रविवार, 30 अगस्त 2020

कांग्रेस सेवादल का आरोप, RSS के कार्यकर्ता तैयार करेगी केंद्र की नई शिक्षा नीति


 जयपुर: कांग्रेस सेवादल ने केंद्रीय शिक्षा नीति के खिलाफ बिगुल बजा दिया है। सेवादल का आरोप है कि केंद्र सरकार देश में शिक्षा नीति के बहाने भगवाकरण और निजीकरण को थोप रही है। शिक्षा नीति में ऐसे प्रावधान किए गए हैं कि भविष्य में जाकर शिक्षा का अधिकार कानून खत्म हो जाएगा। 


सेवादल की ओर से जयपुर में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की है। संगोष्ठी में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा सहित  देश के कई राज्यों से शिक्षाविद्, सामाजिक कार्यकर्ता, एक्टिविस्ट शामिल होने आए हैं। सेवादल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालजी भाई देषाई, आईटीआई एक्टिविस्ट सुभाष सिंह, आरटीई एक्टिविस्ट पवन राणा सहित कई पदाधिकारी मौजूद हैं। शिक्षा नीति में शामिल खामियों पर मंथन किया जाएगा। 


दो दिन की चर्चा के बाद एक ड्राफ्ट तैयार कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और शिक्षामंत्री गोविंद सिंह डोटासरा को सौंपा जाएगा। इससे पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और शिक्षामंत्री गोविंद सिंह डोटासरा ने कहा कि शिक्षा नीति में नया कुछ नहीं है। केवल नेहरू, इंदिरा, राजीव का नाम हटाकर मोदी ब्रांड बनाना है। 


नई बोतल में पुरानी शर्बत वाली है शिक्षा नीति


RSS के वर्कर तैयार करने के लिए नई शिक्षा नीति बनाई गई है। राजस्थान सरकार पहले ही कई प्रावधान कर चुके। केंद्र ने बजट प्रावधान नहीं किया, ऐसे में कैसे लागू होगी? शिक्षा नीति में सभी प्रकार के प्रावधानों को शामिल किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति के जरिए आर एस एस के भगवा एजेंडे को थोपना चाहती है। 


कांग्रेस सेवा दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल जी देसाई ने कहा कि नई शिक्षा नीति ने केवल भगवा बल्कि तीन रंगो वाले तिरंगी जैसी होनी चाहिए, जिसमें सभी संस्कृतियों और परंपराओं का समावेश हो। नई शिक्षा नीति में सांप्रदायिक वाद को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है।


शनिवार, 29 अगस्त 2020

अनलॉक-4 में केंद्र ने राज्यों से छीन ली लॉकडाउन से जुड़ी बड़ी शक्ति


 देश में तेजी से बढ़ते कोरोना  संक्रमण के मामलों के बीच केंद्र सरकार ने शनिवार को अनलॉक-4  की गाइडलाइन  जारी कर दी है। अनलॉक-4 के दौरान क्या खुलेगा और क्या बंद रहेगा, इस पर आदेश के साथ ही एक अहम फैसला लिया गया है। केंद्र की नई गाइडलाइन में राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों से अपनी मर्जी से लोकल लॉकडाउन   लगाए जाने की शक्ति को छीन लिया गया है। गाइडलाइन में साफ तौर पर इस बात का जिक्र है कि कोई भी राज्य अपने यहां अब केंद्र सरकार से सलाह-मशविरा किए बिना लॉकडाउन   नहीं लगा सकेंगे। इस दौरान केवल कंटेनमेंट जोन में लॉकडाउन लगाए जाने की छूट दी गई है। 


केंद्र सरकार की ओर से जारी नई गाइडलाइन से साफ हो गया है कि कंटेनमेंट जोन को छोड़कर बाहर के किसी भी इलाके में राज्य अब अपनी मर्जी से लॉकडाउन नहीं लगा सकेंगे। केंद्र ने बताया कि कोरोना वायरस की कड़ी को तोड़ने के लिए कंटेनमेंट जोन में अगले 30 दिनों तक यानी 30 सितंबर तक लॉकडाउन जारी रहेगा। इस दौरान केवल जरूरी सामान लेने और जरूरी काम पर जाने की ही छूट दी जा सकेगी।


खबर है कि केंद्र सरकार ने जिस तरह से राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से लॉकडाउन लगाने की शक्ति छीनी है, उसके पीछे बड़ी वजह कारोबार है। दरअसल कई मैन्युफैक्चरर्स की शिकायत थी कि विभिन्न राज्यों में अलग-अलग समय पर लॉकडाउन लगाए जाने की वजह से उनके माल की निर्बाध आवाजाही में काफी दिक्कत आती है। लॉकडाउन की शक्ति छीन लिए जाने से केंद्र ने जिस तरह से मेट्रो को शुरू करने का फैसला लिया है, उसका भी लाभ आम जन को मिलेगा।


शनिवार और रविवार को नहीं लगाया जा सकेगा लॉकडाउन

केंद्र सरकार की नई गाइडलाइन के मुताबिक, अब उत्तर प्रदेश और असम की तरह अन्य राज्यों में शनिवार और रविवार को लगाया जाने वाला लॉकडाउन भी केंद्र सरकार की अनुमति के बिना नहीं लगाया जा सकेगा। इसी के साथ कई राज्यों में रात में लॉकडाउन लगाया जाता रहा है। ऐसे में इन्हें लॉकडाउन में ढील देनी होगी।


इन राज्यों का क्या होगा जिन्होंने पहले ही लगा दिया है लॉकडाउन


कई राज्य ऐसे भी हैं जिन्होंने केंद्र की गाइडलाइन आने से पहले ही कई इलाकों में लॉकडाउन की घो​षणा कर दी थी। ऐसे में अभी तक इन राज्यों को लेकर स्थिति साफ नहीं हो सकी है। बता दें कि कर्नाटक और बिहार ने पहले ही 14 दिन तक लॉकडाउन बढ़ा दिया था। वहीं असम, उत्तर प्रदेश ने राज्य में शनिवार-संडे का लॉकडाउन लगाया हुआ है।

अनलॉक 4 में किसे मिलेगी इजाजत और क्या रहेंगे बंद



 एक सितंबर से शुरू होने वाले अनलॉक 4  के लिए गृह मंत्रालय  ने शनिवार को दिशानिर्देश  जारी किए। हालांकि गृह मंत्रालय ने कहा है कि कंटेनमेंट जोन में 30 सितंबर तक लॉकडाउन सख्ती से लागू रहेगा। कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए स्कूल और कॉलेजों  को फिलहाल 30 सितंबर 2020 तक बंद रखने का फैसला किया गया है। इस दौरान, ऑनलाइन क्लास के जरिए पढ़ाई होगी।


केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को कहा है कि आप कंटेनमेंट जोन के बाहर अपना लोकल लॉकडाउन नहीं लगा सकते। यह इसलिए अहम है क्योंकि केंद्र सरकार के लॉकडाउन हटाने के बाद बहुत से राज्य अपना लॉकडाउन लगा रहे थे। साथ ही केंद्र ने इस बात को भी दोहराया है कि लोगों की एक राज्य से दूसरे राज्य या एक ही राज्य के अंदर आवाजाही पर ना तो कोई रोक होगी और ना किसी तरह की इजाजत की जरूरत होगी। यह इसलिए अहम है क्योंकि केंद्र सरकार के कहने के बावजूद कुछ राज्य अपने यहां घुसने पर पाबंदी लगाकर बैठे थे। 


कंटेनमेंट जोन का निर्धारण जिला स्तर पर गृह मंत्रालय के दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए किया जा सकेगा। कंटेनमेंट जोन कें अंदर सख्ती जारी रहेगी और केवल जरूरी क्रियाकलापों की ही मंजूरी होगी। सरकार ने कहा है कि जिला अध‍िकारियों की वेबसाइट पर कंटेनमेंट जोन को लेकर जानकारी अपडेट की जाएगी।


अनलॉक-4 की नई गाइडलाइन के मुताबिक सामाजिक, शैक्षणिक, खेल, मनोरंजन, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक कार्यक्रम अन्य सभाओं में 100 लोगों तक शामिल होने के लिए छूट दिए जाएंगे. इस दौरान, मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग, थर्मल स्क्रीनिंग और सैनेटाइजर का उपयोग अनिवार्य होगा। 


- महानगरों में मेट्रो रेल सेवाओं को 7 सितंबर 2020, से श्रेणीबद्ध तरीके से संचालिक करने के लिए अनुमति दी गई है। हालांकि गृह मंत्रालय द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा।

- साथ ही ओपन एयर थियेटर के लिए 21 सितंबर से अनमुति दे दी गई है।

- गृह मंत्रालय के नए निर्देशों के मुताबिक अनलॉक-4 में भी छात्रों के लिए स्कूल, कॉलेज, कोचिंग समेत शैक्षणिक संस्थान 30 सितंबर तक बंद रहेंगे। गाइडलाइन्स के मुताबिक इस दौरान रेगुलर क्लास एक्टिविटी नहीं रहेगी। फिलहाल ऑनलाइन क्लासेज जारी रहेंगी। 

- छात्रों और स्कूलों के लिए नीचे दिए गए गाइडलाइन्स 21 सितंबर से लागू किए जाएंगे और गृह मंत्रालय के दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा।

राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 50 फीसद तक शिक्षण और गैर-शिक्षण स्टाफ को ऑनलाइन टीचिंग, टेली काउंसलिंग और उससे संबंधित कार्यों के लिए एक समय में स्कूलों में बुलाया जा सकता है।

कंटेनमेंट जोन के बाहर आने वाले स्कूलों में शिक्षकों से गाइडलाइन्स के लिए कक्षा 9वीं से 12वीं तक के छात्रों को स्कूल में आने की अनुमति दी जा सकती है। लेकिन इसके लिए उनके माता-पिता/अभिभावकों की लिखित सहमति होना जरूरी है।

राष्ट्रीय कौशल प्रशिक्षण संस्थानों, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आईटीआई), राष्ट्रीय कौशल विकास निगम या राज्य कौशल विकास मिशनों या भारत सरकार या राज्य सरकारों के अन्य मंत्रालयों के साथ पंजीकृत लघु प्रशिक्षण केंद्रों में कौशल या उद्यमिता प्रशिक्षण की अनुमति दी जाएगी।

राष्ट्रीय उद्यमिता और लघु व्यवसाय विकास संस्थान (NIESBUD), भारतीय उद्यमिता संस्थान (IIE) और उनके प्रशिक्षण प्रदाताओं को भी अनुमति दी जाएगी।

- उच्च शिक्षा संस्थानों में केवल रिसर्च स्कॉलर्स (पीएचडी) और टेक्निकल और प्रोफेशनल प्रोग्राम के पोस्ट-ग्रेजुएट छात्रों के लिए प्रयोगशाला/प्रायोगिक कार्यों की आवश्यकता होती है। उच्च शिक्षा विभाग (डीएचई) द्वारा गृह मंत्रालय के परामर्श से, स्थिति के मूल्यांकन के आधार पर और राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में COVID-19 की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए अनुमति दी जाएगी।

- सिनेमा हॉल, स्वीमिंग पूल, एंटरटेनमेंट पार्क, थियेटर (ओपन एयर थियेटर को छोड़कर) और इस तरह की जगहों पर गतिविधियां प्रतिबंधित रहेंगी।


कोविड-19 प्रबंधन को लेकर सोशल डिस्टेंसिंग को सुनिश्च‍ित करते हुए राष्ट्रीय दिशा निर्देशों का पालन पूरे देश में जारी रहेगा। दुकानों में ग्राहकों के बीच पर्याप्त सोशल डिस्टेंसिंग का पालन जरूरी होगा। सरकार ने कहा कि गृह मंत्रालय इन निर्देशों के अमल पर निगरानी रखेगा।

‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए एक मतदाता सूची तैयार करने पर पीएमओ ने की बैठक


 देश में सभी चुनाव एक साथ कराने के विचार पर आगे बढ़ते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने इस महीने की शुरुआत में एक बैठक की थी, जिसमें लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और सभी स्थानीय निकाय चुनावों के लिए एक साझा मतदाता सूची तैयार करने की संभावना पर चर्चा की गई है।


इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 13 अगस्त को हुई इस बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव पीके मिश्रा ने की थी और इस दौरान उन्होंने दो विकल्पों पर चर्चा की थी।


पहले विकल्प के तौर पर अनुच्छेद 243-के (K) और 243-जेडए (ZA) में संवैधानिक संशोधन करना था, जो देश में सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची का होना अनिवार्य करेगा।


वहीं, दूसरे विकल्प के तौर पर राज्य सरकारों को इससे संबंधित उनके कानूनों में बदलाव करने को कहा जाएगा और इससे वे नगर निगम और पंचायत चुनावों के लिए चुनाव आयोग की मतदाता सूची को अपना लेंगी।


सूत्रों ने कहा कि कैबिनेट सचिव राजीव गौबा, विधायी सचिव जी. नारायणा राजू, पंचायती राज सचिव सुनील कुमार और चुनाव आयोग के महासचिव सहित तीन अन्य प्रतिनिधि बैठक में शामिल थे।


रिपोर्ट के अनुसार, अनुच्छेद 243-के और 243-जेडए राज्यों में पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुनाव से संबंधित हैं. ये अधीक्षण की शक्ति, मतदाता सूची तैयार करने का अधिकार और राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) को इन चुनावों के संचालन की शक्ति देते हैं। 


वहीं, दूसरी ओर संविधान का अनुच्छेद 324 (1) चुनाव आयोग को संसद और राज्य विधानसभाओं के सभी चुनावों के लिए निर्वाचक नामावलियों की तैयारी की निगरानी, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार देता है।


दूसरे शब्दों में राज्य चुनाव आयोग स्थानीय निकाय चुनावों के लिए अपनी स्वयं की निर्वाचक नामावली तैयार करने के लिए स्वतंत्र हैं और इस अभ्यास को चुनाव आयोग के साथ समन्वयित करने की आवश्यकता नहीं है।


फिलहाल अधिकांश राज्य अपनी नगरपालिकाओं और पंचायतों का चुनाव करने के लिए चुनाव आयोग की मतदाता सूची का उपयोग करते हैं।


हालांकि, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा, असम, मध्य प्रदेश, केरल, असम, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में स्थानीय निकाय चुनावों के लिए अपने स्वयं के निर्वाचक नामावली हैं।


सूत्रों ने कहा कि मिश्रा की अध्यक्षता में पीएमओ में हुई बैठक में जिन दो विकल्पों पर चर्चा की गई, उनमें से सुनील कुमार शेष राज्यों को स्थानीय निकाय चुनावों के लिए ईसी की मतदाता सूची को अपनाने के लिए राजी करने के पक्ष में थे। बैठक में मिश्रा कहा है कि कैबिनेट सचिव से राज्यों से परामर्श करने और एक महीने में अगले कदम का सुझाव देने के लिए कहा है।


आम चुनावी सूची भाजपा द्वारा पिछले साल लोकसभा चुनाव के लिए अपने घोषणा पत्र में किए गए वादों में से एक है। यह लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के लिए एक साथ चुनाव कराने की पार्टी की प्रतिबद्धता के साथ संबंध रखता है, जिसका उल्लेख घोषणा-पत्र में भी किया गया है।


इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, एकल मतदाता सूची की मांग नई नहीं है। विधि आयोग ने 2015 में अपनी 255वीं रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी। चुनाव आयोग ने 1999 और 2004 में भी इसी तरह का रुख अपनाया था। यह देखा गया था कि चुनाव आयोग और राज्य चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची तैयार करने की गैर-अनुरूपता के कारण दो एजेंसियों को एक ही काम करना पड़ता है।


इसके अलावा चुनाव आयोग ने बताया कि यह मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति को बढ़ाता है, क्योंकि एक मतदाता सूची में उनके नाम मौजूद हो सकते हैं, लेकिन दूसरे में गायब हो सकते हैं।


मौजूदा सरकार ने बड़ी संख्या में संसाधनों को बचाने और खर्च में कटौती करने के उद्देश्य से समान चुनावी सूची और एक साथ चुनाव कराने की बात की है।


सुशांत सिंह राजपूत मामले में समानांतर मुक़दमा न चलाए मीडिया: प्रेस काउंसिल


 प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआई) ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या मामले और इससे जुड़ी जांच की कई मीडिया संस्थानों द्वारा की जा रही कवरेज को लेकर  कड़ी आपत्ति जताई है। 

पीसीआई ने शुक्रवार को जारी एडवाइजरी में कहा कि मीडिया को ऐसे मामलों की कवरेज में पत्रकारिता आचरण के नियमों का पालन करना चाहिए और पीड़ित, गवाहों और संदिग्धों की निजता का सम्मान करना चाहिए।


पीसीआई ने इस मामले में मीडिया संस्थानों को अपना स्वयं का समानांतर मुकदमा न चलाने और फैसले की पहले ही भविष्यवाणी करने से बचने को कहा।


प्रेस काउंसिल ने कहा कि मीडिया को इस तरह से खबरों को नहीं दिखाना चाहिए, जिससे आम जनता आरोपी व्यक्ति की मामले में संलिप्तता पर विश्वास करने लग जाए।


पीसीआई ने कहा कि किसी फिल्म अभिनेता की कथित खुदकुशी के मामले की कवरेज कई मीडिया संस्थानों द्वारा पत्रकारिता आचरण के नियमों का उल्लंघन है और इसलिए मीडिया को पीसीआई द्वारा तय नियमों का पालन करने की सलाह दी जाती है।


पीसीआई ने कहा कि अपराध के बारे में आधिकारिक एजेंसी द्वारा की जा रही जांच की दिशा के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर सूचनाओं को प्रकाशित या प्रसारित करना वांछित नहीं है।


एडवाइजरी में मीडिया को सलाह दी गई है कि वे अपराध से जुड़े मामले में दैनिक आधार पर रिपोर्टिंग करने से बचें और सही तथ्यों का पता लगाए बिना सबूतों पर टिप्पणी नहीं करें क्योंकि इससे निष्पक्ष जांच एवं मुकदमे पर अकारण दबाव पड़ता है।


पीसीआई ने कहा कि मीडिया को सलाह दी जाती है कि वह पीड़ित, गवाहों, संदिग्धों और आरोपियों को अत्यधिक प्रचार देने से बचे क्योंकि ऐसा करना उनकी निजता के अधिकार में अतिक्रमण होगा।


इसके साथ ही मीडिया द्वारा गवाहों की पहचान उजागर करने से भी बचा जाना जरूरी है क्योंकि इससे उन पर आरोपी और जांच एजेंसियों के दबाव में आने का खतरा होता है।


इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रेस काउंसिल ने राजपूत की मौत के मामले में कुछ मीडिया संस्थानों द्वारा हो रही रिपोर्टिंग को लेकर सलाह देते हुए कहा कि अभिनेता की कथित आत्महत्या को लेकर कुछ समाचार पत्रों द्वारा हो रही रिपोर्टिंग भी आत्महत्या पर रिपोर्टिंग के लिए काउंसिल के निर्धारित मानदंडों का उल्लंघन है।


एडवाइजरी में कहा गया कि ऐसी उम्मीद की जाती है कि मीडिया उस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करेगी, जिससे आत्महत्या को सनसनीखेज बनाए या इसे समस्याओं के निर्णायी समाधान के तौर पर पेश करें इसलिए सलाह दी जाती है कि आत्महत्या मामलों की रिपोर्टिंग के दौरान सनसनीखेज सुर्खियों, तस्वीरों या वीडियो फुटेज का इस्तेमाल नहीं करें।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

सहचर-पूंजीवाद का मोर-पंखी मीडिया


 मोर-पंखी मीडिया को अपने पांवों की तरफ़ संजीदगी से देखने का अगर यह भी वक़्त नहीं है तो समझ लीजिए कि हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कलियुगी काले-सूराख़ का गुरुत्वाकर्षण-बल इस क़दर लील चुका है कि वेद व्यास ख़ुद भी अवतार ले लें तो उसे उबार नहीं सकते। मीडिया के खंभों का क्षरण आज से नहीं हो रहा है। मगर इन सात वर्षों में उसके भुरभुरेपन की दर जितनी तेज़ हुई है, पहले के किसी भी सात वर्षीय काल-खंड में नहीं हुई।  


यह छोटे परदे पर विक्षिप्तों की तरह हाथ-पैर फेंकते, छाती पीटते, आंय-बांय-शांय बकते और सूरमा-मर्ज़ की अपनी निश्चेत-अवस्था में डूबे बहस-सूत्रधारों का युग है। उनकी अक़्ल का सैलाब उनके छोटे मस्तिष्कों में समा नहीं रहा है; छलक-छलक कर नहीं, उफ़न-उफ़न कर, बाहर छलांगे लगा रहा है; और, वे भारतवासियों के भाग्य-विधाता का स्व-नियुक्तिपत्र अपने गले में लटका कर धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं। यह मुद्रित-मीडिया के कंकाली-करण का दौर है। अपने ज़िस्मों पर नकली चर्बी ओढ़े वह इतने बरसों से ख़ुद को जिस अखाड़े का पहलवान समझ रहा था, उसकी मिट्टी ने ही उसका ग़ुरूर मिट्टी में मिला दिया है।


समाचार चैनलों की टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट की बाज़ारू होड़ ने ऐसे-ऐसों से, अधनंगा क्या, तक़रीबन पूरा-का-पूरा नंगा, नाच करवा दिया है, जिन्हें हम अपने युग का देवी-देवता भले ही नहीं मानते थे, मगर उन्हें पिशाच-पिशाचिनी भी नहीं समझते थे। आज जो छोटे परदों पर पत्रकारीय मुखौटा लगा कर नमूदार हो रहे हैं, उन बेचारों को तो फिर भी इसलिए माफ़ कर देने को आपका मन हो सकता है कि वे ख़ुद भी शायद अपनी ग्राहक-खोजू भूमिका पर भीतर-ही-भीतर लजाते हों, मगर उनकी नियंत्रक-डोरियों वाले हाथों की कुरूपता तो आपको भी भीतर तक घिन से भर देगी।


हज़ार-दो-हजार प्रतियां छाप कर अपनी प्रसार संख्या पचासों हज़ार बताने का अखबारी धंधा कोई आज से नहीं चल रहा है। मेज़ के नीचे से दिए जाने वाले लिफाफों के ज़रिए झूठी प्रसार संख्या के बूते ऊंची विज्ञापन दरें हासिल करने वाले अख़बारों से हम यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि वे जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई में हमारा साथ देंगे! हमारी इस मासूमियत पर ख़ुदा मर न गया, यही क्या कम है? बड़े-मंझले-छोटे प्रकाशनों के कर्ताधर्ताओं के काले-पीले धंधों की सूची जारी हो जाए तो शर्म के मारे हम जा कर किस पोखर में छलांग लगाएंगे? पढ़ते थे कि जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो। आज मन करता है कि जब अख़बार मुक़ाबिल हो तो तोप निकालो। आज अख़बार का सबसे सार्थक और पवित्र उपयोग सिर्फ़ यह रह गया है कि आप उस पर रख कर सेंव-परमल, कचौरी-समोसा या गराड़ू खा लें।


अब मुझे बताइए कि चौथे स्तंभ की इस बदहाली के लिए क्या हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी क़ुसूरवार हैं? जी हां, हैं। लेकिन आधे। इसलिए कि उनकी रची व्यवस्था ने मीडिया को फुसलाने, ललचाने, धमकाने और डराने का खुला खेल खेला। लेकिन यह खेल उन्होंने घूंघट की ओट से नहीं, फर्रुखाबादी मीनार पर चढ़ कर खेला। आज वे शहंशाह हैं और चूंकि उन्हें शहंशाही उसूलों की पाकीज़गी से कोई लेना-देना नहीं है, सो, उन्हें यह हक़ है कि वे अपना खेल जैसे चाहें, खेलें। मगर क्या बाकी की आधी ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है, जो नरेंद्र भाई के इस मिनी-मैराथन में अपने चड्डी-बनियान पहन कर शामिल हो गए और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में विदूषक-योनि को प्राप्त हो गए? नरेंद्र भाई के पेट में भी इन लार-टपकाऊ होड़ियों-दौड़ियों की शक़्लें देख कर अकेले में ठहाका लगाते-लगाते बल पड़ जाते होंगे। मुझे लगता है कि कभी-कभार वे अपना माथा भी पीटते होंगे।


बचपन में अपने गांव में मैं ने कई स्वांग-टोलियों के आयोजन देखे हैं। अब तो लोगों को यह भी नहीं मालूम कि लोक-मनोरंजन की यह विधा थी कैसी? स्वांग के ज़रिए कथा-मंचन करने भांड आया करते थे। तब के भांड अगर सुन लें कि भर्त्सना-भाव से भरे लोग बहुत-से टीवी एंकर को आजकल ‘भांड’ संबोधित करने लगे हैं तो, सच मानिए, या तो वे ऐसा कहने वाले को गोली मार देंगे या ख़ुद को गोली मार लेंगे। हमारे जिन पत्रकारीय-महामनाओं ने ‘भांड’ जैसे आदरणीय शब्द तक को पतन-प्रतीक बना डाला है, उनका मुंह काला करने के लिए आप और कब तक इंतज़ार करेंगे? अवध जैसे राजदरबारों में शाही परिवारों का मनोरंजन करने वाले भांड भी ऐसे भांड तो नहीं थे कि जमूरागिरी करने पर उतारू हो जाएं। सच को घुमा-फिरा कर वे भी कह ही डालते थे।


दो महीने से दो तिहाई टीवी और मुद्रित मीडिया ‘संभावनाओं से भरे’ एक युवा फ़िल्म अभिनेता की आत्महत्या-हत्या की पेचीदगियां सुलझाने में लगा हुआ है। कोई अपनी जान दे दे, त्रासद है, दुःखद है। कोई किसी की जान ले ले, पाप है, गुनाह है। ऐसे किसी भी मामले में लीपापोती करने वालों का पर्दा ज़रूर फ़ाश हो। सच उजागर करने के ऐसे पावन कर्तव्यबोध से बंधे क़लमकारों और छोटे परदे के सूत्रधारों का हम चरणामृत-पान करें। मगर क्या हम यह न पूछें कि चुडैल-बेताल तलाश रहे ये मीडिया नायक-नायिकाएं हमें हमारी अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, सरहदी मुसीबतों और महामारी के बहाने हो रही डकैती के बारे में क्यों नहीं बताते? उनकी बेताब-पूंछ ऐसे मौक़ों पर किन टांगों के बीच दब जाती है? कोड़े बरसाती उनकी ज़ुबानें ऐसे में किस खोह में जा कर लपलपाने लगती हैं?


मीडिया के एक बड़े हिस्से की सलामी-शस्त्र मुद्रा ने चौथे स्तंभ की फुनगी पर लहराते ध्वज को उसके शव-वस्त्र में तब्दील कर दिया है। ऐसे में यह रोना क्या रोना कि हाय-हाय हम कहां जा रहे हैं? ऐसे में नरेंद्र भाई के नाम पर छाती पीटने से क्या फ़ायदा? ठुमके आप लगाएं और ठीकरा नरेंद्र भाई पर फोड़ें, यह क्या बात हुई? पिलपिली स्याही आग उगलने लगे, इसकी ठेकेदारी नरेंद्र भाई क्यों संभालें? छोटे परदे की लिजलिजी नृत्य-सभा को सार्थक विमर्श का मंच बनाने के यज्ञ का यजमान नरेंद्र भाई क्यों बनें? वे हिंदू नहीं, हिंदुत्व-आधारित राष्ट्र की स्थापना के लिए आए हैं। वे राम नहीं, राम मंदिर-मुखी राज्य की स्थापना के लिए आए हैं। वे अपना काम पूरे मन से कर रहे हैं। अगर आप अपना काम पूरे मन से न करें तो वे क्या करें?


सहचर-पूंजीवाद को नरेंद्र भाई ने नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है। राज्य के संसाधन अब राज्य के नहीं रहे। बचे-खुचे भी बंबई की अल्टामाउंट रोड पर बने एंटीलिया और अहमदाबाद के सरखेज-गांधी नगर हाइवे पर बने शांतिवन में तिरोहित किए जा रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन, बड़ा-छोटा सेवा क्षेत्र, दूरसंचार, विमानन जगत, जल-थल परिवहन, बंदरगाह, स्वास्थ्य-शिक्षा क्षेत्र, मीडिया और दूसरे संप्रेषण माध्यम, मनोरंजन जगत, पर्यटन व्यवसाय, देसी-परदेसी व्यापार, निर्माण, उद्योग, खेती-बाड़ी, थोक-खेरची कारोबार, सब दो आंगनों और उनसे जुड़े पांच-सात उप-प्रांगणों में सिमटते जा रहे हैं।


आपसे जो बनता हो, कर लें। आप जिस दास-वृत्ति का डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल अपनी नाभि में ले कर जन्मे हैं, उसका कोई नरेंद्र भाई क्या करे? आपकी नियति अगर मिमियाने की है तो नरेंद्र भाई उसे दहाड़ में कैसे बदलें? यह तो आप को ही करना होगा। आप करें तो आपका भला। न करें तो नरेंद्र भाई का भला। तो नरेंद्र भाई अपना भला सोचें कि आपका? जब आप ख़ुद ही अपने बारे में नहीं सोच रहे तो किसी को क्या पड़ी है कि आपके बारे में सोचे? आप अपने बारे में सोचने लगें तो भी कोई आपके बारे में यूं ही थोड़े ही सोचने लगेगा। इसलिए पहले तो आप समय रहते यह सोचें कि आप अपने बारे में सोचना शुरू कब करेंगे? तब तक के लिए फोकट का रोना-धोना बंद कीजिए। 

ये अंबानी और अदानी!




 हे भारत माता, कितनी अभागी हैं आप! कैसी शापित हैं आप, जो इतिहास में, मध्यकाल में लूट जाती रहीं तो 21वीं सदी में भी लूटी जा रही हैं! तब तरीका अलग था, तलवार के नादिर शाह तब थे जबकि अब बिजनेस है, क्रोनी पूंजीवाद है, चीन- अमेरिका के धूर्त व्यपारियों और उनके अंबानी-अंदानी जैसे एजेंटों का मायाजाल है, जिससे भारत मां के लालों को इतना भी नहीं दिखता, सोचने की इतनी भी बुद्धि नहीं है कि कोरोना काल में भारत मां कंगली हो रही हैं, सरकार कंगली है लेकिन अंबानी, अदानी यदि खरबपति हो रहे हैं तो ऐसा क्या बेच कर हो रहे होंगे? ऐसा कैसे कि भारत के लाल अपनी मातृभूमि के साथ चीन की छेड़छाड़ देख रहे हैं लेकिन उस चीन के साथ अंबानियों, अदानियों का धंधा क्योंकि है और खरबपति बनते जाने की भूख है तो धंधा सर्वापरी न कि भारत मां की आन के लिए चीन से लड़ाई के भामाशाह बन जाने का ऐलान।


उफ! भारत मां, मैं कैसे आपकी चिंता करूं? आपको अपनी आजादी की भी चिंता नहीं! चीन ने कितनी तरह की बेड़ियों से आपके हाथ-पांव जकड़े हैं। आपने दिन-रात आपका कीर्तन करने वाले उन हिंदुओं, उस राष्ट्रीय स्वंयसेवक को तनिक भी यह बुद्धि क्यों नहीं दी जो बूझ सके कि छह सालों में भारत कितना आर्थिक गुलाम हुआ? चीन और अमेरिका ने अंबानी, अदानी जैसे कथित देशभक्तों को एजेंट बना कर भारत को डिजिटल गुलाम बनाने का कैसा तानाबाना बना डाला है? कैसे ये चंद चेहरे भारत की सरकार, भारत की अदालतों, भारत के मीडिया और हिंदुओं की भोली बुद्धि को खरीद कर पूरी भारत माता को गुलाम बना डाल रहे हैं!  


हे भारत माता, आप कैसे समझदार नहीं हैं? आपने अपने को नादिर शाह से लुटते देखा है। ईस्ट इंडिया कंपनी-ब्रिटेन से लुटने का अनुभव लिया हुआ है। बावजूद इसके 138 करोड़ लोगों की बुद्धि में कुछ भी स्मरण नहीं है। हां, तीन सौ साल पहले अंग्रेज धंधा करने ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में ही आए थे। तब भी भारत के तत्कालीन अंबानी, अदानी याकि हिंदू सेठों यानी कोलकाता के जगत सेठ, बनारस के गोकुल दास और पटना, इलाहाबाद के सूद पर पैसा लेने देने वाले सेठों को अग्रेजों ने एजेंट बना कर, उन्हें मुनाफे का लालच दे कर, उनके जरिए तब के नासमझ राजे-रजवाड़ों को नजराना दे कर अपना जाल फैलाया था। अंत नतीजा था लंदन में सिर्फ 38 कर्मचारियों और पूरी दुनिया में मुश्किल से दो हजार लोगों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में भाड़े की दो लाख लोगों की सेना बना स्वदेशी, आजादी, स्वतंत्रता की तमाम मशालों, तमाम हिंदू रजवाड़ों, मराठा से ले कर सिक्ख राज सबको गुलाम बना डाला था।


हे भारत माता, 1947 में आपके हाथ में आए आजादी के तिरंगे झंडे पर क्यों अंबानियों-अदानियों का एकाधिकार बनने दे रही हैं? मुनाफे के लिए, धंधे के लिए जब व्यपारियों द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी, उससे पहले मुगलों को भारत बेचने के जब प्रामाणिक इतिहास हैं और इनके हाथों गुजरात में सोमनाथ मंदिर के भी बार-बार लूटने का इतिहास है तो चीन और अमेरिका की मायावी ताकत में ये अंबानी-अदानी क्या आपको बचा सकेंगें? क्या ये चीन पर आपको फैसला लेने दे रहे हैं? पिछले छह सालों में डिजिटल बनाए जाने के नाम पर कितनी लूटी हैं आप! पूरा भारत आज अमेरिकी कंपनियों के व्हाट्सअप, फेसबुक, गूगल आदि का गुलाम है। भारत की हर जरूरत, हर धंधा चीन पर आश्रित है। भारत के लोगों की ऐसी परनिर्भरता तो अंग्रेजों, मुगलों के वक्त में भी नहीं थी, जो अब सीधे भारत के लोगों को मुफ्त-सस्ते टुकड़े फेंक, उन्हें खरीद कर उससे गुलाम बनाने के बिजनेस प्लान बने है।


हां, भारत माता आपके भोले नरेंद्र मोदी ने अपनी सत्ता, अपनी आरती उतरवाने में डिजिटल माध्यम का तानाबाना वह बनाया, जिसके आइडिया में ध्यान ही नहीं रखा कि भारत माता के हिंदुओं का आजादी चाहिए। कंपीटिशन चाहिए। क्वालिटी चाहिए। खुली बुदधि की खुली कनेक्टिविटी चाहिए। नहीं सोचा कि भारत के 138 करोड़ लोगों के मालिक चंद अंबानी-अदानी हुए तो बीस-तीस साल बाद भारत दुनिया का वह आधुनिक गुलाम देश होगा, जिसके हर गुलाम का डाटा विदेशी कंपनी के सर्वरों में कैद होगा और अंबानी-अदानी उसे बेचते हुए मुनाफा कमाते मिलिंगे।


हां, भारत माता मोदीजी की मेहरबानी से मुकेश अंबानी आज दुनिया के नंबर चार खरबपति हैं और दस साल बाद नंबर एक होंगे क्योंकि तीन सालों में चालीस करोड़ भारतीयों को सस्ता फोन- कनेक्शन बांट कर उन्होंने अपने जैसे ग्राहक-गुलाम बनाए हैं व इस संख्या की ताकत पर कोरोना काल के 58 दिनों में अमेरिकी-विदेशी कंपनियों से यदि एक लाख साठ हजार करोड़ रुपए जुटा लिए हैं तो आगे जब भारत के 100 करोड़ लोग या सारे 138 करोड़ लोग मुकेश अंबानी के जियो से जीयेंगी तो फेसबुक, गूगल आदि मुकेश अंबानी को न केवल दुनिया का नंबर एक खरबपति बना देंगे, बल्कि अपने तमाम डिजिटल-ऑनलाइन रूपों में भारत माता को ऐसा गुलाम बनाएंगे, उन्हें इतनी तरह की बेड़ियों में जकड़ेंगे कि मानवता के पूरे इतिहास में वैसा पहले कभी नहीं हुआ होगा। 


हे, भारत माता, पिछले तीन सालों में नरेंद्र मोदी-मुकेश अंबानी ने आपको, आपके लालों का जीवन जियो के सस्ते मोहपाश में जैसे बांधा है उसकी मोनोपॉली 138 करोड़ लोगों की गुलामी की पहली बेड़ी है। क्या यह महज संयोग है जो तीन साल, सिर्फ तीन साल में मुकेश अंबानी ने फ्री-सस्तेपन की रस्सी में चालीस करोड़ लोगों को बांध उन्हें फेसबुक, गूगल आदि विदेशी कंपनियों के आगे भविष्य में गुलाम बकरों की तरह खाने के लिए रख दिया?


हे भारत माता आपको इन तीन सालों से राष्ट्र के खजाने में कितनी कमाई हुई? यदि नहीं हुई और उसकी बजाय यदि मुकेश अंबानी तीन साल में दुनिया के दसवें से चौथे नंबर के खरबपति हुए तो क्या वह लूट नहीं? तीन साल पहले मुकेश अंबानी ने जियो लांच किया तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक पेज के आशीर्वाद विज्ञापन के साथ था। फिर बैंकों से कर्ज, पैसे के इधर से उधर निवेश में लोगों को सस्ता-मुफ्त का लालच। लोग जियो के दास हुए और करोड़ों की भीड़ का तीन साल में ग्राहक आंकड़ा बना तो मुकेश अंबानी का एक दिन ख्याल बना अब विदेशियों के आगे प्रजेंटेशन हो, उन्हें बताओ कि आओ पैसा लगाओ और भारत के 138 करोड़ लोगों पर एकाधिकार के साथ राज करने का मौका पाओ, मुनाफा कमाओ।


हे भारत माता अंबानी ने भारत के लोगों, भारत के राजा नरेंद्र मोदी और भारत को बेच कर, उन्हें अपनी जेब का बाशिंदा बता कर ही तो फेसबुक के जुकरबर्ग और गूगल के सुंदर पिचाई को ललचाया। विदेशी जानते ही हैं कि नरेंद्र मोदी के कंधे पर मुकेश अंबानी हाथ रखे होते हैं और फेसबुक के दफ्तर में जब नरेंद्र मोदी के आंसू आते हैं तो भाव विह्वल जुकरबर्ग मुकेश अंबानी को भी याद करने लगते हैं। आखि्र दुनिया में क्रोनी पूंजीवाद का कोई नंबर एक खरबपति है तो वह मुकेश अंबानी ही हैं। फेसबुक ने अरसे से भारत में धंधे के लिए इंटरनेट करियर बन मोनोपॉली की सोची हुई थी ट्राई ने वैसा नहीं होने दिया तो अंबानी से रास्ता अपने आप है। तभी जियो में जुकरबर्ग ने दस-बीस साल बाद 150 करोड़ लोगों का मालिक होने की दूरदृष्टि में तुरंत सीधे एकमु्श्त 43,573 करोड़ रुपया अंबानी के सपने के लिए दे दिया। फिर क्या था, जिन पर चाहा गया डोरा डाला गया, उनसे भी पैसा प्राप्त। अंत में नरेंद्र मोदी और गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई में वीडियो कांफ्रेंस के बाद सुनने को मिली कि गूगल कंपनी भी कोई 33,737 करोड़ रुपए निवेश करेगी।


हे भारत माता, जियो लांच पर एक पेज के विज्ञापन से आपके राष्ट्र सेवक नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद से लेकर प्रधानमंत्री व गूगल प्रमुख की बातचीत में एक और एक ग्यारह इतने हैं कि दुनिया हैरान है कि कैसी हैं भारत माता! बताएं भारत माता, अमेरिकी कंपनियों की ऐसी कृपा अंबानी पर क्यों हुई? दुनिया कोरोना में ठहरी हुई है, कोई फैसले नहीं ले रहा है लेकिन 58 दिनों में अंबानी ने भारत के शेयर बाजार के इतिहास का सबसे बड़ा 53 हजार करोड़ रुपए का राइट्स इश्यू बेच डाला तो जियो प्लेटफार्म के 24.70 प्रतिशत शेयर दे कर विदेशियों से 1,15,693 करोड़ रुपए का कुबेरी खजाना भी पा लिया तो क्या ईस्ट इंडिया कंपनी का इतिहास दोहराने वाला नहीं है? भारत माता क्या लगता नहीं कि फिर विदेशियों, विदेशियों के एजेंटों से इतिहास दोहरागा। क्या एकाधिकार, मोनोपॉली गुलामी नहीं होती? क्या 138 करोड़ लोगों को वापिस दर्जन भर सेठों की लूट से जीना होगा? लोगों को कितनी तरह की बेड़ियों में लाचार, बेबस और अपने आपको लुटवाने वाला बनवाना है? हे, भारत माता कुछ तो अपने कृपापात्रों को सद्बुधि दीजिए!

मानों भारत खरीद लिया!


 भारत को खरीदना ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के लिए आसान था तो चीन, अमेरिका के मौजूदा व्यापारियों और भारत के अपने व्यापारियों के लिए भी इसलिए आसान है और रहेगा क्योंकि भारत के हम लोगों का चेतन, अवचेतन जहां गुलाम है वहीं भूखा है और चांदी की जूती को ललचाता है। आजाद भारत के इतिहास में धीरूभाई अंबानी ने इसे बखूबी समझा और कोटा-परमिट लाइसेंस राज में चांदी की जूती मारो व लाइसेंस लो का फार्मूला अपना कर दिल्ली की सत्ता को खूब नचाया। अंबानी के चांदी की जूती के अहंकार में ही भारत के दुर्लभ बहादुर उद्यमियों में एक रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सप्रेस में अंबानी के खिलाफ जम कर कैंपेन चलाया था। मैं उन दिनों रिपोर्टिंग में एक्टिव था, और धीरूभाई को पहला आयात लाइसेंस देने वाले 1969 से पहले के वाणिज्य उपमंत्री मोहम्मद शफी कुरेशी से अंबानी को समझने की गपशप की थी। अपन बालू, टोनी सबके जानकार हैं। कुरैशी के बाद आजाद भारत में क्रोनी पूंजीवाद के अपने हाथों प्रतिमान बनाने वाले प्रणब मुखर्जी की मेहरबानी ने धीरूभाई अंबानी को क्या बनाया और चांदी की जूतियों का सर्वत्र कैसा उपयोग हुआ इसकी वह दास्तां है, जिस पर लिखने, जिसे जांचने, समझने की हिम्मत 138 करोड़ लोगों में से एक व्यक्ति, एक संस्था, एक एजेंसी, एक प्रधानमंत्री की नहीं है क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी में जीया हुआ भारत है।


तो अंबानी ने 1967 से भारत खरीदा हुआ है। एक वीपी सिंह के समय के छोटे कालखंड के अपवाद को छोड़ें तो अंबानी के भारत खरीदे हुए होने की अवधि पचास साल पार हो गई है। हर धंधा मोनोपॉली की स्थिति बना कर, सरकार, सरकारी कंपनियों को ही मार्केटिंग करके, सरकार की कृपा से हुआ है। नरेंद्र मोदी के लिए अंबानी तभी से रोल मॉडल है जब गुजरात में मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली थी। राजनीति में पैसा कैसे काम करता है और उद्योगपति बना कर राजनीति करना कैसे  आसान होता है इस बेसिक समझ के साथ बतौर मुख्यमंत्री गुजरात में नरेंद्र मोदी ने जो अरबपति बनाए तो दिल्ली में सत्ता के बाद तो अंबानी हो या अदानी सभी के अच्छे दिन आने ही थे। अदानी देश-विदेश सब तरफ छाए हुए हैं। तमाम बंदरगाह उनके हो गए हैं, वे अब तमाम एयरपोर्ट ले रहे हैं। पॉवर प्लांट लेने और पॉवर सप्लाई में भी दिन दूनी रात चौगुनी छलांग।


सो, अंबानी और अदानी भारत में जिधर हाथ रख देंगे वह उनका हो जाएगा। एक दिन अदानी ने जाना कि मुंबई के भव्य एयरपोर्ट की मालिकाना कंपनी जीवीके मुश्किल में है। कोराना काल ने कड़की बना दी है और वह विदेशी निवेशकों को शेयर देने के लिए बात कर रही है तो मन हुआ एयरपोर्ट अपने को ले लेना चाहिए। पर जीवीके की दूसरी कंपनियों से बात आगे बढ़ चुकी थी वह अदानी के लिए राजी नहीं हुई तो सीबीआई व ईडी छापा मारने जीवीके के ऑफिस जा पहुंचे। रेड्डी को नानी याद दिला दी गई। नतीजतन अब वह अदानी के यहां शरणागत हो कर उन्हे एयरपोर्ट बेच रहा है।


अंबानी, अदानी को बना-बनाया, पका-पकाया माल, बाजार चाहिए। फोन, इंटरनेट, कम्युनिकेशन, आईटी में अपनी बुद्धि से पहले धंधे की कल्पना नहीं की। जब सरकार के लाइसेंस ले कर पुरुषार्थ दिखा मित्तल, टाटा, बिड़ला आदि (तब दर्जनों प्लेयर थे) ने बाजार बनाया तो अंबानी ने अचानक सीडीएम तकनीक के हवाले अपनी झुग्गी सस्ते ग्राहकों के लिए डाली और अनिल अंबानी ने खाया, लूटा तो तीन साल पहले मुकेश अंबानी ने 4जी के हवाले डाटा खेल चालू किया। सरकार और अदालत से ऐसे फैसले करवाए कि कंपीटिशन की तमाम कंपनियां एक-एक कर खत्म हों।  


धंधे के नाते जो बाजार गारंटीशुदा हो, उसमें बने बनाए को खरीदना या उसमें से कंपीटिटर को बाजार से आउट करा देने की योजना बना कर एकाधिकार से भारत के लोगों से, सरकार से मुनाफा कमाना अंबानी-अदानी का कुल लब्बोलुआब है। यह भारत के क्रोनी पूंजीवाद का वह रूप है, जो रूस में भी नहीं है। रूस और चीन में यों सरकार की मेहरबानी में सब होता है मगर नेता के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी की निगरानी होगी। दूसरे वहां के अंबानी-अदानी बने बनाए एयरपोर्ट, पोर्ट लेने या फेसबुक, गूगल, अमेजान के एजेंट बन कर उनको देश में घुसा कर जनता को गुलाम बनवाने वाला धंधा नहीं करते हैं। चीन ने, चीन के उद्यमियों ने अपना गूगल, अपना फेसबुक बनाया हुआ है। डिजिटल चीन सचमुच खुद चीनी कंपनियों से बना है। इसी से वहां इतनी भारी टेलीकॉम कंपनियां विकसित हुईं कि चीन न केवल 5जी की अपनी तकनीक लिए हुए है, बल्कि गूगल, फेसबुक जैसी अमेरिकी कंपनियों को उसने आउट किया हुआ है। सबसे बड़ी बात कि चीन ने देश में लाखों कंपनियों के फूल खिलाए हुए हैं वैसा कतई नहीं है जैसे भारत में अबांनी-अदानी जैसी चंद कंपनियों में भारत के 138 करोड़ लोगों को बंधक बनाया जा रहा हैं।

काँग्रेस में फिर ‘‘आजादी की अगस्त क्राँति’’…!



 इतिहास के दोहराने की तर्ज पर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल और मुल्क को अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाली कांग्रेस में ‘आजादी की अगस्त क्रांति’ शुरू हो गई है, कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई आज से अठहत्तर साल पहले अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो’ क्राँति के साथ शुरू की थी, जिसके फलस्वरूप पांच साल बाद पन्द्रह अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजी शासन से आजाद हो गया था और अब उसी कांग्रेस के बुजुर्गो ने अब अपनी पार्टी को आजादी दिलाने के लिये ‘गाँधी परिवार’ के खिलाफ ‘अगस्त क्राँति’ की शुरूआत की है और गांधी परिवार की मुखिया सोनिया गांधी को सम्मान के साथ पार्टी से मुक्ति का ‘समन’ थमा दिया है, अर्थात् पार्टी के बुजुर्गों को पार्टी को नया जन्म देने की ‘प्रसवपीड़ी’ शुरू हो गई है, जिसके संकेत पार्टी के दो दर्जन बुजुर्गों ने सोनिया जी को पत्र थमाकर दे दिए है।  


इन बुजुर्गों की मुख्य पीड़ा यह है कि गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस का धीरे-धीरे अद्यौपतन हो रहा है, इसलिए पार्टी को कोई ऐसा ‘गैर-गाँधी’ नेतृत्व चाहिए, जो इस बुजुर्ग पार्टी की जवानी लौटा दे। इसी गरज से दो दर्जन बुजुर्ग नेताओं ने सोनिया को एक पत्र लिखा जो उन्हें ‘‘अस्पताल के बिस्तर’’ पर मिला। इस पत्र से कांग्रेस के अघोषित युवराज राहुल जी नाराज हो गए और उन्होंने चिट्ठी लिखने वाले पार्टी के निष्ठावान बुजुर्ग नेताओं पर भाजपा के ईशारे पर उक्त पत्र लिखने का आरोप लगा दिया अर्थात् ‘राजनीतिक तीखी गाली’ उन नेताओं पर चस्पा कर दी। पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक मंे यद्यपि इस मामले को ठण्डा करने का भरसक प्रयास किया गया, किंतु लगता है कि आग ठण्डी अवश्य पड़ गई है, किंतु उसकी चिंगारी अभी भी जीवित है, जो किसी भी दिन पुनः विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकती है।


पार्टी के जिन बुजुर्ग नेताओं ने इस ‘अगस्त क्रांति’ की शुरूआत की, उनमें सबसे वरिष्ठ कपिल सिब्बल, गुलामन बी आजाद, अनिल शास्त्री, अहमद पटेल, आनंद शर्मा तथा कई राज्यों के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री है। ये नेता पार्टी के पुर्नजन्म के खातिर अपने मौजूदा पद तक छोड़ने को तैयार है, जैसे कपिल सिब्बल ने कहा कि उनके लिए पार्टी का पद नहीं, देश व पार्टी अहम् है। सोनिया गांधी के सबसे निकट माने जाने वाले अहमद पटेल ने तो पार्टी को गांधी पविार से मुक्त कराने की ही मांग रख दी और गैर-गांधी को पार्टी नेतृत्व सौंपने की वकालत कर दी।


जबकि पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सुपुत्र अनिल शास्त्री का कहना है कि गांधी परिवार को सबको साथ लेकर और सबकी राय लेकर पार्टी चलाना चाहिए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री वीरप्पा मोईली ने भी कहा है कि ‘‘मृत कांग्रेस में प्राणों के संचार के लिए नेतृत्व में बदलाव जरूरी हो गया है। यदि यही स्थिति रही तो कुछ ही वर्षों बाद इस पार्टी का नाम लेने वाला भी कोई शेष नही बचेगा।’’ ऐसे ही विचार पार्टी के कई वरिष्ठ सांसदों ने भी व्यक्त किये है।


अब यहां सबसे अहम् सवाल यह है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को किन स्थितियों में पार्टी नेतृत्व के प्रति बगावत के लिए मजबूर किया? तो सच्चाई यह है कि वे स्थितियाँ किसी से भी छुपी नहीं है। इन वरिष्ठ नेताओं को अपने वे दिन याद है जब उनकी युवावस्था के समय तत्कालीन पार्टी नेतृत्व नेहरू-इंदिरा ने इन्हें आगे बढ़ने का मौका दिया था, जिसके कारण वे पार्टी के लिए कुछ कर पाए, आज इनकी तड़प यह है कि आज युवा नेतृत्व को कोई तवज्जोह नही दी जा रही है, पार्टी का युवा वर्ग घुटन भरी जिन्दगी जी रहा है और मजबूरी में उसे पार्टी छोड़कर उन पार्टियों की शरण में जाना पड़ रहा है,


जिसे वे अपनी किशोरावस्था से कोसते आ रहे है, पार्टी के हर युवा नेता में ज्योतिरादित्य या सचिन पायलट जैसा साहस तो है नहीं तो उसे पार्टी में ही रहकर विद्रोह की राह पकड़नी पड़ रही है, इस तरह पार्टी नेतृत्व की अनदेखी के कारण पार्टी की नींव कमजोर होती जा रही है, इसके अलावा समूची पार्टी ने पार्टी नेतृत्व की निष्क्रीयता के कारण बैचेनी व्याप्त हो रही है, एक ओर सत्तारूढ़ भाजपा मोदी के नेतृत्व में मजबूत होती जा रही है, वही दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व ही मोदी जी के ‘कांग्रेस विहीन भारत’ के सपने को साकार करने में जुटा है, अब ऐसे में वरिष्ठ कांग्रेसी चुप कैसे रह सकते है? यह कथित विद्रोह इसी का प्रतिफल है, अब यदि नेतृत्व द्वारा इन दो दर्जन वरिष्ठ बागी नेताओं की उपेक्षा ही गई तो पार्टी का ‘भट्टा’ पूरी तरह बैठ जाएगा।

सोमवार, 24 अगस्त 2020

आरोग्य सेतु अब किस काम का?

 


भारत सरकार ने आरोग्य सेतु एप्प को कोरोना वायरस से लड़ने के लिए रामबाण नुस्खे के तौर पर प्रचारित किया था। बड़े अभिनेताओं ने इसके लिए विज्ञापन किया। कई जगह इसे अनिवार्य करके जबरदस्ती लोगों से डाउनलोड कराया गया। हालांकि यह अलग बात है कि इसका कोई फायदा होने की खबर अभी तक नहीं आई है। सरकार की ओर से भी किसी प्रेस कांफ्रेंस में यह दावा नहीं किया जाता है कि आरोग्य सेतु एप्प ने कितने लोगों को संक्रमित होने से बचाया। आखिर बड़े सितारों से लेकर केंद्र सरकार के बड़े बड़े केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यों के विधायक-मंत्री, सांसद आदि संक्रमित हुए हैं। सरकारी विभागों में तो कई जगह अनिवार्य रूप से इसे डाउनलोड कराया गया था फिर भी केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मंत्री और मुख्यमंत्री कैसे संक्रमित हो गए? क्या उनके कर्मचारियों और अधिकारियों के फोन में यह एप्प डाउनलोड नहीं हुआ था? अगर हुआ था तो जब ये लोग किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए तो इस एप्प ने किसी को आगाह क्यों नहीं किया? इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिलना है, बस यह आंकड़ा पेश कर दिया जाएगा कि 15 करोड़ लोगों ने इसे डाउनलोड किया है और यह दुनिया में सबसे ज्यादा डाउनलोड होने वाले एप्प है।


अब केंद्र सरकार ने इसके एक नए फीचर का प्रचार शुरू किया है। सरकार को भी पता है कि कोरोना संक्रमितों का पता लगाने के मकसद से जिस कांटैक्ट ट्रेसिंग का काम इस एप्प को करना था वह इससे नहीं हुआ है। सो, अब ‘ओपन एपीआई सर्विस’ नाम के नए फीचर का प्रचार किया जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि इस फीचर की मदद से कंपनियां अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य की जानकारी रख सकती हैं। कहा गया है कि जिस कंपनी में 50 या उससे ज्यादा कर्मचारी हैं वह अपने यहां इस फीचर का इस्तेमाल कर सकेगा।  


इसका मतलब है कि 50 से ज्यादा कर्मचारियों वाली कंपनी में हर कर्मचारी के फोन में आरोग्य सेतु एप्प डाउनलोड कराया जाएगा, जिसमें ‘ओपन एपीआई सर्विस’ का फीचर होगा। इसकी मदद से कंपनियां अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य पर नजर रख सकेंगी। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस एप्प के एक फीचर से कर्मचारी के स्वास्थ्य पर नजर ऱखी जाएगी उस एप्प से कर्मचारी पर पूरी तरह से भी नजर रखी जा सकती है। कहा जा रहा है कि यह फीचर कर्मचारी की सहमति से एक्टिव किया जाएगा। पर यह सिर्फ कहने की बात है। निजी कंपनियों के लिए इसे अनिवार्य कराना एक मिनट का काम होगा। कोई भी कर्मचारी इससे इनकार नहीं कर पाएगा। कंपनियां कोरोना या किसी दूसरी बीमारी के खतरे के बहाने इस एप्प के जरिए कर्मचारियों पर निगरानी रखना शुरू कर सकती हैं।


सरकार कह रही है कि कर्मचारी की सहमति से इसका उपयोग होगा और साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि कंपनी सिर्फ आरोग्य सेतु एप्प के यूजर का नाम और उसका स्टैट्स ही देख पाएंगे। इससे यूजर का दूसरा गोपनीय डाटा लीक नहीं हो सकेगा। पर यह सब कहने की बातें हैं। एक बार डाटा डिजिटल हो जाने के बाद उसकी सुरक्षा की गारंटी कोई नहीं दे सकता है और उसी तरह स्वास्थ्य पर निगरानी रखना शुरू करने के बाद बाकी गतिविधियों की निगरानी नहीं किए जाने की गारंटी भी कोई नहीं कर सकता है। इसलिए कोरोना के बाद की दुनिया के नए भारत में रहने के लिए लोगों को तैयार हो जाना चाहिए।


इसका कारण यह है कि निगरानी के लिए सिर्फ आरोग्य सेतु एप्प या उसका ‘ओपन एपीआई सर्विस’ फीचर ही नहीं है, बल्कि स्किन बॉडी सेंसर टैटू भी आने वाला है। इसके बारे में दो दिन पहले ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने खुद ट्विट किया था। जिस तरह से बच्चे अपने शरीर पर तरह-तरह के कार्टून कैरेक्टर के टैटू लगाते हैं उसी तरह से यह लगाने या पहनने वाला टैटू है, जिसमें सेंसर लगा होगा। यह देखने में सुंदर भी लगेगा, जिससे लोगों को इसे पहनने में कोई परेशानी नहीं होगी और इसकी मदद से उनका हेल्थ डाटा आसानी से हासिल किया जा सकेगा। इसके लिए शरीर का तापमान, सांस लेने की दर, नाड़ी की गति आदि का आसानी से पता चल जाएगा। स्मार्ट वॉच या स्मार्ट फोन के हेल्थ एप्प जैसे इन दिनों लोगों की सेहत की सारी जानकारी जुटा रहे हैं उसी तरह यह टैटू भी काम करेगा। फर्क यह है कि इसकी कीमत कम होगी। पर इसकी मदद से लोगों की सारी स्वास्थ्य जानकारी एक निर्धारित सर्वर में पहुंचती रहेगी।


यह आम लोगों की निगरानी का एक नया स्तर है, जिसे कोराना वायरस की महामारी के बहाने लागू किया जा रहा है। इस खेल में दुनिया की बड़ी सारी कंपनियां और कई देश भी लगे हुए हैं। शुरुआत में इसे हेल्थ से जोड़ा जा रहा है पर तय मानें कि आगे चल कर यह लोगों की हेल्थ आईडी कार्ड की तरह काम करेगा और सर्विलांस के काम में मददगार साबित होगा।


ध्यान रहे भारत की सरकार पहले ही नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन के तहत हर व्यक्ति का हेल्थआईडी कार्ड बनाने की घोषणा कर चुकी है। हेल्थआईडी कार्ड की एक सीमा है, उसके नंबर के जरिए लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी या दूसरी जानकारी हासिल की जा सकती है। पर उसमें वहीं जानकारी होगी, जो कोई व्यक्ति स्वेच्छा से देगा। पर ई टैटू की टेक्नोलॉजी के जरिए रियल टाइम में किसी व्यक्ति की सेहत का डाटा लिया जा सकता है। जिसे अंडर द स्किन सर्विलांस बोलते हैं वह इसके जरिए संभव है। धीरे धीरे भारत और दुनिया की सरकारें इस दिशा में बढ़ रही हैं।




शनिवार, 22 अगस्त 2020

शीर्षक-प्रबंधन की खोह का पतनाला


 पिछले सवा छह साल से प्रचार-माध्यमों के शीर्षक-प्रबंधन में दिन-रात लगी रहने वाली नरेंद्र भाई मोदी की सरकार को, मालूम नहीं, यह मालूम है कि नहीं, कि इन विलासी-शीर्षकों की खोह में मौजूद ज़मीनी-पतनाला किस क़दर सड़ांध मारने लगा है। महामारी के विषाणु-प्रबंधन में बुरी तरह नाकाम रही हमारी ‘हरदिल अजीज़’ हुक़ूमत ने छह महीने में तो जो नाश किया, सो किया ही; भारत का भट्ठा तो उसके पहले के तीन साल में ही वह तक़रीबन पूरी तरह बैठा चुकी थी। 


नरेंद्र भाई का वश नहीं चला, वरना वे अपनी कूद-फांद से तबाह हुई देश की अर्थव्यवस्था की पूरी तोहमत विषाणु-काल पर मढ़ देते। मगर शीर्षक-प्रबंधन की उनकी कलाबाज़ियां इसलिए ढेर हो गईं कि विषाणु-कुप्रंबधन से उपजे हालात के बादल फट कर हर घर को, हर दर को, हर तन को, हर मन को, ऐसे थपेड़े देते रहे कि सब की पीठें सूज गईं। जब हरेक को नंगी आंखों से सब सामने दिखाई दे रहा था तो नरेंद्र भाई के लारे-लप्पों पर कौन यक़ीन करता? शुरुआत में उद्धारक की मुद्रा में नमूदार हुए हमारे प्रधानमंत्री जल्दी ही समझ गए कि पांसा उलटा पड़ गया है, सो, वे ज़िम्मेदारी राज्यों के हवाले कर विषाणु-प्रबंधन का अपना झोला ले चलते बने। तब तक विषाणु सब-कुछ लील चुका था।


मंगलवार, 8 नवंबर 2016 को भारत की कुंडली में जबरन थोपे गए बदहाली-योग ने पौने चार साल में मुल्क़ के मानस को निचोड़ कर रख दिया है। खरबपति और खरबपति हुए हैं, मगर ग़रीब अपने प्राण-पखेरू किसी तरह बचाए बैठा है, निम्न मध्यमवर्ग बेतरह कराह रहा है, मध्यम वर्ग चीं बोल चुका है और उच्च मध्यमवर्ग भी फटी बनियान के ऊपर चमकीली कमीज़ पहने भटक रहा है। खोखले ज़िस्मों की इस बारात को जो भारत का चमचमाता भविष्य बता रहे हैं, आपको उनकी बुद्धि पर तरस नहीं आता?


नोट-बंदी के वक़्त देश में पौने पांच करोड़ लोग बेरोज़गार थे। आज 14 करोड़ हैं। 50 करोड़ के श्रम-बल वाले हमारे देश में सिर्फ़ 5 करोड़ लोग संगठित क्षेत्र की नौकरियों में हैं। बाकी 45 करोड़ अपने खोमचों, ठेलों और टपरों के भरोसे कमा-खा रहे हैं। हर चार में से कम-से-कम एक व्यक्ति का रोज़गार छिन चुका है। बाकी तीन पहले से काफी कम पारिश्रमिक के बदले ख़ुद को बा-रोज़गार बनाए हुए हैं।


सरकार के आंकड़ों को ही सही मान लें तो भी इस साल अप्रैल-मई के महीने में बेरोजगारी की दर का आंकड़ा 24 प्रतिशत को छू गया था। ज़मीनी सच्चाई जानने वाले कहते हैं कि यह दर 35 प्रतिशत से कम नहीं थी। सरकार कहती है कि बेरोज़गारी-दर जुलाई में घट कर 11 प्रतिशत रह गई है। यानी मई से तक़रीबन आधी। क्या अपने आसपास देख कर आपको ऐसा लग रहा है?


जो सरकार हमें यह बता रही है, उसी सरकार के जुलाई के आंकड़े हमें बताते हैं कि बेरोज़गारी की सबसे ज़्यादा दर हरियाणा में है-साढ़े 24 प्रतिशत। दिल्ली में यह दर साढ़े 20 प्रतिशत है, हिमाचल प्रदेश में साढ़े 18 प्रतिशत, गोआ में 17 प्रतिशत, उत्तराखं डमें साढ़े 12 प्रतिशत और बिहार में सवा 12 प्रतिशत। सरकार का कहना है कि गुजरात और उड़ीसा में बेरोज़गारी की दर जुलाई के महीने में सिर्फ़ दो-दो प्रतिशत रही है। कहीं बहुत है और कहीं बहुत कम, सो, सरकार के हिसाब से बेरोज़गारी-दर तेज़ी से घटी है और अच्छे दिन अब बस आने ही वाले हैं।


विषाणु-काल की उकताहट कहीं जन-अवसाद में न बदल जाए, इसलिए नरेंद्र भाई ने गलवान घाटी का छक्का लगा कर भारत के मीडिया-जगत को हल्ला-बोल शीर्षक बख्शे। बहुतों की भुजाएं फड़कीं, कइयों के नथुने फड़के और अनुचरों के मायूस-मन फिर बजरंग-मय हुए। चीन के इंटरनेट-अनुप्रयोगों पर पाबंदी लगा दी गई। चीनी कंपनियों को दिए गए ठेके रद्द होने लगे। चीनी सामान को ठोकर मार आत्म-निर्भर भारत की स्थापना के नरेंद्र भाई के संकल्प को पूरा करने में देश जुट गया। विषाणु-त्राहिमाम से ध्यान बंटा तो लोगों को उससे कुछ राहत-सी मिली लगने लगी।


मैं भी चीनी बैसाखियों के बिना अपने पैरों पर खड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था के ख़्वाब बुनने लगा। लेकिन एक ज़माने में आत्म-निर्भर, और अब पूरी तरह नरेंद्र भाई पर निर्भर, भारतीय रिज़र्व बैंक के ताज़ा आंकड़ों ने मेरा दिल चूर-चूर कर दिया। एकदम अमृतसरी चूर-चूर नान की तरह। ये आंकड़े कहते हैं कि हम चीन से हर महीने औसतन साढ़े तीन खरब रुपए का सामान आयात किया करते थे। पिछले साल सितंबर में भारत ने साढ़े चार खरब रुपए से ज़्यादा का माल चीन से मंगाया था। इस साल मार्च में 2 खरब 14 करोड़ रुपए का ही आयात भारत ने किया और अप्रैल में भी सिर्फ़ 2 खरब 31 करोड़ रुपए का आयात हुआ। मगर मई में आयात बढ़ कर फिर 3 खरब 53 करोड़ रुपए का हो गया है। दूसरी तरफ़, अमेरिका से होने वाला औसतन सवा दो खरब रुपए महीने का आयात मई में गिर कर डेढ़ खरब रुपए का रह गया है।


सच्चाई यह है कि भारत का इलेक्ट्रॉनिक और दवा उद्योग तक़रीबन पूरी तरह चीन पर आश्रित है और यह निर्भरता रातों-रात ख़त्म कर देने का चमत्कार दिखाना नरेंद्र भाई मोदी जैसे पराकमी प्रधानमंत्री के लिए भी संभव नहीं है। फिर न्यूक्लियर मशीनरी जैसे क्षेत्रों में भी चीन पर भारत की निर्भरता जिस तरह की हो गई है, उसमें एकदम रद्दोबदल कर देना मुमक़िन नहीं है। इसलिए ठोकने को हमारी सरकार कितनी ही ताल ठोकती रहे, चीन को भारत की अर्थवयवस्था से पूरी तरह बाहर खदेड़ने के लिए जिस सुनियोजित और दीर्घकालीन नीति की ज़रूरत है, उसके तो अभी अंकुर भी नहीं फूटे हैं। गिली-गिली गप्पा का उद्घोष करते रहने से तो चीनी-ड्रेगन मंच से गायब होने से रहा!


जिस देश में माल की आवाजाही के लिए बने बंदरगाहों के कारोबार का एक तिहाई हिस्सा अडानी-समूह के निजी कब्ज़े में हो और जिस देश में बाहर से सामान आने और बाहर सामान जाने का तक़रीबन आधा व्यवसाय यहां-वहां पसरे कोई दो सौ लघु-बंदरगाहों के जरिए होता हो, उस देश में आयात-निर्यात के बहीखातों के पन्नों पर आप कितना भरोसा करेंगे? गुजरात में सब से ज़्यादा छोटे बंदरगाह हैं और पूरे देश में जितने लघु-बंदरगाह हैं, उनमें से ज़्यादातर अडानी-समूह की डोरियों से संचालित होते हैं। अडानी गुजरात के मुंद्रा, दहेज, हजीरा; गोआ के मोर्मुगांव; केरल के विंझिजाम; तमिलनाडु के कट्टुपल्ली और उड़ीसा के धमरा जैसे बंदरगाहों के मालिक हैं। वे गुजरात में टूना, तमिलनाडु में एन्नोर और आंध्र प्रदेश में वाइजैग टर्मिनल के मालिक भी हैं। इन सबसे नत्थी लघु-बंदरगाहों के पसरे पैर देख कर आपकी आंखें खुली-की-खुली रह जाएंगी।


तीनों लोक में से दो के साम्राज्य में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर लेने के बाद अब अडानी-समूह विमानतलों के ज़रिए आकाश-लोक में भी अपनी बिसात बिछाने की तैयारियां कर चुका है। लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर, मंगलूरु, तिरुअनंतपुरम और गुवाहाटी के हवाई अड्डों के निजीकरण को नरेंद्र भाई ने मंजूरी दे दी है और वे अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के अलावा इंदौर, रायपुर, भुवनेश्वर, अमृतसर और त्रिची के हवाई अड्डों को भी निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रहे हैं। अगला आम-चुनाव आते-आते देश के सवा सौ में से तक़रीबन सभी प्रमुख विमानतल धन्ना-सेठ हड़प चुके होंगे।






शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

राजस्‍थान में IAS से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के वेतन में फिर हो सकती है 1 दिन की कटौती!

 


जयपुर। कोरोना  के प्रकोप के कारण राजस्थान में एक बार फिर आईएएस से लेकर चतुर्थ श्रेणी तक के कर्मचारियों का 1 दिन का वेतन कट  सकता है। कोरोना के प्रकोप रहने तक हर महीने एक दिन के वेतन कटौती हो सकती है। मुख्य सचिव राजीव स्वरूप के साथ कर्मचारी महासंघ  की हुई बैठक में ये संकेत मिले हैं। कोरोना के कारण राज्य सरकार पूर्व में भी कर्मचारियों का वेतन काट चुकी है। काटे गए वेतन के अंश को सीएम रिलीफ फंड में जमा कराया गया था।


एसीएस वित्त निरंजन आर्य ने दिए संकेत


वित्त विभाग के अतिरिक्त मुख़्य सचिव निरंजन आर्य ने गुरुवार को आयोजित बैठक में कर्मचारी संघ के नेताओं को कोरोना संकट के हालात बारे में बताया। आर्य ने कहा कि कोरोना संकट के चलते सरकार को कई तरह की व्यवस्था करनी पड़ी है। जबकि सरकार की माली हालत पहले ही खराब है। ऐसे में सरकारी कर्मचारियों को यदि वेतन कम मिले तो इसमें उनका सहयोग जरूरी है।


कर्मचारी नेताओं ने जताई सहमति


कर्मचारी नेता गजेंद्र सिंह राठौड़ ने कहा कि राज्य सरकार कोरोना के कारण सभी कर्मचारियों का 1 दिन का वेतन काटना चाहती है तो सभी कर्मचारी जनहित में अपना वेतन कटवाने के लिए तैयार हैं। संकट की घड़ी में कर्मचारी संगठन राज्य सरकार के साथ हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पांचवीं अनुसूची के तहत जो वेतन कटौती हो रही है, उसे वापस लिया जाए। नेताओं ने कहा कि इसे लागू करने के बाद यदि कटौती जैसा कदम उठाया जाता है तो कर्मचारी संघ सरकार का सहयोग कर सकते हैं।



बिहार में महाराष्ट्र दोहराया जाएगा!

 


बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन यानी भाजपा, जदयू और लोजपा के कई नेता मान रहे हैं कि बिहार में महाराष्ट्र दोहराया जाएगा, लेकिन महाराष्ट्र का कौन सा मॉडल दोहराया जाएगा, इसे लेकर संशय है। महाराष्ट्र के दो मॉडल हैं, पहला 2014 का और दूसरा 2019 का। इनमें से कौन सा मॉडल बिहार में दोहराया जाएगा, इसे लेकर अटकलें चल रही हैं और इसके बीच सत्तारूढ़ गठबंधन की पार्टियां एक-दूसरे को शह मात देने का खेल कर रही हैं। महाराष्ट्र का 2014 का मॉडल यह है कि चुनाव से ऐन पहले टिकट बंटवारे को लेकर सहयोगी से झगड़ा कर लो और अलग होकर चुनाव लड़ो, सबसे बड़ी पार्टी बनो और धुर प्रतिद्वंद्वी की मदद लेकर सरकार बना लो। भाजपा ने 2014 में टिकट बंटवारे पर शिव सेना से झगड़ा किया था और अलग होकर लड़ी थी। नतीजों में वह सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी और एनसीपी के समर्थन से सरकार बनाई। हालांकि बाद में भाजपा ने शिव सेना से वापस तालमेल कर लिया।


महाराष्ट्र का दूसरा मॉडल 2019 का है, जिसे शिव सेना ने तैयार किया। चुनाव से पहले शिव सेना ने भाजपा को पूरे भरोसे में रखा कि दोनों साथ हैं और देवेंद्र फड़नवीस मुख्यमंत्री होंगे। एकाध मौके पर कुछ लोगों ने जरूर कहा कि शिव सैनिक मुख्यमंत्री बनेगा पर वह प्रचार में कही गई बात थी। सो, शिव सेना ने भाजपा को भ्रम में रखा और सीटों का बंटवारा अपने हिसाब से करा लिया। इस वजह से चुनाव नतीजों में भाजपा बहुमत से काफी पीछे रह गई और तब शिव सेना ने मुख्यमंत्री पद के बंटवारे का फार्मूला रख दिया।खबर है कि इन दोनों फार्मूलों के साथ जुड़े रहे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को बिहार का चुनाव प्रभारी बनाया जा रहा है। सो, जाहिर है वे अपने साथ दोनों फॉर्मूलों का अनुभव लेकर आएंगे। भाजपा के कई नेता चाहते हैं कि 2014 का फार्मूला थोड़े फेरबदल के साथ आजमाया जाए। फेरबदल यह हो कि कोरोना की वजह से चुनाव टलवा दिया जाए और राष्ट्रपति शासन में भाजपा अकेले चुनाव लड़े। कहा जा रहा है कि भाजपा ने यह सुनिश्चित किया हुआ है कि इस बार जदयू और राजद का तालमेल न होने पाए। यानी जैसे महाराष्ट्र में 2014 में कांग्रेस और एनसीपी अलग लड़े थे वैसे ही जदयू, राजद और कांग्रेस अलग अलग लड़ें। इस फार्मूले से भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बनने का भरोसा है।


भाजपा के कई नेता 2019 के फार्मूले को आजमाना चाहते हैं। उनका मानना है कि नीतीश के बगैर चुनाव जीतना संभव नहीं है। इसलिए चुनाव से पहले नीतीश को भ्रम में रखते हैं और सीट बंटवारे में ज्यादा से ज्यादा सीट हासिल करने का प्रयास करते हैं, जैसा महाराष्ट्र में शिव सेना ने किया था। फिर चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी की जाए और जरूरत हो तो राजद जैसी धुर विरोधी पार्टी का भी समर्थन लिया जाए। महाराष्ट्र के मुकाबले फर्क यह है कि नीतीश दोनों फार्मूलों से परिचित हैं। इसलिए वे सावधान हैं और राजद, कांग्रेस तोड़ कर बड़ी संख्या में नेताओं की भरती का अभियान चला रहे हैं और अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं।

पीएम केयर्स फंड की यह कैसी पारदर्शिता



 सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पीएम केयर्स फंड का पैसा राष्ट्रीय आपदा राहत कोष में ट्रांसफर करने की जरूरत नहीं है। भाजपा ने इस फैसले की हैरान करने वाली व्याख्या की। उसने दावा किया कि यह सबसे ज्यादा पारदर्शी फंड है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी है। पारदर्शिता के नाम पर इस फंड में क्या है कि अब इसकी वेबसाइट पर यह सूचना डाल दी गई है कि पिछले वित्त वर्ष में यानी 2019-20 में इस फंड में कितना चंदा आया। सोचें, पिछला वित्त वर्ष खत्म होने के चार दिन पहले ही यह फंड बना था। सो, चार दिन में कितना फंड मिला यह बताया गया है। चार दिन में इसे तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा फंड मिला था। चालू वित्त वर्ष की जानकारी अगले साल अप्रैल में डाली जाएगी।


वेबसाइट पर भी डाली गई जानकारी में यह नहीं बताया जाएगा कि किसने कितना चंदा दिया। यानी चंदा देने वाले का नाम नहीं पता चलेगा। इस बारे में जानकारी न वेबसाइट पर डाली जाएगी, न आरटीआई के जरिए दी जाएगी, न सीएजी इसकी जांच करेगी और न संसद की लोक लेखा समिति इसकी जांच करेगी। सोचें, ऐसी पारदर्शिता है! सरकार ने पारदर्शिता का मतलब यह निकाला है कि वह बता देगी कि इतना पैसा आया और इतना खर्च हुआ। तभी मीडिया समूहों ने चंदे के बारे में पता लगाने के लिए एक दूसरा घुमावदार रास्ता निकाला है। इंडियन एक्सप्रेस ने देश के तमाम सार्वजनिक उपक्रमों, पीएसयू में आरटीई लगाई इस बारे में जानकारी के लिए। तब पता चला कि देश की 28 सरकारी कंपनियों ने इस फंड में दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का चंदा दिया है। मान लिया कि पीएम केयर्स फंड पब्लिक ऑथोरिटी नहीं है पर उसे चंदा देने वालों में तो सरकारी कंपनियां भी हैं, फिर उनके बारे में जानकारी क्यों नहीं दी जा सकती है।  

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

कोई भी अध्यक्ष बने, क्या फर्क पड़ेगा?

 


जैसे भारतीय जनता पार्टी ने जेपी नड्डा को अध्यक्ष बना दिया तो भाजपा की राजनीति पर क्या फर्क पड़ गया? भाजपा की राजनीति वैसे ही चल रही है, जैसे अमित शाह के अध्यक्ष रहते चलती थी। अमित शाह के अध्यक्ष रहते कर्नाटक में भाजपा ने कांग्रेस और जेडीएस की सरकार गिरा कर अपनी सरकार बनाई थी और नड्डा के अध्यक्ष बनने के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा कर भाजपा ने अपनी बनाई। भाजपा का प्रचार का तरीका, संगठन चलाने का तरीका, राजनीति करने का तरीका सब कुछ वैसा ही जैसा अमित शाह के रहते थे। फर्क सिर्फ इतना है कि नड्डा अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे हैं।


वैसे ही कांग्रेस भी किसी को अध्यक्ष बना दे, क्या फर्क पड़ता है! राजनीति तो वैसी ही होगी, जैसी सोनिया, राहुल और प्रियंगा चाहेंगे। अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई बैठे, सबको पता होगा कि असली ताकत किसके पास है। नेता से कुर्सी की ताकत और शोभा बढ़ती है, कुर्सी पर बैठ कर कोई नेता नहीं बनता है। जॉर्ज फर्नांडीज ने जया जेटली को समता पार्टी का अध्यक्ष बना दिया था। शरद यादव जैसे बड़े नेता जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे पर तब भी सबको पता था कि असली ताकत नीतीश कुमार के पास है। और पार्टी वैसे ही चलती रही, जैसे नीतीश चलाना चाहते थे।


सो, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर कौन बैठा। कम से कम अभी कोई नेता ऐसा नहीं दिख रहा है, जो कुर्सी पर बैठते ही देश की राजनीति को बदल देगा। कोई नेता ऐसा नहीं है, जिसके पास कोई चमत्कारिक चाबी है, जिससे वह कांग्रेस की सफलता का ताला खोल देगा। कांग्रेस की सफलता का ताला राहुल और प्रियंका की मेहनत और समझदारी से ही खुलेगा। इसलिए कांग्रेस के तीनों बड़े नेता यह असमंजस की स्थिति खत्म करें और किसी को भी कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दें, लेकिन अपनी राजनीति कायदे से करें।  

राहुल, प्रियंका के चाहने पर भी फैसला नहीं!



देश की तमाम पार्टियों में उसके सर्वोच्च नेता जो चाहते हैं वह हो जाता है। भारतीय जनता पार्टी में भी जहां 25 किस्म की पंचायत की व्यवस्था रही है वहां भी अपने समय के सबसे मजबूत नेताओं ने जैसा चाहा वैसा फैसला कराया। जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की चलती थी तो उन्होंने बंगारू लक्ष्मण, जना कृष्णमूर्ति, वेंकैया नायडू को अध्यक्ष बनवाया था। तब भी सबको पता था कि असली ताकत कहा हैं। अभी जेपी नड्डा अध्यक्ष हैं पर देश जानता है कि असली ताकत कहा हैं। पर कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े नेता उलटी गंगा बहा रहे हैं। प्रियंका गांधी कह रही हैं कि वे चाहती हैं कि कोई गैर गांधी कांग्रेस का अध्यक्ष बने। उन्होंने कहा है कि वे राहुल गांधी की इस बात से पूरी तरह से सहमत हैं कि गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के किसी नेता को कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहिए। अब सवाल है कि राहुल और प्रियंका दोनों चाहते हैं कि परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बने, फिर भी इसका फैसला नहीं हो पा रहा है तो इसे क्या कहा जाए? क्या सोनिया गांधी वीटो के जरिए अपने बेटे-बेटी की बात को खारिज कर रही हैं?


सब जानते हैं कि कांग्रेस में फैसला सोनिया, राहुल और प्रियंका की तिकड़ी को करना है। इनमें से दो लोग इस बात पर सहमत हैं कि परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया जाए। इसके बावजूद एक साल से ज्यादा समय से लेम डक अरेंजमेंट चल रहा है। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के रूप में काम किए जा रही हैं। दस अगस्त को उनको अंतरिम अध्यक्ष बने एक साल हो गए पर पार्टी में कोई हलचल नहीं हुई। इस बात की कोई खबर नहीं है कि पार्टी के अंदर नए अध्यक्ष को लेकर कोई विचार-विमर्श हुआ है। उसके बाद प्रियंका गांधी का यह बयान आ गया कि कोई गैर गांधी अध्यक्ष बनना चाहिए। असल में इस तरह के बयानों से कांग्रेस के नेता अपनी हंसी उड़वा रहे हैं। लोगों में इसका मजाक बन रहा है। सोशल मीडिया में मीम बन रहे हैं। प्रियंका और राहुल यह बताना चाह रहे हैं कि वे वंशवाद के आरोपों से मुक्ति पाना चाहते हैं पर अपने बयानों से उसी राजनीति को मजबूत कर रहे हैं। अपने ऊपर ज्यादा से ज्यादा फोकस बनवाने का प्रयास भी उनकी राजनीति को कमजोर कर रहा है।  

बुधवार, 19 अगस्त 2020

38 सरकारी कंपनियों ने 2,105 करोड़ रुपये की राशि पीएम केयर्स फंड में दान की: रिपोर्ट


 महारत्न से लेकर नवरत्न तक देश भर के कुल 38 सार्वजनिक उपक्रमों यानी की पीएसयू या सरकारी कंपनियों ने पीएम केयर्स फंड में 2,105 करोड़ रुपये से ज्यादा की सीएसआर राशि दान की है। 


 सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से ये जानकारी सामने आई है।


रिपोर्ट के मुताबिक, 28 मार्च को पीएम केयर्स फंड का गठन किए जाने से लेकर 13 अगस्त तक 38 पीएसयू ने मिलकर पीएम केयर्स फंड में 2,105.38 करोड़ रुपये का अनुदान दिया है, जो कि कंपनियों द्वारा अनिवार्य रूप से दिया जाने वाला सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) का पैसा है।


पीएम केयर्स फंड में सीएसआर राशि डोनेट की जा सकती है। नियम के मुताबिक, सीएसआर राशि को उन कार्यों में खर्च करना होता है, जिससे लोगों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, नैतिक और स्वास्थ्य आदि में सुधार हो तथा आधारभूत संरचना, पर्यावरण और सांस्कृतिक विषयों को बढ़ाने में मदद मिल सके।


पीएसयू से प्राप्त दस्तावेजों से पता चलता है कि कंपनियों ने वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान सीएसआर कार्यों के लिए जितना बजट आवंटित किया था, उसमें से कुछ पैसा पीएम केयर्स फंड में डाला है। इसके अलावा कुछ कंपनियों ने वर्ष 2020-21 के बजट में से डोनेशन दिया है।


सबसे ज्यादा ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड (ओएनजीसी) ने 300 करोड़ रुपये पीएम केयर्स फंड में दान किया है। हालांकि कंपनी ने अब तक 2020-21 के दौरान सीएसआर कार्यों के लिए बजट निर्धारित नहीं किया है। इसी तरह एचपीसीएल ने भी सीएसआर आवंटन में से 120 करोड़ रुपये का अनुदान पीएम केयर्स फंड में दिया है।


वहीं पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन ने वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान सीएसआर गतिविधियों के लिए जितना बजट आवंटित किया था, उससे कहीं ज्यादा पैसा पीएम केयर्स फंड में भेजा गया है। कंपनी ने बताया है कि उन्होंने इस साल सीएसआर का बजट 150.28 करोड़ रुपये रखा था, लेकिन पीएम केयर्स फंड में 200 करोड़ रुपये का डोनेशन दिया है।


ओआईएल इंडिया लिमिटेड ने कहा कि उसने 38 करोड़ रुपये का योगदान दिया और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ने 200 करोड़ रुपये का अनुदान दिया है।


ग्रामीण विद्युतीकरण निगम ने अपने साल 2019-20 के 156.68 करोड़ रुपये के आवंटन में से 100 करोड़ रुपये और 2020-21 के अनुमानित आवंटन 152 करोड़ रुपये में से 50 करोड़ रुपये का डोनेशन दिया है।


मालूम हो कि बीते मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने पीएम केयर्स फंड में प्राप्त राशि को नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फंड (एनडीआरएफ) में ट्रांसफर करने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि पीएम केयर्स के पैसे को एनडीआरएफ में भेजने की कोई जरूरत नहीं है।


सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया था कि चूंकि पीएम केयर्स फंड की कार्यप्रणाली काफी गोपनीय है, इसलिए इसमें प्राप्त राशि एनडीआरएफ में ट्रांसफर की जाए, जो कि संसद से पारित किए गए आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत बनाया गया है और एक पारदर्शी व्यवस्था है।


एनडीआरएफ में प्राप्त राशि कि ऑडिटिंग राष्ट्रीय ऑडिटर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा किया जाता है और इस पर आरटीआई एक्ट भी लागू है। वहीं दूसरी तरफ पीएम केयर्स फंड को सरकार ने आरटीआई के दायरे से बाहर गया रखा है और इसकी ऑडिटिंग एक स्वतंत्र ऑडिटर से कराई जा रही है।


पीएम केयर्स फंड के विरोध की एक प्रमुख वजह ये है कि सरकार इससे जुड़ी बहुत आधारभूत जानकारियां जैसे इसमें कितनी राशि प्राप्त हुई, इस राशि को कहां-कहां खर्च किया गया, तक भी मुहैया नहीं करा रही है।


लंबे समय के बाद पीएम केयर्स ने सिर्फ ये जानकारी दी है कि इस फंड को बनने के पांच दिन के भीतर यानी कि 27 मार्च से 31 मार्च 2020 के बीच में कुल 3076.62 करोड़ रुपये का डोनेशन प्राप्त हुआ है। इसमें से करीब 40 लाख रुपये विदेशी चंदा है।


प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) आरटीआई एक्ट के तहत इस फंड से जुड़ी सभी जानकारी देने से लगातार मना करता आ रहा है। साथ ही कहा गया है कि पीएम केयर्स आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत सार्वजनिक प्राधिकार यानी पब्लिक अथॉरिटी नहीं है।


यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री इस फंड के अध्यक्ष हैं और सरकार के सर्वोच्च पदों पद बैठे गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री जैसे व्यक्ति इसके सदस्य हैं।

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

पूरे देश में फोन टेपिंग की चर्चा


 भारत में आम लोगों की निजता वैसे ही कोई मतलब नहीं रखती है पर हैरान करने वाली बात है कि लगभग पूरे देश में बड़े नेता, मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि फोन टेपिंग के या जासूसी के आरोप लगा रहे हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पिछले दिनों इस बारे में बहुत विस्तार से आरोप लगाए थे। उन्होंने भाजपा के नेताओं से ही पूछा था कि उनको फोन आता है तो वे ये यह नहीं कहते हैं कि व्हाट्सएप कॉल करें? यह लगभग हर जगह हो रहा है कि लोग कम्युनिकेशन के सुरक्षित माध्यम की तलाश में हैं क्योंकि सबको लग रहा है कि फोन टेप किया जा रहा है। कहीं केंद्रीय एजेंसियों को लेकर ऐसा है तो कहीं राज्यों की एजेंसियों को लेकर है।  


ताजा मामला पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का है। राज्यपाल जगदीप धनकड़ ने राजभवन की जासूसी किए जाने का आरोप लगाया है। यह बहुत गंभीर मामला है और उतनी ही गंभीरता से इसकी जांच होनी चाहिए। इस बीच उधर आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने आरोप लगाया है कि राज्य की जगन मोहन रेड्डी सरकार उनके फोन टेप करा रही है। राजस्थान से लेकर पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश तक लग रहे ऐसे आरोपों से असुरक्षा और अविश्वास का भाव बढ़ रहा है। नेता, अधिकारी सब व्हाट्सएप, टेलीग्राम या इस तरह के एप तलाश रहे हैं, जिस पर वे भरोसे के साथ बात कर सकें या संदेश भेज सकें।

त्वचा के भीतर जासूसी की तैयारी!


 दुनिया भर में अब ‘अंडर द स्किन सर्विलेंस’ यानी त्वचा के अंदर घुस कर जासूसी की तैयारी हो रही है। कोरोना वायरस के संकट ने सरकारों को यह मौका दिया है। कोरोना की आपदा को सरकारें अवसर में बदल रही हैं। मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि सरकारें अपने हर नागरिक पर हर समय नजर रखने के उपाय कर रही हैं। यह काम तकनीक के जरिए हो रहा है और कोरोना का संक्रमण रोकने के बहाने से हो रहा है। कोरोना के खत्म होने तक किसी न किसी तरीके से इसे हर देश में लागू कर दिया जाएगा। भारत में नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन के जरिए इसे लागू किया जाएगा।


समकालीन दुनिया के सबसे बड़े विचारकों में से एक युआल नोवा हरारी ने इस साल मार्च में लंदन के अखबार ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ में लिखे एक लेख कहा था कि ‘अभी जब आप अपने स्मार्ट फोन से किसी लिंक को क्लिक करते हैं तो सरकार सिर्फ यह जानना चाहती है कि आप किस चीज पर क्लिक कर रहे हैं पर वायरस की वजह से सरकारों की दिलचस्पी का फोकस बदल गया है, अब सरकारें आपकी उंगलियों का तापमान और त्वचा के नीचे आपका रक्तचाप जानना चाहती हैं’। यह लोगों की निजता भंग करने वाली जासूसी का नेक्स्ट लेवल है। 


भारत का नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन त्वचा के नीचे की इसी जासूसी का रास्ता साफ करेगा। इस किस्म की जासूसी के लिए जरूरी कुछ डाटा लोग खुद ही उपलब्ध कराएंगे। बाकी डाटा इस प्रोजेक्ट से जुड़ने वाले ‘हितधारक’ अपने आप जुटा लेंगे। भारत में तो यह अभी शुरू होने वाला है पर दुनिया के कई देशों ने इसकी शुरुआत कर दी है। नई सदी की शुरुआत से पहले छोटे से देश आइसलैंड में एक कंपनी ‘डिकोड’ ने वहां के लोगों का जेनेटिक डाटा जुटाना शुरू किया था और लोगों की मेडिकल रिपोर्ट को भी डिजिटाइज्ड करना शुरू किया था, जिसकी अब भारत में बात हो रही है।


वहां भी यहीं कहा गया था कि कोई भी डाटा लोगों की सहमति के बगैर एक्सेस नहीं किया जाएगा, जैसा कि भारत में नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन की ब्लूप्रिंट में कहा गया है। पर वहां लोगों का डाटा सार्वजनिक होने लगा। ‘इंफॉर्मड कंसेंट’ के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ, जिसके बाद वहां की सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला की याचिका पर 2003 में इस पर आंशिक रूप से रोक लगा दी। वहां कई तरह की समस्या आई थी, जिसमें से एक समस्या यह थी कि लोगों के हेल्थ रिकार्ड और आनुवंशिक बीमारियों की जानकारी से यह भी पता चलने लगा कि किसी आदमी को आगे कौन सी बीमारी हो सकती है। कंपनियां लोगों को नौकरी पर रखने से पहले यह डाटा देखने लगी थीं और उन्होंने संभावित बीमारी के बहाने लोगों को नौकरी देने से मना करना शुरू किया था या नौकरियों से निकाल दिया था।


सोचें, जब आइसलैंड जैसे छोटे से और साढ़े तीन लाख लोगों की आबादी वाले देश में इस किस्म की अफरातफरी हो गई तो 138 करोड़ लोगों वाले भारत देश में क्या हो सकता है? भारत में तो वैसे ही बीमारियों को लेकर लोगों के मन में छुआछूत का भाव रहता है। कई बीमारियां टैबू मानी हैं, जिनके बारे में लोग बात नहीं करना चाहते हैं। अनेक बीमारियों की जांच को लेकर सरकार खुद ही लोगों को प्रेरित करते हुए कहती है कि उनकी जांच रिपोर्ट गोपनीय रखी जाएगी। एचआईवी, एड्स, यौन संक्रमण, टीबी, कुष्ट जैसी अनेक बीमारियां हैं, जिनके बारे में जानकारी सार्वजनिक होना लोग बरदाश्त नहीं कर पाएंगे। भारत जैसे देश में जहां साइबर सुरक्षा और डाटा सुरक्षा को लेकर न कोई ठोस नियम है और न ठोस व्यवस्था है, वहां लोगों की बीमारियों, इलाज, जांच, दवाओं आदि की जानकारी जुटा कर डिजिटल फॉर्मेट में एक जगह रखना अंततः एक खतरनाक खेल साबित हो सकता है। यह लोगों की निजता को और उनके निजी जीवन को बहुत बुरी तरह से प्रभावित कर सकता है।


स्मार्ट फोन, स्मार्ट वॉच, स्मार्ट टीवी आदि के जरिए पहले ही तकनीक की घुसपैठ लोगों के घरों और उनके जीवन में हो चुकी है। इनके जरिए भी लोगों के हाव-भाव, उनकी जीवन शैली, उनकी आदतों, सेहत आदि के बारे में बहुत सी जानकारी दुनिया के किसी कोने में रखे सर्वर में इकट्ठा हो रही है, जिसे बिग डाटा अलगोरिदम के जरिए मशीनें एनालाइज कर रही हैं और उस आधार पर संबंधित व्यक्ति की पूरी सोच और उसके पूरे जीवन को मैनिपुलेट करने का काम हो रहा है। उसकी पसंद-नापसंद को प्रभावित किया जा रहा है और उसे किसी खास काम के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया जा रहा है। कैंब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक से डाटा हासिल करके अमेरिकी चुनाव में यहीं काम किया था।


आने वाले दिनों में 5जी तकनीक, बिग डाटा अलगोरिदम, मशीन लर्निंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, नैनो टेक्नोलॉजी आदि के जरिए यह काम और आसान हो जाएगा। भारत का नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन हो या बिल गेट्स का आईडी-2020 मिशन हो, इनका मकसद लोगों का ज्यादा से ज्यादा डाटा डिजिटल तौर पर हासिल करना है। जब भारत में डिजिटल हेल्थ मिशन के तहत लोगों का हेल्थ कार्ड बन जाएगा, उनको यूनिक हेल्थ आईडी मिल जाएगी उसके बाद यह काम और आसान हो जाएगा। उस यूनिक नंबर के साथ हर व्यक्ति की सेहत का पूरा डाटा जुड़ा होगा। इसे आधार के साथ लिंक करने की भी योजना है, जिसका मतलब यह होगा कि एक व्यक्ति के यूनिक नंबर का पता लगने के बाद उसके पूरे परिवार का डाटा हासिल किया जा सकता है, जिसका कई तरह से दुरूपयोग संभव है।


सो, यह तय मानें कि नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन से देश की बहुसंख्यक आबादी को हासिल कुछ नहीं होना है। न उनके लिए स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा सुधारा जा रहा है, न डॉक्टर और नर्सों की उपलब्धता बढ़ाई जा रही है, न सस्ती जांच होने वाली है और न सस्ती दवाएं मुहैया कराने की योजना है। इसका मकसद एक अतिरिक्त कार्ड और यूनिक नंबर देने के बहाने उनकी सेहत, बीमारी, जांच, इलाज, दवा आदि की पूरी जानकारी हासिल करना है, जिसका फायदा बड़ी दवा कंपनियों, अस्पतालों की बड़ी चेन, थोड़े से स्थापित लैब्स और टेलीमेडिसीन व ऑनलाइन दवा बेचने वाली कंपनियों को होना है। यह देश को अनिवार्य वैक्सीनेशन की ओर ले जाने वाला भी है, जिसका फायदा वैक्सीन के खेल से जुड़े देश और दुनिया की बड़ी कंपनियों को होना है। अगर दुनिया में चल रही साजिश थ्योरी पर भरोसा करें तो इसके जरिए हर इंसानी शरीर में एक माइक्रोचिप फिट करने की माइक्रोसॉफ्ट की योजना सिरे चढ़ सकती है। पर अगर ऐसा नहीं भी होता है तब भी इससे लोगों की निजता, नौकरी, रोजगार, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि बुरी तरह से प्रभावित होंगे।




डर से घिरे भारतीय?


कोरोना के संकट का समय चल है और दुनिया के किसी भी सभ्य और विकसित देश के शायद ही लोग इस बात पर आगे यकीन करेंगे कि भारत में डर की वजह से लोग कोरोना जैसी बीमारी छिपाते है। सवाल है कि आखिर लोग किस बात से डर रहे थे? उन्हें कई किस्म के डर थे। पहला डर अस्पतालों का था। उन्हें पता है कि इस देश में अस्पताल लूट के अड्डे हैं। एक बार अगर कोई व्यक्ति अस्पतालों के चक्कर में पड़ा तो उसे हो सकता है कि सालों तक मुक्ति न मिले। ऊपर से कोरोना के बीच अस्पतालों ने बीमारी की आपदा को अवसर बना लिया। हजारों-लाखों के बिल बनाने लगे। इस डर से लोगों ने बीमारी छिपाई। सरकारी अस्पतालों के कुप्रबंधन से भी लोग परिचित थे इसलिए उसका भय अलग था। उनको लगता था कि एक बीमारी के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल में भरती हुए तो पता नहीं कितनी और बीमारियां पकड़ेंगी।


कोरोना के मरीजों को एक डर सामाजिक बहिष्कार का अलग था। जैसे ही किसी के कोरोना संक्रमित होने की खबर आती थी पूरा मोहल्ला या गांव उसको और उसके परिवार को ऐसे संदेह की नजर से देखने लगता था कि वह अपमान किसी बीमारी से मर जाने से ज्यादा था। इस वजह से भी लोगों ने टेस्ट कराने और अपनी बीमारी का पता लगाने की बजाय घर में बंद होकर काढ़ा आदि पीकर अपने को ठीक करने का ज्यादा प्रयास किया। अस्पताल में खर्च का डर, सरकारी अस्पताल में खराब सुविधाओं का भय और सामाजिक बहिष्कार का भय यह कोरोना की बीमारी का भारत का सच कम गंभीर नहीं है। यह सच भी भारत की आजादी के बाद जैसा समाज और जैसी व्यवस्था अपने यहां बनी है उसी का आईना है।  


कोरोना का वायरस तो अभी आया है पर डर का वायरस पहले से लोगों के दिल-दिमाग में बैठा हुआ है। वह डर कई तरह का है। लोग पुलिस से डरते हैं, अदालतों से डरते हैं, अस्पतालों से डरते हैं, नगर निगमों के कर्मचारियों से डरते हैं, नेताओं से डरते हैं, तमाम तरह की जांच एजेंसियां अलग तरह का खौफ पैदा किए रहती हैं, जिस तरह से जंगल में छोटे-छोटे जानवर  बड़े और शक्तिशाली जानवरों के खौफ में रहते हैं उसी तरह देश का आम नागरिक 24 घंटे किसी न किसी खौफ में रहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश में कानून के राज को मजबूत नहीं किया गया। संस्थाओं के प्रति लोगों में भरोसा नहीं पैदा किया गया। गुणवत्ता और काबिलियत को प्राथमिकता नहीं दी गई। यहां माईबाप सरकार बनाई गई, जिसके डंडे से सारी एजेंसियों को हांका जाता है और फिर वहीं एजेंसियां अपने डंडे से नागरिकों को हांकती हैं।


यहां छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर बड़े ताकतवर लोगों को अपने साथ अन्याय होने का भय रहता है। सत्ता की नजर टेढ़ी हुई तो बड़े से बड़ा उद्योगपति सड़क पर आ जाता है और बड़ा से बड़ा नेता जेल में होता है। यह इस व्यवस्था का कमाल है कि अनगिनत लोग बैंक लूट कर और देश के करोड़ों लोगों को अरबों रुपए का चूना लगा कर फरार हो गए और दूसरी ओर ईमानदारी से काम करने वाले लोग थानों में या एजेंसियों के चक्कर लगा रहे हैं। ईमानदारी से काम करने वालों को भी भय रहता है कि कहीं आय कर विभाग का नोटिस न आ जाए, कहीं नगर निगम वाले नोटिस न भेज दें, कहीं पुलिस न दरवाजा खटखटा दे। सब कुछ ठीक होने के बावजूद इस बात का डर लगा रहता है कि एक बार किसी एजेंसी के चक्कर में फंसे तो महीनों, सालों लग सकते हैं उससे निकलने में। आम लोगों में इस बात का डर रहता है कि कहीं बिजली, पानी का बिल न ज्यादा आ जाए। क्योंकि अगर बिजली, पानी के बिल ज्यादा आ गए तो उन्हें ठीक कराना हिमालय पर चढ़ने की तरह होता है। और उसमें ज्यादा संभावना इस बात की रहती है कि एक बार कनेक्शन कटेगा, भले उसके बाद बिल ठीक हो।


भारत में सरकार ने सूचना के अधिकार कानून के तहत सवाल पूछने और जवाब मांगने का हक दिया है पर इस कानून का इस्तेमाल करने वाले सैकड़ों आरटीआई कार्यकर्ता अब तक देश में मारे जा चुके हैं। सूचना अधिकार का इस्तेमाल कर खबर निकालने और लिखने वाले पत्रकारों पर हमले हुए हैं और कई लोग उसमें मारे गए हैं। तभी भारत में व्यवस्था से साधारण से सवाल पूछने के लिए लोगों को बड़े साहस की जरूरत होती है। कितने लोग यह साहस जुटा पाते हैं? यह भारत की हकीकत है कि यहां आरटीआई कार्यकर्ताओं को सवाल का जवाब मिलने से पहले सवाल उन लोगों तक पहुंच जाते हैं, जिनके हितों को उससे चोट पहुंचती हो। इस भय से अब लोगों ने सवाल पूछना बंद कर दिया है। अब पत्रकार आरटीआई के जरिए सूचना निकाल कर खबरें नहीं लिखते हैं क्योंकि इससे नौकरी जाने का खतरा है और जान भी बन सकती है।


सूचना अधिकार की तरह ही भारत में सरकार ने रोजगार की गारंटी दी हुई है पर अपने रोजगार को लेकर दुनिया में सबसे ज्यादा डर भारत के लोगों में होता है। हर आदमी इस बात को लेकर हमेशा डरा रहता है कि उसकी नौकरी न चली जाए या काम धंधा न बंद हो जाए। यहां लोग नौकरी बचाने में लगे रहते हैं, जिसकी वजह से कुछ भी मौलिक नहीं कर पाते हैं। कोरोना वायरस और इस सरकार की खराब आर्थिक नीतियों ने लोगों को रोजगार और नौकरी के मोर्चे पर और कमजोर बनाया है। करोड़ों की संख्या में लोगों की नौकरियां गई हैं।


जिन लोगों के लिए प्रधानमंत्री ने पकौड़ा को रोजगार बताया था या गृह मंत्री ने कहा था कि सरकार ने आठ करोड़ लोगों को स्वरोजगार दिया है उनमें से ज्यादा का रोजगार खत्म हो गया है। ऐसे स्वरोजगार करने वाले सबसे ज्यादा डर डर कर काम करते हैं। इस कोरोना के संकट के बीच इंदौर से लेकर लखनऊ और दिल्ली से लेकर बेंगलुरू तक से एक जैसी तस्वीरें और वीडियो देखने को मिले। सैकड़ों जगहों से सड़क पर ठेला, रेहड़ी, खोमचा पलटते हुए पुलिस की वीडियो आई। यह भारत में छोटे-छोटे काम करने वाले लोगों का स्थायी डर है। लोग रोज सुबह अपना हाथ रिक्शा, ई रिक्शा, पानी का ठेला, पकौड़े का खोमचा, सब्जी की रेहड़ी लेकर निकलते हैं तो इस डर में रहते हैं कि कहीं पुलिस वाले पीट कर ठेला न पलट दें या रिक्शा न छीन लें। उन्हें पुलिस वालों से लेकर नगरपालिका के अधिकारियों, कर्मचारियों तक को हफ्ता देना होता है तब जाकर वे सड़क के किनारे खड़े हो पाते हैं। कोरोना रोकने के लिए लागू दिशा-निर्देशों ने पुलिस और नगरपालिकाओं के कर्मचारियों को ठेला पलटने का लाइसेंस अलग से दे दिया है।


भारत में डर का दायरा इतना व्यापक है, जितना पूरा ब्रह्मांड है। कोई अपने को सुरक्षित नहीं मान सकता है। बाहर निकले तो जबरदस्ती अपराधी बता कर लिंच किया जा सकता है, फिर भले आप साधु क्यों न हों। अगर कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उसे कानून और अदालत तक पहुंचने से पहले इस बात का भय रहता है कि कहीं मुठभेड़ के नाम पर उसकी हत्या न कर दी जाए! सो, साधु हो या अपराधी, छोटे बच्चे हों या बड़े उद्योगपति सब किसी न किसी तरह के डर में जी रहे हैं।