भाजपा ने पहला मौका मिलते ही बिहार की राजनीति से सुशील कुमार मोदी को बाहर कर दिया। असल में प्रदेश भाजपा के कई ऐसे नेता तो पार्टी आलाकमान के करीबी माने जाते हैं वे बरसों से इस समय के इंतजार में थे। लेकिन उनका जोर इसलिए नहीं चल पाता था क्योंकि नीतीश कुमार बहुत ज्यादा ताकतवर थे और वे किसी हाल में सुशील मोदी को नहीं हटने देना चाहते थे। असल नीतीश कुमार और सुशील मोदी की जुगल जोड़ी थी। दोनों में संबंध बहुत सहज हैं, जिससे कामकाज में नीतीश को आसानी होती थी। भाजपा के नेता इसकी व्याख्या दूसरे तरीके से करते रहे हैं। उनका कहना था कि सुशील मोदी ने नीतीश के सामने सरेंडर कर दिया है। नीतीश मनमाने तरीके से सरकार चलाते हैं। भाजपा के मंत्रियों के भी सचिव वे अपनी पसंद से नियुक्त करते हैं और सचिव मंत्रियों को काम नहीं करने देते।
ये शिकायते भाजपा आलाकमान के पास पहले से पहुंच रही थीं। इस बार नीतीश कुमार की सीटें इतनी कम हो गईं कि वे मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री में से किसी एक कुर्सी पर ही मोलभाव कर सकते थे। अब वे भाजपा के समर्थन से सातवीं बार मुख्यमंत्री तो बन गए हैं पर यह तय हो गया कि इस बार का कार्यकाल पहले की तरह बहुत सहजता से नहीं चलने वाला है। इस बार उप मुख्यमंत्री उनके कहे के हिसाब से नहीं चलेगा। भाजपा के मंत्री भी अपनी ताकत का इस्तेमाल करेंगे और अधिकारियों की नियुक्ति भी मनमाने तरीके से नहीं हो पाएगी। नीतीश के साथ अतिरिक्त कंफर्ट लेवल होने के साथ साथ सुशील मोदी के खिलाफ यह भी एक शिकायत थी कि उन्होंने बिहार भाजपा का अगड़ा नेतृत्व पूरी तरह से खत्म कर दिया है, जिससे भाजपा को वोट आधार में नाराजगी है। इन सबसे बावजूद अगर नीतीश कुमार के पास 50 से ज्यादा सीटें होती थीं तो वे सुशील मोदी को बाहर नहीं जाने देते।

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