बिहार राज्य की राजधानी पटना कभी संगीत की नगरी हुआ करता था. यहां देश के नामी-गिरामी संगीतज्ञ आते थे और अपना प्रदर्शन करते थे. किस तरह एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला प्रदेश आज काफी पिछड़ गया है और पटना से जुड़ी तमाम बातें
पटना मेरे लिए ईट और गारे मिट्टी से बना एक शहर नहीं है . पटना मेरे लिए धड़कता हुआ दिल है. जिसके सीने में जाने कितने राज दफ़न हैं. मेरे सपने, मेरी आवारगी, मेरी मुहब्बत और मेरे संघर्षों के दिनों की यादों से लबरेज़ ये शहर हमारा ही तो है. इसी शहर ने जिंदगी को देखना सिखाया. इसी शहर ने दर्द दिये और दर्द पर मरहम लगाया. जब कभी मेरा मन उचाट होता मैं गंगा के किनारे बैठ जाती. दुनिया के शोर से परे, अपनी रौ में बहतीरहती. गर्मी के दिनों में पानी की खोज में हिमालय के परिंदे जाने कितने देशों से उड़कर आते . धोबन चिड़िया, पहाड़ी मैना, लाल चोंच वाला गुल, नीले रंग के नूरपोश सब आते . उनदिनों गंगा का पानी इतना मीठा था कि परिंदे दूर दूर से पानी पीने आते. पटना ऐसा ही है. इसकी संस्कृति, इसका इतिहास अलग-अलग रंगों से भरा हुआ .
जो लोग पटना का इतिहास जानते हैं उन्हें पता है की पटना पर बंगालियों , सिखों . मुसलमानों , जैन , बुद्ध और ईसाई संस्कृति का गहरा असर रहा है. शुरू में लोग पटना को अजिमाबाद के रूप में जानते थे. मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते मुहम्मद अज़ीम के अनुरोध पर 1704 में, शहर का नाम अजीमाबाद कर दिया,पर इस कालखंड में नाम के अतिरिक्त पटना में कुछ विशेष बदलाव नहीं आया. अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था. मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नबाबों के शासनाधीन हो गया..1912, में बंगाल के विभाजन के बाद, पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना.
पटना की साझी सांस्कृतिक विरासत देखना हो तो बेगू हज्जाम की मस्जिद 'पत्थर की मस्जिद - शेरशाह की मस्जिद,पादरी की हवेली और सबसे पुराना हरमंदिर साहेब, (पटना सिटी )क़िला हाउस (जालान हाउस) ) महावीर मंदिर को देखें . हम जानते है शहर सिर्फ इमारतों से नहीं बनता . शहर तो लोगों से बनता है . आप अगर किसी शहर को जानना चाहते हैं तो सबसे आसान तरीका है ये जानना कि उसमें रहने वाले लोग किस तरह काम करते हैं, किस तरह प्यार और मुहब्बत करते हैं और किस तरह मरते हैं ! हमारे लोग खूब मेहनत करते हैं , फसलें उगाते हैं , इमारतें बनाते हैं , छोटे छोटे कारखानों में काम करते हैं फिर भी हम पिछड़े हैं, गरीब हैं .
ये सब कुछ इसलिए है कि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां ग़रीबी और अमीरी में गहरी खाई है . इसी खाई को पाटने के लिए पटना में कई बड़े आंदोलन हुए. राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलन की जमीन रही है पटना . मुझे याद है 1974 के आंदोलन ने किस तरह पूरे देश को प्रभावित किया . मेरी उम्र 9-10 साल रही होगी . मेरे पिता मार्क्सवादी हैं . उनदिनों वामपंथी पार्टियां 74 के आंदोलन के विरोध में थी . जिसका खामियाजा वे आज तक भुगत रहे हैं . हमारा घर राजनीति बहसों के लिए सबसे मुफीद जगह थी . सभी वाद वहां जुटते और तीखी बहसें होती .
उस समय कुछ खास नहीं समझ आता पर मेरे भीतर राजनीति और कला की भूख शायद यहीं से पनपी . मेरे पिता को संगीत से गहरा लगाव है . उनदिनों पटना में दशहरा पूजा की धूम थी .. भक्ति और कला का इतना गहरा मिश्रण शायद ही कहीं मिले . पटना की रात ठुमरी , दादरा , यमन समेत अनेक रागों से भरी रहती . भारतीय संगीत पर मौसम का गहरा असर है . राग के गायन के ऋतु निर्धारित है. जैसे भैरव राग का गहरा सबंध शिशिर ऋतु से है हिंडोल का बसंत से . इन सारे रागों को सुनने के लिए उनदिनों पटना से बेहतर कोई जगह नहीं थी .दरअसल यहां दशहरा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की लंबी परंपरा रही है. इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1944 में मध्य पटना के गोविंद मित्रा रोड मुहल्ले से हुई थी.
बड़े संगीतज्ञों के साथ-साथ बड़े क़व्वाल और मुकेश या तलत महमूद जैसे गायक भी यहां से जुड़ते चले गये. मुझे याद है जब पहली बार पंडित जसराज को सुन रही थी .उनकी तान से चिराग की लौ भी थर्रा गयी. उन्होंने सर उठाकर रौशन आसमान को देखा जिस पर बारहवीं शब का चांद जगमगा रहा था . चलो गोसाई चलें ....अब चांद निकल आया था . उनकी आवाज की मिठास में लोग झूमते रहे . अब बारी थी सितारा देवी की . उन्होंने फिरकी के मानिंद चक्कर लगाना शुरू कर दिया . उनका जूडा खुल गया और लंबे बाल शानो पर बिखर गए . बिचली सी चमक थी , गजब का लोच था बदन में . वो लट्टू की तरह घूम रहीं थीं ..जैसे जिंदगी के मरघट पर काली नाचती हो ...सब दम साधे देख रहे थे.
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1950 से लेकर 1980 तक तो पटना संगीत की नगरी थी . डीवी पलुस्कर, ओंकार नाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, अली अकबर ख़ान, निखिल बनर्जी, विनायक राव पटवर्धन, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, बीजी जोग, अहमद जान थिरकवा, बिरजू महाराज, सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, बिस्मिल्ला ख़ान, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा ... बड़ी लंबी सूची है. 60 वर्ष पहले पटना के दशहरा और संगीत का जो संबंध सूत्र क़ायम हुआ था वह 80 के दशक में आकर टूट-बिखर गया. मैं याद कर रही किस तरह संगीत में पूरा शहर डूबा रहता था . मध्यम मगरीबी मौसीकी की आवाज आ रही है . अब्र आलूद रात के अंधेरे में जुगनू चमक रहे हैं . मैं सुन रही हूं ...रात अँधेरी है , बादल गहरे तुम ऐसी रात में आओ ना ...
पटना मेरे लिए ईट और गारे मिट्टी से बना एक शहर नहीं है . पटना मेरे लिए धड़कता हुआ दिल है. जिसके सीने में जाने कितने राज दफ़न हैं. मेरे सपने, मेरी आवारगी, मेरी मुहब्बत और मेरे संघर्षों के दिनों की यादों से लबरेज़ ये शहर हमारा ही तो है. इसी शहर ने जिंदगी को देखना सिखाया. इसी शहर ने दर्द दिये और दर्द पर मरहम लगाया. जब कभी मेरा मन उचाट होता मैं गंगा के किनारे बैठ जाती. दुनिया के शोर से परे, अपनी रौ में बहतीरहती. गर्मी के दिनों में पानी की खोज में हिमालय के परिंदे जाने कितने देशों से उड़कर आते . धोबन चिड़िया, पहाड़ी मैना, लाल चोंच वाला गुल, नीले रंग के नूरपोश सब आते . उनदिनों गंगा का पानी इतना मीठा था कि परिंदे दूर दूर से पानी पीने आते. पटना ऐसा ही है. इसकी संस्कृति, इसका इतिहास अलग-अलग रंगों से भरा हुआ .
जो लोग पटना का इतिहास जानते हैं उन्हें पता है की पटना पर बंगालियों , सिखों . मुसलमानों , जैन , बुद्ध और ईसाई संस्कृति का गहरा असर रहा है. शुरू में लोग पटना को अजिमाबाद के रूप में जानते थे. मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते मुहम्मद अज़ीम के अनुरोध पर 1704 में, शहर का नाम अजीमाबाद कर दिया,पर इस कालखंड में नाम के अतिरिक्त पटना में कुछ विशेष बदलाव नहीं आया. अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था. मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नबाबों के शासनाधीन हो गया..1912, में बंगाल के विभाजन के बाद, पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना.
पटना की साझी सांस्कृतिक विरासत देखना हो तो बेगू हज्जाम की मस्जिद 'पत्थर की मस्जिद - शेरशाह की मस्जिद,पादरी की हवेली और सबसे पुराना हरमंदिर साहेब, (पटना सिटी )क़िला हाउस (जालान हाउस) ) महावीर मंदिर को देखें . हम जानते है शहर सिर्फ इमारतों से नहीं बनता . शहर तो लोगों से बनता है . आप अगर किसी शहर को जानना चाहते हैं तो सबसे आसान तरीका है ये जानना कि उसमें रहने वाले लोग किस तरह काम करते हैं, किस तरह प्यार और मुहब्बत करते हैं और किस तरह मरते हैं ! हमारे लोग खूब मेहनत करते हैं , फसलें उगाते हैं , इमारतें बनाते हैं , छोटे छोटे कारखानों में काम करते हैं फिर भी हम पिछड़े हैं, गरीब हैं .
ये सब कुछ इसलिए है कि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां ग़रीबी और अमीरी में गहरी खाई है . इसी खाई को पाटने के लिए पटना में कई बड़े आंदोलन हुए. राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलन की जमीन रही है पटना . मुझे याद है 1974 के आंदोलन ने किस तरह पूरे देश को प्रभावित किया . मेरी उम्र 9-10 साल रही होगी . मेरे पिता मार्क्सवादी हैं . उनदिनों वामपंथी पार्टियां 74 के आंदोलन के विरोध में थी . जिसका खामियाजा वे आज तक भुगत रहे हैं . हमारा घर राजनीति बहसों के लिए सबसे मुफीद जगह थी . सभी वाद वहां जुटते और तीखी बहसें होती .
उस समय कुछ खास नहीं समझ आता पर मेरे भीतर राजनीति और कला की भूख शायद यहीं से पनपी . मेरे पिता को संगीत से गहरा लगाव है . उनदिनों पटना में दशहरा पूजा की धूम थी .. भक्ति और कला का इतना गहरा मिश्रण शायद ही कहीं मिले . पटना की रात ठुमरी , दादरा , यमन समेत अनेक रागों से भरी रहती . भारतीय संगीत पर मौसम का गहरा असर है . राग के गायन के ऋतु निर्धारित है. जैसे भैरव राग का गहरा सबंध शिशिर ऋतु से है हिंडोल का बसंत से . इन सारे रागों को सुनने के लिए उनदिनों पटना से बेहतर कोई जगह नहीं थी .दरअसल यहां दशहरा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की लंबी परंपरा रही है. इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1944 में मध्य पटना के गोविंद मित्रा रोड मुहल्ले से हुई थी.
बड़े संगीतज्ञों के साथ-साथ बड़े क़व्वाल और मुकेश या तलत महमूद जैसे गायक भी यहां से जुड़ते चले गये. मुझे याद है जब पहली बार पंडित जसराज को सुन रही थी .उनकी तान से चिराग की लौ भी थर्रा गयी. उन्होंने सर उठाकर रौशन आसमान को देखा जिस पर बारहवीं शब का चांद जगमगा रहा था . चलो गोसाई चलें ....अब चांद निकल आया था . उनकी आवाज की मिठास में लोग झूमते रहे . अब बारी थी सितारा देवी की . उन्होंने फिरकी के मानिंद चक्कर लगाना शुरू कर दिया . उनका जूडा खुल गया और लंबे बाल शानो पर बिखर गए . बिचली सी चमक थी , गजब का लोच था बदन में . वो लट्टू की तरह घूम रहीं थीं ..जैसे जिंदगी के मरघट पर काली नाचती हो ...सब दम साधे देख रहे थे.
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1950 से लेकर 1980 तक तो पटना संगीत की नगरी थी . डीवी पलुस्कर, ओंकार नाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, अली अकबर ख़ान, निखिल बनर्जी, विनायक राव पटवर्धन, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, बीजी जोग, अहमद जान थिरकवा, बिरजू महाराज, सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, बिस्मिल्ला ख़ान, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा ... बड़ी लंबी सूची है. 60 वर्ष पहले पटना के दशहरा और संगीत का जो संबंध सूत्र क़ायम हुआ था वह 80 के दशक में आकर टूट-बिखर गया. मैं याद कर रही किस तरह संगीत में पूरा शहर डूबा रहता था . मध्यम मगरीबी मौसीकी की आवाज आ रही है . अब्र आलूद रात के अंधेरे में जुगनू चमक रहे हैं . मैं सुन रही हूं ...रात अँधेरी है , बादल गहरे तुम ऐसी रात में आओ ना ...

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