपने तरीके से शुरू करने का मन बनाना पड़ा। 
अब तो यह चर्चा भी होने लगी है कि गांधीजी ने भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरू को फांसी के फंदे से बचाने की कोशिश नहीं की थी। तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन के मुताबिक गांधीजी ने उनसे यही कहा था कि कराची का कांग्रेंस अधिवेशन होने तक उनकी सजा टाल दी जाए। उन्होंने कभी भी उनकी फांसी की सजा समाप्त करने की मांग नहीं की थी। 
यह मामला तो कुछ भी नहीं है। महात्मा गांधी को लेकर पिछले कुछ साल से जो कुछ जानिकारियां आ रही हैं उन्हें पढ़ने सुनने के बाद लगता है कि अगर आज की तारीख में वे जिंदा होते व चुनाव लड़ रहे होते तो उनके बारे में सोशल मीडिया ऐसी जानकारियों से भर जाता कि लोग सुरेश राम-सुषमा कांड को भी भूल जाते। 
महात्मा गांधी की आदतों के बारे में जो कुछ कहा जाता है उसकी पुष्टि उनके तथाकथित प्रयोगों में उनके साथी सहयोगी या गिनीपिग रहे लोग करते आए हैं। ब्रह्मचर्य पर गांधीजी ने जितने प्रयोग किए व जितने लोगों पर किए उसकी दुनिया में मिसाल मिलना मुश्किल है। गांधीजी ने 37 साल की उम्र में ब्रह्मचर्य अपना लिया था मगर सैक्स के प्रति अपनी जिज्ञासा को मिटा न पाने के कारण प्रयोग जारी रखे। यह ठीक वैसा ही था जैसा कि शराब पीना छोड़ देने के बाद कोई अपने सामने पैग बना कर रखे और उसे देखता रहे। 
मेरी मोटी बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती है कि जिस चीज को कोई त्याग चुका हो उसके प्रति अपनी अनाशक्ति साबित करने के लिए प्रयोग करने की क्या जरूरत हैं?  पिछले कुछ वर्षों में पहली बार दो तथ्यात्मक ग्रंथ सामने आए हैं जो कि यह साबित करते है कि गांधीजी एक सामान्य सोच वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्हें ब्रह्मचार्य को लेकर इतना पागलपन सवार था कि वे अपने आश्रम में रहने वाली तमाम दंपत्तियों से इसका पालन करने को कहते थे मगर खुद अपनी सहनशक्ति का परीक्षण करने के लिए युवतियों को साथ लेकर सोते थे। 
ऐसा करते समय वे संबंधों को भी भूल जाते थे। उनके भाई की पोती मनु गांधी जब उनके संपर्क में आई तो वह महज 17 साल की थी। उसे बीमार कस्तूरबा की देख रेख के लिए लाया गया था पर बाद में वह उनकी सबसे विश्वासपात्र प्रयोगशाला बन गई। दूसरी महिला आभा थी जो कि काफी युवा थी व उनके भतीजे कनु गांधी की पत्नी थी। गांधीजी चलते समय इन्हीं दो युवतियो के कंधे पर हाथ रखते थे। जब उनकी हत्या हुई तो उस समय ये दोनों युवतियां उनके साथ थी। गोडसे ने तो गोली चलाने के पहले मनु को धक्का मार कर वहां से हटा दिया था। गांधीजी के भतीजे ने उनसे कहा था कि वे उसकी पत्नी की जगह उसे अपने साथ सुलाना शुरू कर दे मगर गांधी ने कहा कि यह प्रयोग तो सिर्फ महिलाओं के साथ किया जा सकता है। 
गांधीजी न केवल युवा व विवाहित महिलाओं के साथ सोते थे बल्कि उनसे मसाज करवाते थे व उनके साथ नहाते भी थे। इन महिलाओं की बहुत लंबी सूची है जिनमें उनके पीए प्यारे लाल नय्यर की बहन व देश की स्वास्थ्य मंत्री व दिल्ली विधानसभा की पहली अध्यक्ष सुशीला नय्यर भी शामिल थी। मनु गांधी की डायरी के मुताबिक गांधीजी ने खुद उससे यह बात स्वीकारी थी कि सुशीला नैयर के साथ वे नहाते थे। उनका कहना था कि ऐसा करते समय वे अपनी आंख बंद रखते थे जिससे कि वे उस समय उनके चेहरे पर आए भावों को नहीं देख सकते थे। 
मनु बेन ने इन तमाम बातों का 2000 पृष्ठो की 10 डायरियों में जिक्र किया है। गुजराती में लिखी इन डायरियों का हिंदी अनुवाद जाने माने गुजराती साहित्यकार रिजवान कादरी ने किया है और ये डायरियां अब राष्ट्रीय अभिलेखागार का हिस्सा बन चुकी है। मनु के अनुसार महात्मा गांधी ने उससे कहा था कि तुम इन डायरियो के बारे में किसी को मत बताना। 
मनु बेन ने अपनी डायरियों में तमाम महिलाओं के नाम का जिक्र किया है। यह दर्शाता है कि आश्रम में रहने वाली तमाम महिलाओं के बीच गांधीजी के करीबी होने को लेकर प्रतिद्वंद्वता चलती थी। कुछ महिलाओं ने उनके साथ इसलिए दूरी बना ली थी क्योंकि गांधीजी की कुछ हरकते उन्हें पसंद नहीं आती थी। मनु बेन ने लिखा कि जब गांधीजी की हत्या हो गई तो उनके बेटे देवदास गांधी उनके पास आए और उनसे अनुरोध किया कि वे अपनी डायरियों के बारे में किसी को कुछ न बताए और न ही इस बारे में कुछ लिखे। 
गांधीजी के मानसिक सैक्स प्रयोग का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब नोआखली में सांप्रदायिक दंगे चल रहे थे तो वहां भी उन्होंने अपना युवतियों के साथ नंगे होकर सोने का प्रयोग जारी रखा। मनु के मुताबिक वह तो महायज्ञ जैसा होता था। उनकी इस हरकत से नाराज होकर उनके दो अनुयायी उन्हें वहां छोड़कर वापस आ गए। सरदार पटेल से लेकर उनकी करीबी किशोरीलाल मशरूवाला तक ने उन्हें इन हरकतो से दूर रहने को कहा था मगर उन्होंने किसी की भी नहीं सुनी। बल्कि वे तो मनु से कहा करते थे कि ये लोग तुम्हारी व मेरी निकटता देखकर जलते हैं। मैं तो तुम्हारी मां की तरह हूं। 
मनु ने खुद भी कहा है कि गांधी उसके यलोम (कृष्ण) थे व वह उनकी मीरा थी। जाने-माने पत्रकार जैड एडम्स ने अपनी पुस्तक गांधी की मन इच्छा में खुलासा किया है कि वे तो दोनों तरह का प्रयोग करते थे। उनके अपने जर्मन आर्किटेक्ट दोस्त हरमन केलने बैक के साथ भी शारीरिक संबंध थे। उसमें लिखे पन्नो में खुद को अपर हाउस व उसे लोअर हाउस लिख कर संबोधित करते थे। वे दोनों दक्षिण अफ्रीका में लंबे अरसे तक साथ रहे थे। न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व संपादक व महात्मा गांधी पर लिखी पुस्तक ‘ग्रेट सोल महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इन इंडिया” के लेखक जोसेफ लेली वैल्डस ने तो ऐसी महिलाओं के बीच की तफसील से जानकारी भी दी। 
प्यारे लाल, मनुबेन को पसंद करते थे व उनसे शादी करना चाहते थे। यह बात सुशीला नैयर ने मनुबेन से कही। मनुबेन ने पूरी बात महात्मा गांधी को बात दी। मनुबेन का कहना था कि प्यारे लाल मेरे सामने कुछ भी नहीं है न ही उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है जिससे मैं प्रभावित हो सकूं। गांधीजी ने उसके इस आकलन से सहमति जताते हुए उसे मानवता के लिए किए जा रहे अपने प्रयोग को जारी रखने को कहा। 
जवाहर लाल नेहरू तक महात्मा गांधी की इन हरकतों से परेशान हो चुके थे। उन्होंने एक बार सरदार पटेल से कहा कि मेरी समझ में यह नहीं आता है कि इस उम्र में भी बापू के दिलो-दिमाग पर सैक्स इतना क्यों छाया रहता है? वे उसे लेकर ही क्यों सोचते रहते हैं। इस आयु में ब्रह्मचार्य परीक्षण करने के लिए युवतियों के साथ ऐसा प्रयोग करना कहां तक उचित है? 

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

नेताओं के अंगने की नचनिया बन गया है मीडिया

पुराने आदर्श सड़ चुके हैं और ऐसे आदर्शवादियों का दिमाग बहुत पहले से ही राजनीतिक पार्टियों और मुनाफाखोरों के पास रेहन पर है, मगर दिखाई पिछले कुछ सालों में बहुत साफ देने लगा है...

देश में हर उस पत्रकार की चर्चा है जो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी की बोली उठा रहा है। जो नहीं उठा रहा है, केवल पत्रकारिता कर रहा है, उसकी कोई चर्चा नहीं है, उनका कोई नामलेवा नहीं है, वह ट्रेंड नहीं करता, वह ट्रोल नहीं होता और उस पर जनमत नहीं बनता। उनके नाम पर धरना प्रदर्शन नहीं होते, वे देश में आदर्श के रूप में चर्चा नहीं पाते।
मेरा मानना है इस स्थिति की गहन पड़ताल की जानी चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि पत्रकारिता का यह दलगत आदर्श क्यों पत्रकारिता और उसके उच्चतर शिखर तक पहुंचने का आजमाया नुस्खा बनता जा रहा है।
पहले जो पत्रकार पार्टियों की दलाली करते थे, या उनकी बोली में बात करते थे या उनके मनमुताबिक खबरें प्लांट करते थे, वह कमजोर और खराब पत्रकार माने जाते थे। माना जाता था कि उनमें पत्रकारीय क्षमता नहीं है। आज आप तभी ढंग के पत्रकार हैं, पत्रकारिता में महत्व वाले मनई हैं, जब आप मोदी या लालू के साथ हैं, आप केजरीवाल या ममता के चहेते हैं। तभी वे और उनके हजारो कार्यकर्ता आपकी खबरों को ट्वीट करेंगे, तभी आप ट्रेंड करेंगे और तभी आप देश के चर्चित पत्रकार बनेंगे।
याद कीजिए कुछ वर्ष पहले तक अगर किसी पत्रकार का सार्वजनिक गान कोई पार्टी करने लगती थी तो उसके लिखे या बोले का महत्व कम हो जाता था। उसको लोग 'बयान' कहा करते थे। पर आज स्थितियां उलट गयीं हैं।
आप देखेंगे कि मोदी और उनकी पार्टी के मंत्री—संत्री—जंत्री दिनभर सबसे बड़े मुनाफाखोर मीडिया घरानों में टाइम्स नॉउ, जी न्यूज, इंडिया टीवी, टीओआइ, दैनिक जागरण आदि की खबरें शेयर करते रहते हैं। ट्रेंड कराने का ठेका लेते हैं। गाहे—बगाहे मोदी खुद किसी भक्त पत्रकार या संपादक को महान बोल देते हैं। उसके बाद वह पत्रकार और मीडिया एकाएक देश का पहले नंबर का पत्रकार हो जाता है।
इसी तरह छोटी पार्टियों में सबसे पहले आम आदमी पार्टी का उदाहरण देखें। इनके पास एनडीटीवी, स्क्रॉल, द वायर, जनता का रिपोर्टर जैसी टीवी और वेबसाइट्स का ठेका है। दिनभर में आम आदमी पार्टी के लोग इन वेबसाइट्स और एनडीटीवी को जितनी बार शेयर करते हैं, उतनी बार तो इन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकार भी नहीं करते होंगे।
किसी राजनीतिक पार्टी के अच्छा काम करने पर या उसकी कुछ पहलकदमियों पर सकारात्मक रुख मीडिया का रहता है, लेकिन आजकल यह चैनल और वेबसाइट्स वाले ऐसा क्या करते हैं कि पार्टी नेताओं को उनके ठेके के अंतर्गत चलने वाली मीडिया मुखपत्र लगने लगती हैं, वह सुबह—शाम दूसरी पार्टी वालों को चिढ़ाते हुए उनका लिंक शेयर करते हैं। और यह ट्रेंड बड़ी मुनाफाखोर मीडिया से लेकर छोटे और खुद को प्रगतिशील कहने वाले सभी में बराबर रूप से मौजूद है।
भाजपा प्रवक्ता फारिग होते ही जी न्यूज या दूसरी भक्त मीडिया को शेयर करते हैं तो आप के नेता स्नान करने से ठीक पहले एनडीटीवी, यूथ की आवाज, जनता का रिपोर्टर या द वायर को शेयर करना नहीं भूलते। गुफाओं में से भूत और आसमान से अप्सराएं खोज लाने वाली भक्त मीडिया को ही भाजपा के खिलाफ खोजे स्टोरी नहीं मिलती, बल्कि यहीं से बैठे—बैठे ट्रंप की एक—एक बारीकियां निकालने वाले प्रगतिशीलों को भी आप की गड़बड़ियों की कोई कहानी लिखने योग्य नहीं जान पड़ती।
इसी तरह मुंह में चांदी का चम्मच लिए पैदा होने वाले होने वाले बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी अपनी 'ठकुरसुहाती' में लगी ऐसी वेबसाइट्स को ट्वीट करने लगे हैं जिनका नाम उनके पापा से भी पूछ लो तो कहेंगे, 'हांय बुरबक।'
इन दिनों लालू प्रसाद और उनका परिवार संकट में है तो कुछ वेबसाइट्स और चैनल वालों ने अब लालू को बचाने का ठेका ले लिया है। इनमें से कुछ अपने मन से तो कुछ ने पेड तरीके से ठेका उठाया है। इनमें एक तीसरे तरीके के भी हैं, जिन्होंने अपनी जाति के नेता को बचाने का ठेका ले लिया है, वे लगे हुए हैं कि कैसे दूसरों के भ्रष्टाचार के गिनाकर लालू यादव के भ्रष्टाचार को एक 'हल्का—फुल्का' भ्रष्टाचार बताएं।
कहा जा सकता है कि इन दिनों अच्छी पत्रकारिता का कंपटीशन नहीं, बल्कि पार्टियों के सामने अच्छा प्रोजेक्ट होने का कंपटीशन चल रहा है। पत्रकारिता का बहुतायत पार्टियों का संवदिया हो चुका है, वह जनता के अच्छे बुरे से पहले अपनी पक्षधर पार्टियों की चिंता करता है।
मौजूदा पत्रकारिता के आदर्श पत्रकारिता की पूरी पीढ़ी को एक ऐसी पत्रकारिता की ओर ढकेल रहे हैं, जो जनता की जुबान बनने की बजाए, पार्टियों और पूंजीपतियों की झंडाबरदार बनती जा रही है।
इसकी नहीं तो उसकी बन कर रहे, अंबानी की न हुई तो टाटा की बनकर रहे, मोदी के न हुई तो केजरीवाल की बनकर रहे, केजरीवाल की होने से रह गयी तो लालू की ही बने, लेकिन किसी न किसी के अंगने में नाचे जरूर, घुंघरू पैर में बांधे जरूर, की सोच से बाहर निकालना होगा। क्योंकि यह पत्रकारिता नहीं है, यह पार्टीबंदी है।

लालू नाम की मछली पकड़ने से राजनीतिक तालाब को क्या फर्क पड़ेगा

लालू की कीमत पर, व्यापमं और माल्या जैसे प्रकरणों पर आँखें मूंदने वाला मोदी गिरोह खुद के लिए ईमानदारी का प्रमाणपत्र बटोरने जुगत में लगा है...

आपको मोदी शासन का अंध भक्त होना पड़ेगा अगर यह तर्क स्वीकार करना है कि लालू यादव और उनके कुनबे पर सीबीआई के छापों से देश की राजनीति में भ्रष्टाचार निरोधक किसी काल्पनिक मुहिम को बल मिलेगा . दरअसल, इसका जो भी थोड़ा-बहुत असर पड़ेगा वह लालू तक ही सीमित दिखेगा, भारतीय राजनीति में सर्वत्र छाये भ्रष्टाचार पर इसकी छाया भी नहीं पड़ेगी.
लालू पर छापे पहले भी पड़े हैं, यहाँ तक कि वे गिरफ्तार होकर कुछ समय तक जेल में भी रहे हैं. उन पर कायम पुराने चारा घोटाला के कई मुकदमे अभी भी चल रहे हैं, कुछ में उन्हें सजा भी मिल चुकी है जो फिलहाल अपील में लंबित हैं. ऐसी कवायदों की हकीकत क्या है? मनमोहन-सोनिया राज में तो आंध्र के लालू, स्वर्गीय मुख्यमंत्री वाइएसआर के बेटे जगन रेड्डी को सीबीआई के छापों ने वर्षों जेल में रखा पर आंध्र प्रदेश की राजनीति, ज्यों की त्यों भ्रष्टाचार की धुरी पर ही घूमती रही.
हालाँकि, पुरानी कहावत है एक गंदी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. लिहाजा गंदी मछली का तालाब से निकाला जाना स्वागत योग्य कहा जाएगा. लेकिन जब सारा तालाब ही लगभग गंदी मछलियों से भरा हो तो एक मछली के निकलने से क्या फर्क पड़ेगा? कौन नहीं जानता कि इन लालू छापों का भी तिलिस्म राजनीतिक सत्ता हथियाना है, राजनीति-जनित भ्रष्टाचार पर नकेल डालना नहीं.
सत्ताधारियों का अपने विरोधियों पर दबाव बनाने के लिए सीबीआई छापे डलवाना एक परंपरा सी बन गयी है. इसी का दूसरा पहलू है सीबीआई मामलों में ढील देकर उनसे मनचाही राजनीति कराना. हाल में, उत्तर प्रदेश चुनाव के समय, मायावती के कभी विश्वासपात्र मंत्री रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी को एनएचआरएम घोटाले में सीबीआई से राहत दिलवाकर, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उनसे मायावती को जमकर खरी-खोटी सुनवाई. इसी अंदाज में अब लालू पर सीबीआई का दबाव बनाकर बिहार की महागठबंधन सरकार को अस्थिर किया जा रहा है.
अन्यथा लालू प्रसाद के जग-जाहिर भ्रष्ट राजनीतिक जीवन को सार्वजनिक करने के लिए क्या किसी सीबीआई छापे की ज़रूरत है? अगर किसी सरकार को वाकई राजनीतिक भ्रष्टाचार को नाथना है तो उसके छापे पड़ने चाहिए सत्ता और संरक्षत्व के केन्द्रों पर. आज के दिन इसका सीधा मतलब हुआ, हजारों-लाखों करोड़ का बजट खपाने वाले मंत्रालयों और उनके प्राधिकरणों, और मुख्यमंत्री कार्यालयों पर. भाजपा और कांग्रेस समेत तमाम काले धन से अमीर बने राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक दलों पर. आरएसएस जैसे आज के संरक्षण प्रदाता संस्थाओं और मुनाफाखोर क्रोनी कैपिटल के ठिकानों पर।
मोदी शासन की असल नीयत जानना हो तो गांधी परिवार के दामाद रॉबर्ट वाड्रा का उदाहरण सामने है. वाड्रा द्वारा राजनीतिक संरक्षण में किये गए जमीनों के घोटालों में कुछ भी छिपा नहीं है. साफ है कि ‘इस हाथ ले और उस हाथ दे’ का खुला खेल खेला गया था.
वाड्रा के हरियाणा मामलों में तो एक न्यायिक कमीशन की रिपोर्ट भी भाजपाई खट्टर सरकार के पास लगभग साल भर पहले आ चुकी है. उसकी गिरफ्तारी और चालान में देर इसलिए क्योंकि सह-अभियुक्त डीएलएफ़ कंपनी में भाजपाई शीर्षस्थों का काला पैसा भी लगा हुआ है. इसी लिए मोदी शासन उसे अपना दामाद मान कर चल रहा है.
वैसे भी महज पैसों की बेईमानी को ही असल बेईमानी के रूप में पेश करना अपने आप में बड़ी बेईमानी हुयी. असल बेईमानी छिपी होती है सरकार की उन नीतियों में जो बड़े कॉर्पोरेट की लाखों करोड़ की टैक्स चोरी को अनदेखा करती हैं और उन्हें हजारों करोड़ के बैंक कर्जे डकारने देती हैं. असल बेईमानी हुई सरकारी नीतियों को इस तरह लागू करने में कि एक सामान्य नागरिक को उसका लाभ ही न मिले जबकि मुनाफाखोरों की लूट जारी रहे.
ताजातरीन उदाहरण है नए रियल एस्टेट एक्ट का जो कांग्रेस के ज़माने से चलते-चलते संसद से अब पारित हुआ है. इसमें बिल्डर की मनमानी के मुकाबले उपभोक्ता को कई राहत दी गयी हैं. ये राहत मिलनी शुरू क्यों नहीं हो रहीं? क्योंकि किसी भी राज्य सरकार ने, जिनमें तमाम भाजपाई सरकारें भी शामिल हैं, इस एक्ट के तहत नियम ही नहीं बनाये. यह भी तय है कि जब कभी नियम बनेंगे तो बिल्डर के मतलब से न कि उपभोक्ता के.
लालू की कीमत पर, व्यापमं और माल्या जैसे प्रकरणों पर आँखें मूंदने वाला मोदी गिरोह खुद को ईमानदारी का प्रमाणपत्र देने में अकेला नहीं है. स्वयं को सुशासन बाबू का तगमा बाँटते नहीं थकते नीतीश कुमार भी बहती गंगा में हाथ धोने में पीछे नहीं. उनके दल जेडीयू ने प्रस्ताव पारित कर लालू के बेटे और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से आह्वान किया है कि वे जनता में जाकर सीबीआई आरोपों की सफाई दें. यानी वर्तमान लालू प्रहसन का सूत्रधार जो भी हो, बंटाधार किसी का नहीं होगा.

पत्रकारिता भी बदली है और पत्रकार भी बदले हैं।

पहले खबरों के लिए पिटते थे, अब नेताओं के लिए लात खाने लगे हैं पत्रकार

संपादक चुनते वक्त योग्यता के तौर पर भाषा और पत्रकारिता की जानकारी नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की निकटता देखी जाती है। जो सम्पादक मालिक को जितना विज्ञापन लाकर देगा, उतना महान होगा...

पिछले दिनों पटना में जब लालू प्रसाद यादव के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के सुरक्षा गार्डों द्वारा एक टीवी पत्रकार के साथ मारपीट की गई, तो पत्रकारों की पिटाई एक बार फिर सुर्खियां बनी।
पत्रकार हमेशा से निशाने पर रहे हैं। पहले भी बहुत से पत्रकारों को पिटाई हुई है और कई पत्रकारों की हत्या भी हुई है। यह क्रम आज भी जारी है, लेकिन जैसे बाकी दुनिया बदली है पत्रकारिता भी बदली है और पत्रकार भी बदले हैं।
जब गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे लोग पत्रकारिता कर रहे थे, तब पत्रकारिता का मूल लक्ष्य था समाज के दबे—कुचले, कमजोर लोगों की आवाज सत्ता तक पहुंचाना और इस क्रम में पत्रकार सत्ता के खिलाफ लिखने से भी बाज नहीं आते थे। लेकिन पत्रकारिता जैसे जैसे व्यापारियों की गोद में जाती गयी, पत्रकारिता का स्वरूप बिगड़ता गया।
पत्रकार मालिक के सिपाही की तरह काम करने लगे। समाज के प्रति उनकी कर्त्तव्य भावना शिथिल होती गयी और अब स्थिति यह बन गयी है की पत्रकारिता भी एक किस्म की नौकरी हो गयी है। पत्रकारों को मालिक के इंटरेस्ट के अनुसार काम करना पड़ता है। जब तोप हो मुक़ाबिल तो अखबार निकालो की जगह अब जब सत्ता को हो साधना तो अखबार निकालो कहावत बन आई है।
ऐसे में पत्रकारिता और पत्रकार दोनों का सम्मान गिरा है। और इस हद तक जा गिरा है कि पत्रकार सत्ता की चाटुकारिता करने में होड़ कर रहे हैं। गरीब और कमजोर की आवाज बनने की जगह पत्रकार अपने मालिक और मालिक की वफादारी के अनुकूल राजनेता की आवाज बन गए हैं।
ऐसे में उन पत्रकारों के सामने बेशक खतरे बढ़ गए हैं जो पत्रकारिता धर्म के अनुकूल पत्रकारिता कर रहे हैं। चूंकि पत्रकारिता की मुख्य धारा चाटुकारितावाली पत्रकारिता हो गयी है, इसलिए उसूल के साथ चलने वाले पत्रकार विजातीय और अकेले दिखते हैं।
और ऐसे पत्रकार सिर्फ अपराधियों को ही नहीं, राजनेताओं को भी चुभते हैं। और मौक़ा मिलते ही उन्हें रास्ते से हटा देते हैं, अपराधी हत्या करवा देते हैं तो राजनीतिज्ञ नौकरी से निकलवा देते हैं। ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जब राजनीतिज्ञों के कहने पर पत्रकारों को नौकरी से हाथ होना पड़ा है।
अब चूँकि पत्रकारिता व्यापारियों के लिए अपना हित साधने का माध्यम बन गयी है, इसलिए जाहिर है कि वह ऐसे व्यक्तियों को ही नौकरी पर रखेगा जो पत्रकारिता के मूल्य की जगह मालिक के हित साधने में सहायक हो। तभी तो ऐसे हालात हैं कि संपादक चुनते वक्त योग्यता के तौर पर भाषा और पत्रकारिता की जानकारी नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की निकटता देखी जाती है। जो सम्पादक मालिक को जितना विज्ञापन लाकर देगा, उतना महान होगा।
ऐसे में पत्रकार पत्रकार कम वसूली एजेंट ज्यादा बन जाते हैं। उनकी रिपोर्टिंग एकतरफा होती है। फिर वह अपनी गरिमा भी खो देते हैं और सुरक्षा भी। वह शालीन रहने के बजाय दंभी हो जाते हैं और पार्टी के हार्डकोर कार्यकर्त्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं। ऐसे पत्रकार हर चैनल और अखबार में आसानी से दिख जाते हैं।
पटना के पत्रकार भी अलग नहीं हैं। प्रथमदृष्टया सबने माना की तेजस्वी के अंगरक्षकों ने बदमाशी की, लेकिन जब तफसील से देखा गया, तो पता चला कि गार्ड ने अपनी ड्यूटी निभाई। नियमतः पत्रकारों को कैमरा लेकर विधानसभा परिसर में जाने की इजाजत नहीं है, लेकिन एक्सलूसिव बाईट लेने और सबसे पहले हम के चक्कर में पत्रकार सारी मर्यादाएं तोड़कर अन्दर घुस आया करते हैं।
प्रत्यक्षदर्शी अन्य पत्रकार उस दिन की घटना को बयान करते हुए बताते हैं कि तेजस्वी खुद भी बाईट देना चाहते थे, लेकिन चूँकि विधानसभा कॉरिडोर में भीड़ ज्यादा हो गयी थी, घुटन भरा माहौल हो गया था, इसलिए तेजस्वी चाहते थे कि बाहर आकर खुले में पत्रकारों से बात की जाय।
इस क्रम में पत्रकारों में आपाधापी हुई और किसी का माइक तो किसी का कैमरा तेजस्वी के सर, गर्दन से जा टकराया, हालांकि फिर भी तेजस्वी ने आपा नहीं खोया, लेकिन गार्ड को अपनी ड्यूटी में मुश्किल आती दिखी, इसलिए उन्होंने पत्रकारों को तेजस्वी से दूर हटाना शुरू किया। इससे पत्रकार को भी गुस्सा आ गया और मामला पिटाई तक जा पहुंची। लेकिन प्रत्यक्षदर्शी का कहना है कि गार्ड का भी मकसद पत्रकार को पीटना नहीं था। यानी सब अपने आपको एडजस्ट करने में लगे हैं।
(प

सोमवार, 17 जुलाई 2017

भारत में राष्ट्रपति का निर्वाचन


मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल आगामी 25 जुलाई को खत्म हो रहा है। आपको पता है कि देश में राष्ट्रपति का चुनाव आम प्रक्रिया के तहत नहीं किया जाता, इसके लिए एक खास प्रक्रिया को अपनाया जाता है, जिसे इलेक्‍ट्रॉल कॉलेज कहते हैं।

इस प्रक्रिया में जनता सीधे अपने राष्ट्रपति को नहीं चुनती, बल्कि उसके द्वारा चुने गए विधायक और सांसद मिलकर राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। आइए आपको बताते हैं क्या है राष्ट्रपति चुनाव की यह प्रक्रिया और कैसे चुना जाता है देश का राष्ट्रपति। राष्ट्रपति चुनाव में देश के सभी विधायक और सांसद मतदान करते हैं। चुनाव में जीत के लिए कुल 5.49 लाख मूल्य के वोटों की दरकरार होती है। चुनाव में प्रत्येक विधायक और सांसद के मत का वेटेज निर्धारित होता है। इसका गणित प्रत्येक राज्य की आबादी और उसके कुल विधायकों के अनुपात से निकाला जाता है। इसका हिसाब साल 1971 में हुई जनगणना से लगाया जाता है, जो साल 2026 तक चलेगा। मसलन 1971 की जनगणना के अनुसार मध्यप्रदेश की आबादी 30,017,180 थी, और राज्य के कुल विधायकों की संख्या 230 है।अब इन विधायकों के वोटों का गणित निकालने के लिए 30,017,180 की संख्या को 230 से भाग दिया जाता है। जो संख्या आती है उसे फिर 1000 से भाग किया जाता है। इससे जो संख्या निकलकर आती है वो उस राज्य के विधायकों के वोटों का मूल्य माना जाता है। इसी तरह सभी राज्यों की आबादी के हिसाब से प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के विधायकों का वोट ‌मूल्य तय कर लिया जाता है। सांसदों के वोटों का मूल्य निकालने के लिए देश के सभी विधायकों के कुल मूल्य से भाग कर दिया जाता है जो संख्या निकलकर आती है वो सांसद के वोट का मूल्य होता है। देश के इलेक्ट्रॉरल कालेज के कुल सदस्यों का कुल वोट मूल्य 10,98,882 है। राष्ट्रपति चुनाव में जीत के लिए 5,49,442 वोट की दरकरार होती है।

- वोटिंग के दौरान प्रत्येक सदस्य को बैलेट पेपर पर अपनी पहली दूसरी और तीसरी पसंद के उम्‍मीदवार की जानकारी देनी होती है।
- इसके बाद पहली वरीयता के वोट गिने जाते हैं, इस प्रक्रिया से ही अगर निर्धारित 5,49,442 वोटों की संख्या पूरी हो जाती है तो चुनाव पूरा माना जाता है और अगर पहली वरीयता के वोट पूरे नहीं पड़ते हैं तो दूसरी वरियता के वोटों की गिनती होती है।
क्या है मौजूदा पार्टियों का गणित
- मौजूदा चुनाव में कुल 4120 विधायक और लोकसभा-राज्यसभा के 776 सांसद वोट डालेंगे।
- फिलहाल केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए के सांसद और विधायकों के हिसाब से कुल 532019 वोट हैं।
- जीत के लिए उसे कुल 549442 वोटों की जरूरत है जिसमें उसके पास 17423 वोट कम हैं।


हवाई जहाज से जाएंगी मतपेटिका
राष्ट्रपति चुनाव के लिए सोमवार को सचिवालय में होने वाले मतदान के बाद मतों की गणना के लिए मतपेटिका (बैलट बॉक्स) हवाई जहाज से यात्री की तरह सफर कर दिल्ली पहुंचेगीं। इसके लिए हवाई जहाज में मतपेटिका के लिए सीट आरक्षित की जाएगी। राष्ट्रपति चुनाव के लिए दिल्ली के अलावा राज्यों की राजधानी में वोट डाले जा रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के लिए सोमवार को सचिवालय के तिलक हॉल में सुबह 10 से शाम पांच बजे तक मतदान चल रहा है। मतों की गिनती दिल्ली में होगी। मतदान के बाद वोटों से भरा बैलट बॉक्स हवाई जहाज से दिल्ली ले जाया जाएगा। फर्क यह होगा कि यह बैलट बॉक्स हवाई जहाज के यात्रियों के सामान के साथ कार्गो कंटेनर में नहीं रखा जाएगा।
बैलट बॉक्‍स की सीट होंगी बुक

बैलट बॉक्स को हवाई जहाज से दिल्ली जाने वाले भारत निर्वाचन आयोग के प्रतिनिधि अपनी बगल की सीट पर रखकर ले जाएंगे। 


कैसे होंगी सड़कें सुरक्षित?

यह तो जाना-पहचान तथ्य है कि भारत में सड़क यात्रा असुरक्षित है। हर साल सवा लाख से ज्यादा लोगों की जान सड़क हादसों में जाती है। इससे कहीं ज्यादा विकलांग या घायल होते हैं। इन हादसों के कई कारण बताए जाते हैं। मसलन, सड़कें टूटी-फूटी अवस्था में होती हैं और स्पीड ब्रेकर मनमाने तरीके से बने होते हैं। इसके अलावा भीड़ और अनियंत्रित ड्राइविंग की चर्चा भी होती है। अनियंत्रित ड्राइविंग के पीछे कारण क्या हैं, यह समझना तो एक ताजा अध्ययन रिपोर्ट सहायक हो सकती है। सेवलाइफ फाउंडेशन नामक एक गैर-सरकारी संस्था की इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में 60 फीसदी लोगों को स्टीयरिंग पकड़ना सीखने के पहले ही ड्राइविंग लाइसेंस मिल जाता है।
यह निष्कर्ष पांच महानगरों सहित दस शहरों में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर निकाला गया है। वैसे ये बात आम अनुभव का हिस्सा है। अगर आपकी अधिकारियों तक पहुंच हो या दलालों को पैसा देने को आप तैयार हों, तो बिना ड्राइविंग टेस्ट दिए आप आसानी से लाइसेंस हासिल कर सकते हैं। बायो-मेट्रिक सिस्टम लागू होने के बाद फोटो खिंचवाने के लिए एक बार आरटीओ जाने की मजबूरी जरूर हो गई है, लेकिन इससे यह सुनिश्चित नहीं हुआ है कि ठोक-बजा कर ही लाइसेंस दिया जाएगा। कुछ साल पहले तो बिना आरटीओ गए भी लाइसेंस मिल जाते थे। अब जिसे ड्राइविंग के मूलभूत नियम ना पता हों और जो ट्रैफिक संकेतों को ना जानता-समझता हो, उससे आप कैसी ड्राइविंग की आशा कर सकते हैं? सर्वे रिपोर्ट से सामने आई हकीकत पर ध्यान दीजिए। आगरा में सामने आया कि वहां सिर्फ 12 फीसदी ड्राइवरों ने ईमानदार तरीके से लाइसेंस हासिल किया था।
बाकी 88 प्रतिशत ने माना कि उन्होंने ड्राइविंग टेस्ट नहीं दिए। जयपुर में ये संख्या 72 फीसदी थी, तो दिल्ली में 54 और मुंबई में 50 प्रतिशत ड्राइवरों ने ये हकीकत मानी। ये सर्वे रिपोर्ट उस समय आई है, जब संसद नए मोटर वाहन विधेयक पर विचार कर रही है। प्रस्तावित कानून में सूचना तकनीक आधारित ड्राइविंग टेस्ट का प्रावधान है। नियमों के उल्लंघन पर सख्त दंड की व्यवस्था भी इसमें है। ये अच्छी बातें हैं, लेकिन क्या इन पर अमल कराना संभव होगा? भ्रष्टाचार अपने देश में कितने गहरे तक पसरी हुई समस्या है, यह जानना हो तो आपको एक बार किसी आरटीओ का दौरा जरूर करना चाहिए। जब तक इसकी जड़ें वहां सिंच रही हैं, तमाम कानूनी प्रावधान बेअसर बने रहेंगे।

कैसा रोजगार, कैसा कौशल विकास?

विश्व युवा कौशल दिवस अभी बीता है। 15 जुलाई को इस मौके पर कई राष्ट्रीय नेताओं और कई राज्यों के नेताओं ने भी रोजगार, कौशल विकास और युवाओं के बारे में बढ़ कर दावे किए। इन दावों की हकीकत साबित करने का कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है और हैरानी है कि किसी को इसकी चिंता भी नहीं है कि नेता ऐसे कैसे आंकड़े दे रहे हैं, जिसका कोई जमीनी आधार नहीं है। आंकड़े हमेशा गलत तस्वीर पेश करते रहे हैं, लेकिन इन दिनों बढ़ चढ़ा कर आंकड़े पेश करने का चलन पहले से ज्यादा हो गया है। यह माना जा रहा है कि चाहे झूठे आंकड़े पेश किए जाएं, लेकिन उसका पैमाना बड़ा होना चाहिए। 
मिसाल के तौर पर विश्व युवा कौशल दिवस के मौके पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दावा किया कि बिहार देश की कौशल राजधानी बन गया है। उनका कहना है कि बिहार में युवाओं को हर किस्म के कौशल का प्रशिक्षण दिया जा रहा है और वे देश के अलग अलग हिस्सों में जाकर रोजगार हासिल कर रहे हैं। उनके इस दावे की आंकड़ों के सहारे न तो पुष्टि हो सकती है और न उसे खारिज किया जा सकता है। हकीकत यह है कि बिहार से बड़ी संख्या में युवा हमेशा बाहर जाते रहे हैं। आजादी के बहुत पहले से इसकी शुरुआत हो गई थी। आज भी देश के किसी भी हिस्से में दिहाड़ी मजदूर से लेकर रिक्शा चलाने वाले या प्राइवेट गार्ड की नौकरी में लगे युवा के बिहारी होने की संभावना सबसे ज्यादा है। बिहार के मुख्यमंत्री ने जो बात नहीं बताई, वह ये है कि पिछले करीब तीन दशक में बिहार की शिक्षा का भट्ठा बैठ गया है और सबसे ज्यादा पलायन स्कूल और कॉलेज को छात्रों का हुआ है। पहले बिहार के छात्र उच्च शिक्षा के लिए या उच्च शिक्षा के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए बिहार से बाहर जाते थे, लेकिन आज वे स्कूली शिक्षा के लिए राज्य छोड़ रहे हैं। 
यह सही है कि कमाने के लिए बड़ी संख्या में बिहार के युवा बाहर जाते हैं लेकिन यह कहना गलत है कि राज्य सरकार उनको प्रशिक्षित करके रोजगार के लिए तैयार कर रही है। बिहार के हों या राजस्थान और उत्तर प्रदेश या ओड़िशा के युवा हों, उनमें से ज्यादातर अनस्किल्ड लेबर यानी अप्रशिक्षित मजदूर ही हैं, जिनको अपनी क्षमता और योग्यता के मुताबिक न काम मिल रहा है और न पैसे मिल रहे हैं। 
विश्व युवा कौशल दिवस के मौके पर भारत सरकार के कौशल विकास मंत्रालय के मंत्री राजीव प्रताप रूड़ी ने दावा किया कि उनके मंत्रालय ने एक करोड़ 70 युवाओं का कौशल विकास कर रोजगार दिया है। इससे पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने आठ करोड़ युवाओं को रोजगार देने का दावा किया था। उन्होंने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के मौके पर कहा कि सरकार सवा सौ करोड़ लोगों के देश में सबको रोजगार नहीं दे सकती है, लेकिन मोदी सरकार ने आठ करोड़ लोगों को स्वरोजगार के अवसर दिए हैं। नीतीश कुमार के दिए आंकड़ों की तरह इन आंकड़ों की पुष्टि का भी कोई आधार नहीं है। 
हां, प्रधानमंत्री की अपनी वेबसाइट से जरूर यह पता चलता है कि भारत में महज 4.7 फीसदी कामगार ऐसे हैं, जिनको कौशल विकास का औपचारिक प्रशिक्षण मिला हुआ है। दक्षिण कोरिया में यह आंकड़ा 96 फीसदी का है। जापान में भी 80 फीसदी लोगों को कौशल विकास का औपचारिक प्रशिक्षण मिला हुआ है। अमेरिका में यह आंकड़ा 52 फीसदी का है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में कौशल विकास के दावे की हकीकत क्या है। 
असल में केंद्र की यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद और फिर बाद में कौशल विकास निगम का गठन करके जो मिथक फैलाना शुरू किया था, उसे ही आगे बढ़ाया जा रहा है। मनमोहन सिंह की सरकार ने 50 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करने के मकसद से राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद का गठन किया था। लेकिन बाद में उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो लक्ष्य घटा कर सीधे एक करोड़ कर दिया गया। कहां 50 करोड़ और कहां एक करोड़! हालांकि सरकार वह लक्ष्य भी नहीं हासिल कर पाई। 
बाद में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री ने स्किल इंडिया की घोषणा की और बाद में प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना का ऐलान किया गया। इसके लिए पहले 16 सौ करोड़ और बाद में छह हजार करोड़ रुपए का बजट तय किया गया। प्रधानमंत्री की इस महत्वाकांक्षी योजना का लक्ष्य भारत में प्रशिक्षित कामगारों की इतनी बड़ी फौज तैयार करने का है, ताकि वे पूरी दुनिया के मैनपावर की जरूरत पूरी करें। लेकिन दो साल बाद सरकार यह आंकड़ा देने की स्थिति में भी नहीं है कि कितने लोगों का कौशल विकास हुआ और कितना मैनपावर भारत ने दुनिया को सप्लाई किया। उलटे यह खबर आ रही है कि कौशल विकास के नाम पर युवाओं के साथ ठगी हो रही है और सरकार का पैसा बरबाद हो रहा है। लोग सिर्फ कागजों पर कौशल विकास केंद्र बना रहे हैं, कागजों पर प्रशिक्षण दिया जा रहा है और सरकार का पैसा गायब हो जा रहा है। इस तरह से न तो कौशल विकास हो रहा है और न रोजगार मिल रहा है।

रविवार, 16 जुलाई 2017

नीतीश, लालू में डाल-डाल और...

मकड़जाल बुनने में न नीतीश कुमार का जवाब है और न लालू प्रसाद यादव का! अच्छा खासा राज चल रहा था उसे अपने तानेबाने में ऐसे दांव पर लगाया है कि दोनों मन में अब और गहरी गांठ बांधे रहेंगे। इन पंक्तियों के लिखने तक फैसले का दारोमदार नीतीश कुमार पर लग रहा है। लालू प्रसाद यादव ने गुजरी रात कहा है कि तेजस्वी प्रसाद के कैबिनेट से इस्तीफे का सवाल नहीं उठता हैं जो करना हो करें। मतलब नीतीश कुमार के लिए तेजस्वी को बरखास्त करने का अब रास्ता है। ऐसा हुआ तो लालू यादव अपनी पार्टी के सभी मंत्रियों के इस्तीफे दिला कर नीतीश सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा कर सकते है। मतलब वे सरकार गिरने नहीं दे। इसलिए कि सरकार गिराने का मतलब है कि या तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगे या भाजपा बाहर से समर्थन देने की घोषणा कर नीतीश सरकार को जिंदा रखे। दोनों ही स्थिति लालू के लिए ठीक नहीं है। 
नीतीश कुमार क्या करेंगे यह फैसले के वक्त का ग्रह काल तय करेगा। फिलहाल उनका इरादा रामचंद्र गुहा जैसों का महानायक बना रहना है इसलिए वे भाजपा की गोद में जा बैठे, यह मुश्किल है। नीतीश अपने आपको खास, नरेंद्र मोदी के समनांतर महानायक बनाए रखने की उधेड़बुन में पहले दिन से है। उस नाते सोचा जा सकता है कि उन्होंने भाजपा का इस्तेमाल कर लिया। भाजपा ने लालू यादव और तेजस्वी को बदनाम करने के लिए जो कुछ संभव था कर डाला। उसी से नीतीश कुमार जतला रहे है कि उनके लिए दागी तेजस्वी को कैबिनेट में रख कर राज करना संभव नहीं है। वे लालू और तेजस्वी को औकात बता दुनिया में मैसेज दे रहे है कि उनकी फितरत नहीं इमेज, उसूलों से समझौता करना। अब यह बात बिहार की जनता में भले न पैंठे क्योंकि आखिर 2015 में उन्होंने चुनाव तो सजायाफ्ता लालू यादव के साथ एलायंस बना कर ही जीता था। मगर बिहार के बाहर देश की धर्मनिरपेक्ष ताकतों व नरेंद्र मोदी के विकल्प के लिए छटपटा रही जमात में तो उनकी वाह बनेगी। 
सो उसी नाते रामचंद्र गुहा की नीतीश को कांग्रेस का अध्यक्ष बना देने की अपील का मतलब समझे। देश के सेकुलर मानने लगे है कि नरेंद्र मोदी को हराना राहुल गांधी के बस में नहीं है। उस नाते इस जमात की नजर में नीतीश कुमार नंबर एक बनना चाहते है या है।  नीतीश कुमार ने 2015 के बाद से ही इस बात को समझा हुआ है। तभी ताजा प्रकरण को मौका बना कर वे अपनी मजबूत नेता, साफ –सुथरी इमेज, सत्ता को ठोकर मार देने की हद तक दागी राजनीति को बरदास्त न करने वाली इमेज बनाने का मौका आया मान सकते है। 
नीतीश कुमार को पता है कि लालू और उनका परिवार सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स से इतना ज्यादा घिर चुका है कि वह पटना में भाजपा समर्थक सरकार नहीं बनने देना चाहेंगे। इसलिए भाजपा ने जब नीतीश सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा की तो लालू यादव का भी पैंतरा था कि ठीक है, नीतीश खुद चलाएं सरकार हम बाहर से समर्थन दे देंगे। नीतीश-कांग्रेस की सरकार राजद के बाहर से समर्थन पर चलती है तो बिहार में लालू उतने बेघर नहीं होंगे जितने नीतीश-भाजपा के साझे से बनते हंै। लालू यादव ने यों भी पहला मिशन नरेंद्र मोदी, भाजपा को हराने का बनाया हुआ है तो वे राजद को सत्ता से बाहर रख 2019 की रणनीति सोचे रहेंगे। 
तब लालू प्रसाद यादव ने तेजस्वी का पहले ही इस्तीफा क्यों नहीं करा दिया? इसलिए की लालू भी खांटी ओबीसी नेता है  वे नीतीश कुमार की राजनीति, उनका खेल समझ रहे है सो उन्हें पूरी तरह पदा कर अपने आपको बड़ा मसीहा बनाने की जुगत में है कि देखों उन्होंने कितना बड़ा बलिदान दिया। बिहार में सेकुलर सरकार और देश में नरेंद्र मोदी की साजिश से लड़ने के लिए कैसी कुरबानी दे रहे हैं। कुछ भी हो, नीतीश की सरकार गिराने से सेकुलर जमात में लालू की बदनामी अधिक बनती बनिस्पत अपमान और सत्ता गंवाने के बावजूद सरकार चलवाते रहने की वाह के!
सो दोनों में  दिलचस्प डाल-डाल, पांत-पांत वाली राजनीति है। यदि लालू की पार्टी नीतीश सरकार को बाहर से समर्थन देकर जनता दल यू से एलायंस बनाए रखती है और नीतीश की इमेज बनने देती है तो मन में दोनों में गांठ भले गहरी बंधे और 2019 के बाद उसके नतीजे भी शायद दिखे मगर तब तक इन दोनों का यह  साझा भाजपा के लिए घाटे का सौदा होना है।  इसलिए कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह, भाजपा की नंबर एक रणनीति है कि जैसे भी हो उत्तर प्रदेश और बिहार में 2019 से पहले विपक्ष को बिखरवाना है। इन दो प्रदेशों की गणित में ही 2019 का खेल बनना –बिगड़ना है। सो नीतीश कुमार यदि सेकुलर जमात में साफ इमेज के दमदार नेता  की इमेज पाते है और मौजूदा महागठबंधन ही 2019 में बिहार में मिल कर चुनाव लड़ता है तो संकट तो नरेंद्र मोदी-अमित शाह की रणनीति को है। तभी अपना यह भी मानना है कि इन दोनों की रणनीति कच्ची नहीं हो सकती। ये तो तो किसी भी सूरत में नीतीश और लालू दोनों को निपटाएगें।  महागठबंधन को बिखेरेगें।