बुधवार, 25 नवंबर 2020

बैंकिंग का क्या नया दौर शुरू होगा?

 


अगर किसी से पूछा जाए कि भारत में इस समय सबसे ज्यादा संकट किस सेक्टर में हैं तो ज्यादातर लोगों का जवाब होगा- बैंकिंग सेक्टर में। बैंकों की हालत लगातार खराब हो रही है और सिर्फ कोरोना वायरस की महामारी के कारण नहीं खराब नहीं हो रही है, बल्कि उससे बहुत पहले से खराब होने लगी थी और अब लाखों करोड़ रुपए के सरकार के आर्थिक पैकेज की वजह से और ज्यादा खराब हो रही है। क्योंकि सरकार ने लाखों करोड़ रुपए का जो पैकेज दिया है वह सब कर्ज बांटने का पैकेज है। इससे बैंकों की हालत और ज्यादा खराब ही होनी है क्योंकि जब जब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी, औद्योगक गतिविधियों में तेजी नहीं लौटेगा, लोग खर्च करना नहीं शुरू करेंगे तब तक बैंकों की हालत ठीक नहीं होने वाली है।


इसी संकट के बीच भारत में बैंकिंग का नया दौर शुरू करने की तैयारी हो रही है? कोई 50 साल पहले इंदिरा गांधी ने बैंकों का निजीकरण करके भारत में बैंकिंग के नए दौर की शुरुआत की थी। आर्थिक उदारीकरण के दौर में इसमें कुछ बदलाव हुआ फिर भी बैंकिंग का मूल चरित्र बचा रहा। कुछ निजी बैंक शुरू हुए लेकिन सरकारी बैंकों का ही दबदबा रहा। लोगों का भरोसा भी सरकारी बैंकों पर ही रहा। अब सीधे कारोबारों के हाथ में बैंकिंग व्यवस्था सौंपने की तैयारी हो रही है। देश और दुनिया के तमाम आर्थिक व वित्तीय जानकारों की राय को दरकिनार करके भारतीय रिजर्व बैंक ने इसकी तैयारी शुरू की है। अब कारपोरेट कंट्रोल बैंकिंग के नए दौर की शुरुआत होने वाली है।


रिजर्व बैंक ने एक इंटरनल वर्किंग ग्रुप बनाया था, जिसने सुझाव दिया है कि भारत के कारपोरेट घरानों को बैंक खोलने की इजाजत दी जाए। अभी इसके डिटेल्स बताए जाने जाने बाकी हैं पर शुरुआती जानकारी के मुताबिक आरबीआई के इंटरनल वर्किंग ग्रुप ने इस बारे में जितने  लोगों से सलाह मशविरा किया है या जितने लोगों से राय मांग हैं उनमें से सिर्फ एक जानकार को छोड़ कर बाकी सबने इस आइडिया का विरोध किया है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सामने आकर इस प्रस्ताव का विरोध किया है। उन्होंने इसे देश की अर्थव्यवस्था, आम लोगों और बैंकिंग सबके लिए विध्वंसकारी बताया है। इसके बावजूद रिजर्व बैंक इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने को तैयार है।


यह असल में भारत में तेजी से फैल रहे क्रोनी कैपिटलिज्म का ही एक बड़ा और नया रूप होगा। सबसे बड़ी खतरा इसमें यह बताया जा रहा है कि इसमें सीधे कंपनियां अपने बैंक खोलेंगी और जिसे चाहेंगी उसे कर्ज देंगी। उनका अपना कारोबार है, जिसे वे अपने बैंक से फाइनेंस करेंगी। अपने दूसरे कारोबारी सहयोगियों को अपने बैंक से फाइनेंस करेंगी। इसमें किस तरह से नियमों का पालन होगा? हितों का टकराव कैसे टाला जाएगा? कारोबार में प्रतिस्पर्धा के माहौल का क्या होगा? लोगों के जमा पैसे की सुरक्षा का क्या होगा? कहा जा सकता है कि चाहे कोई भी कारपोरेट बैंक खोले, लेकिन उसकी निगरानी रिजर्व बैंक की होती है और उसे बैंकिंग के नियमों के तहत ही काम करना होता है। पर अभी आरबीआई की निगरानी में एक के बाद एक बैंक दिवालिया होने की कगार पर पहुंची हैं उनका क्या? आरबीआई की देख-रेख में दर्जनों बैंकों का एनपीए दिन-दुनी, रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ा है और एनपीए कम दिखाने के लिए बैंकों का विलय और अधिग्रहण करके किसी तरह से परदा डाला जा रहा है। ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि आरबीआई कारपोरेट कंपनियों के बैंकों पर सख्ती से नियमों का लागू करेगी?


आखिर देखते देखते हुए आईएलएंडएफएस जैसी वित्तीय कंपनी में एक लाख करोड़ रुपए के करीब डूब गए और अब डीएचएफएल में 65 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम डूबने वाली है। यह सब भी तो रिजर्व बैंक की देख-रेख में हुआ है? आरबीआई की देख-रेख में ही दर्जनों गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं दिवालिया हो गई हैं या दिवालिया होने की कगार पर हैं। इसके बावजूद सरकार ने बैंकिंग के नियमों में बदलाव करके सहकारी बैंकों के नियंत्रण का काम राज्य सरकारों के हाथ से लेकर आरबीआई को सौंप दिया है, जिसकी विफलता लगातार कई बरसों से जारी है। अब आगे आरबीआई की तैयारियों के मुताबिक बड़े कारपोरेट घरानों को एनबीएफसीज के शेयर दे दिए जाएंगे और बाद में उनको बैंकिंग में तब्दील कर दिया जाएगा। यानी कंपनियां अपना कारोबार करेंगी और साथ साथ बैंक चलाएंगी। उनके बैंकों में लोग पैसे जमा करेंगे, जिससे वे अपने और अपने करीबी लोगों के कारोबार को फाइनेंस करेंगी। फाइनेंस डूब गया या एनपीए बढ़ता गया तो सरकार उनके बैंकों का विलय दूसरे बैंकों में करेगी, इससे भी काम नहीं चला को बैंक एक दिन दिवालिया हो जाएंगे और उसमें पैसा जमा करने वाली जनता आत्मनिर्भर हो जाएगी!


ध्यान रहे 1997-98 के एशियाई संकट के समय ऐसा ही हुआ था। एकदम चकाचौंध के साथ आगे बढ़ रहे पूर्वी एशियाई देशों में अचानक आर्थिक संकट आया था। उस समय सब कुछ इतना अच्छा चलता दिख रहा था कि बैंकिंग और कारपोरेट के रिश्तों पर ध्यान नहीं दिया गया। बैंक खुले हाथ फाइनेंस करते गए। चारों तरफ मॉल बन रहे थे, कॉल सेंटर खुल रहे थे, आईटी आधारित सेवाओं का बाजार बढ़ रहा था और अचानक यह बुलबुला फूटा तो किसी को समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए। बाद में संकट इतना बढ़ गया कि अकेले इंडोनेशिया में अपने बैंकों को बचाने के लिए देश की जीडीपी का 40 फीसदी हिस्सा खर्च करना पड़ा।


भारत में स्थिति पहले से ज्यादा खराब है। यहां कि सबसे बड़ी गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं दिवालिया हो गई हैं। निजी बैंकों पर आपस में ही मिलीभगत करके कर्ज बांटने के मामले में सबसे बड़े निजी बैंक की चेयरपर्सन के ऊपर मुकदमा चल रहा है। ऐसे में भारत में कारपोरेट को बैंक खोलने की इजाजत देना सचमुच विध्वंसकारी हो सकती है। तमाम आर्थिक जानकार मान रहे हैं कि इससे कनेक्टेड लेंडिंग यानी अपने ही कारोबार को फाइनेंस करने की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जिससे अंततः बैंकिंग के साथ साथ कारोबार का पूरा माहौल प्रभावित होगा।


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