ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार समस्याओं को पहचान कर उन्हें सुलझाने की बजाय एक-एक करके उनको कालीन ने नीचे छिपाती जा रही है। हर समस्या के सामने एक नया नैरेटिव खड़ा कर दिया जा रहा है। जब भी किसी मसले पर विफलता की बात उठती है तो किसी दूसरे मोर्चे पर सफल होने की एक गढ़ी हुई कहानी पेश कर दी जा रही है। इससे सरकार की ब्रांडिंग तो हो रही है या कम से निगेटिव प्रचार नहीं हो रहा है पर समस्या हल नहीं हो रही हैं। उन्हें जस का तस छोड़ा जा रहा है, जिससे उनकी गंभीरता बढ़ती जा रही है। जब भी ये समस्याएं गंभीर होती हैं और लगता है कि लोग वास्तव में चिंतित हो रहे हैं तो किसी न किसी मीडिया हाउस का एक प्रायोजित सर्वेक्षण आ जाता है, जिसमें बताया जाता है कि देश के 78 फीसदी लोग केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज से खुश हैं।
इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। चैनल सौ फीसदी लोगों को खुश बता दें पर क्या उन लोगों की समस्याओं को सुलझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी? अगर 78 फीसदी लोग सरकार से खुश हैं तो क्या सरकार को कोरोना वायरस से अपनी लड़ाई बंद कर देनी चाहिए या क्या चीन की घुसपैठ के मुद्दे को छोड़ देना चाहिए? क्या 78 फीसदी लोगों के सरकार से खुश होने की वजह से अब सरकार को आर्थिक मोर्चे पर कुछ नहीं करना चाहिए? देश की अर्थव्यवस्था ऐतिहासिक संकट के दौर से गुजर रही है। रिजर्व बैंक ने पिछले ही हफ्ते माना कि पूरे वित्त वर्ष में विकास दर निगेटिव रह सकती है।
भारत की करीब दो सौ लाख करोड़ रुपए की जीडीपी है इसकी विकास दर निगेटिव होने का क्या अर्थ होता है, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। एक फीसदी की कमी का मतलब होता है दो लाख करोड़ रुपए की कमी। पिछले साल विकास दर को पांच फीसदी मानें और इस बार यह शून्य पर रहे तब भी दस लाख करोड़ रुपए की आर्थिक गतिविधियां कम होंगी। इससे कितने लोगों की नौकरी जाएगी या काम धंधे बंद होंगे, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
फिर भी देश के लोग कथित तौर पर खुश हैं! कोई बात नहीं है पर सरकार तो हकीकत जानती है और अगर इस किस्म के सर्वेक्षण दिखाने वाले मीडिया हाउस नोट में चिप लगे होने की मूर्खताओं से बाहर निकलेंगे तो उन्हें भी हकीकत का अंदाजा हो ही जाएगा। देश की अर्थव्यवस्था तबाही की ओर बढ़ रही है और अफसोस की बात है कि सरकार इसे रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। कर्ज लेने की सुविधाएं बढ़ाते जाने से हालात नहीं सुधरेंगे। सरकार ने अपने कथित 21 लाख करोड़ रुपए के पैकेज में लघु व मझोले उद्योगों यानी एमएसएमई सेक्टर के लिए तीन लाख करोड़ रुपए के कोलेक्टर फ्री कर्ज की घोषणा की। आज हकीकत यह है कि एमएसएमई सेक्टर में 10 करोड़ नौकरियां जाने वाली हैं और यह बात सरकार जानती है।
इसी तरह कोरोना से लड़ाई का हाल है। देश कोरोना के घनघोर संकट में फंसा है। भारत में अब बिना नागा हर दिन दुनिया में सबसे ज्यादा केसेज आ रहे हैं और इस रफ्तार से अगस्त के अंत तक भारत दुनिया में दूसरा सबसे ज्यादा संक्रमित देश बन जाएगा। उसके बाद भी स्थिति सुधर जाएगी, इसका कोई अनुमान नहीं है। पर ऐसा लग रहा है कि सरकार कोरोना की खबरों को दबा कर यह समझ रही है कि समस्या खत्म हो गई या खत्म हो जाएगी। यह अपने आप खत्म होने वाली समस्या नहीं है और दुनिया भर के विशेषज्ञ इस बात को लेकर चिंतित हैं कि सर्दियों में भारत में भयानक विस्फोट हो सकता है।
सो, सर्दियां शुरू होने से पहले अगले दो-ढाई महीने में भारत सरकार को कोरोना से युद्धस्तर पर लड़ना चाहिए। कोरोना का संक्रमण अब दूर-दराज के इलाकों में पहुंचा है और उन इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत खराब हैं। सो, केंद्र सरकार को एक केंद्रीय कमान बना कर राज्यों के साथ तालमेल करना चाहिए और उनकी भरपूर मदद करनी चाहिए ताकि वे अपने यहां आम नागरिकों की भी मदद कर सकें और कोरोना से लड़ भी सकें। पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो चना देने से कोरोना वायरस की लड़ाई नहीं जीता जा सकेगी। आर्थिक के बाद सरकार की यह दूसरी विफलता है।
तीसरी विफलता सुरक्षा के मोर्चे पर है। ध्यान रहे सुरक्षा विमर्श केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी का पसंदीद विषय रहा है। भाजपा हमेशा दूसरी पार्टियों पर आरोप लगाती रही है कि वे देश की सुरक्षा से समझौता करते हैं और भाजपा ही अकेली ऐसी पार्टी है, जो देश की सीमाओं को सुरक्षित रख सकती है। पर असलियत यह है कि भारत के इतिहास में दूसरी बार ऐसा हो रहा है कि बिना लड़े कोई पड़ोसी देश भारत की जमीन कब्जा कर रहा है और सरकार जमीन छुड़ाने की बजाय पीछे हट रही है। पहली बार कारगिल में हुआ था, जब पाकिस्तान ने भारत की चौकियों पर कब्जा कर लिया था। संयोग है कि उस समय भी केंद्र में भाजपा की ही सरकार थी। अपनी की चौकियों को छुड़ाने के लिए भारत के चार सौ से ज्यादा जवान शहीद हुए थे।
बहरहाल, चीन ने पूर्वी और उत्तरी दोनों सीमा पर घुसपैठ की है। वह लद्दाख में कई स्थानों पर आगे बढ़ कर बैठा हुआ है और सैन्य कमांडरों व कूटनीतिक बातचीत में सहमति के बावजूद पीछे नहीं हट रहा है। उसने पूरी गलवान घाटी पर दावा किया तो पैंगोंग झील के पास भी आठ किलोमीटर से ज्यादा जमीन पर अपना दावा कर रहा है। उसने ऐसे इलाकों पर दावा किया है, जो पहले कभी विवादित नहीं रहे हैं। इसी तरह पूर्वी सीमा पर वह भूटान के पूर्वी हिस्से पर दावा करके परोक्ष रूप से अरुणाचल प्रदेश पर दावा कर रहा है। सरकार को इसकी गंभीरता को समझते हुए ठोस कदम उठाने चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें