मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

सरकार मजबूत है या विपक्ष?


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शिकायत है कि विपक्षी पार्टियां किसानों को गुमराह कर रही हैं। प्रधानमंत्री यह शिकायत पहले भी कर चुके हैं। सवाल है कि जब सारी बातें वे देश के लोगों को समझा लेते हैं और देश के लोग उनकी बात मान भी लेते हैं। जिनको वे नहीं समझा पाते हैं, उनको पार्टी का आईटी सेल समझा देता है। उनकी पार्टी और आईटी सेल ने तो देश के लोगों को ऐसी ऐसी चीजें समझा रखी हैं, जिनका कोई बेसिक आधार नहीं है। कोई सिर-पैर नहीं है। फिर भी लोग उन बातों पर यकीन करते हैं। फिर हैरानी की बात है कि कृषि कानूनों के मामले में सरकार, प्रधानमंत्री और आईटी सेल मिल कर किसानों को क्यों नहीं समझा पा रहे हैं? और उससे भी अहम है कि विपक्ष के पास इतनी ताकत अचानक कहां से आ गई कि वह इतनी आसानी से किसानों को गुमराह कर ले रहा है?


असल में यह समझाने या गुमराह करने का मामला ही नहीं है। यह असली मुद्दा है और किसान को इसको समझ रहे हैं। इसलिए सरकार उनको नहीं समझा पा रही है। पहले भी नरेंद्र मोदी सरकार को किसानों के मामले में ही पीछे हटना पड़ा था, जब उनकी सरकार ने यूपीए के बनाए भूमि अधिग्रहग कानून को बदलने का प्रयास किया था। तब भी यहीं कहा गया था कि विपक्ष किसानों को गुमराह कर रहा है। हालांकि तब भी किसान अपना हित समझ रहे थे और अब भी समझ रहे हैं। वे सरकार से पूछ रहे हैं कि किसानों का भला करने के लिए तीन कृषि कानून बनाने की मांग सरकार से किसने की थी, किस किसान संगठन ने इसके लिए सरकार से कहा था और किसके साथ बात करके सरकार ने यह कानून बनाया। सरकार के पास इसका जवाब नहीं है। सरकार को असल में 30 लाख करोड़ रुपए से ऊपर के खाने-पीने के चीजों के बाजार को निजी उद्यमियों के हाथ में सौंपना है, जिन्होंने पहले से इसकी तैयारी कर रखी है। इसलिए वह बैकफुट पर है और विपक्ष व किसान संगठन आक्रामक हैं।


वैक्सीन से सुर्खियों का प्रबंधन!



 देश में अचानक कोरोना वायरस की वैक्सीन का हल्ला मच गया है। चारों तरफ सिर्फ वैक्सीन की बात है। प्रधानमंत्री ने एक दिन का ‘वैक्सीन टूर’ किया। अहमदाबाद के जायडस कैडिला की फैक्टरी से लेकर हैदराबाद में भारत बायोटेक और उसके बाद पुणे के सीरम इंस्टीच्यूट का उन्होंने दौरा किया और ऐसा आभास दिया कि अब कोरोना से मुक्ति मिलने वाली है। इसकी वैक्सीन आने वाली है।  प्रधानमंत्री ने वैक्सीन बना रही तीन और कंपनियों- जेनोवा बायोफार्मा, बायोलॉजिकल ई और डॉक्टर रेड्डीज लैब के वैज्ञानिकों व प्रबंधकों से बात की। अब उन्होंने चार अक्टूर को कोरोना वायरस पर सर्वदलीय बैठक भी बुलाई है, जिसमें निश्चित रूप से चर्चा का फोकस वैक्सीन की उपलब्धता, उसकी डिलीवरी, सप्लाई, कोल्ड चेन और लोगों को टीका लगवाने पर होगा।


असल में वैक्सीन का यह पूरा हल्ला सिर्फ एक पीआर एक्सरसाइज है, जिसका अभी कोई खास मतलब नहीं है। वैक्सीन का काम रूटीन की अपनी प्रक्रिया से चल रहा है और खुद प्रधानमंत्री ने दस दिन पहले ही कहा था कि कब तक वैक्सीन आएगी, उसकी कीमत क्या होगी, यह कुछ पता नहीं है। उन्होंने कहा था कि इस बारे में वैज्ञानिक ही बता सकते हैं। सवाल है कि जिसके बारे में कुछ पता ही नहीं है, उसका इतना बड़ा हल्ला मचाने का क्या मतलब है? अगर आप इस हल्ले की टाइमिंग को बारीकी से देखेंगे तो पता चलेगा कि यह असल में सुर्खियों के प्रबंधन का प्रयास है, जिसकी जरूरत अचानक कई कारणों से पड़ गई।


पिछले ही हफ्ते नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी एनएसएसओ की ओर से अर्थव्यवस्था का आंकड़ा जारी होना था और सबको पता था कि लगातार दूसरी तिमाही में भी देश सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर निगेटिव रहनी है। उससे पहले कई राज्यों के किसान संगठनों ने ऐलान कर रखा था कि वे दिल्ली मार्च करेंगे और जब तक सरकार तीन कृषि कानूनों को रद्द नहीं करती है, तब तक प्रदर्शन करेंगे। ठीक उसी समय जब किसान दिल्ली के लिए चले और अर्थव्यवस्था का आंकड़ा आया, तभी प्रधानमंत्री ‘वैक्सीन टूर’ पर निकले और वैक्सीन का हल्ला मचाया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि अर्थव्यवस्था वाला मामला तो पूरा ही सुर्खियों से गायब हो गया, बल्कि उलटे यह माहौल बन गया कि महज साढ़े सात फीसदी की गिरावट आई है इसका मतलब है कि सब कुछ ठीक हो रहा है। हां, वैक्सीन के हल्ले के बावजूद किसान आंदोलन का मामला सुर्खियों से नहीं हट रहा है। इसका फ्रस्ट्रेशन प्रधानमंत्री के सोमवार को काशी में दिए भाषण में भी दिखा।


भले वैक्सीन का हल्ला किसान आंदोलन से कमजोर पड़ रहा है पर यह तय मानें कि अब इसका शोर थमने वाला नहीं है। अब सिर्फ इसी का शोर होगा क्योंकि यह सरकार के अनुकूल है। इससे कई चीजों से ध्यान भटकाने में आसानी हो रही है। इससे कोरोना वायरस के अब तक के प्रबंधन का सवाल खत्म हो गया है। यह कोई नहीं पूछ रहा है कि कोरोना काल में स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के लिए क्या कदम उठाए गए। अर्थव्यवस्था और रोजगार के लिए सरकार क्या कर रही है, यह भी नहीं पूछा जाएगा। पीएम केयर्स फंड की तो अब कोई बात ही नहीं करता। अभी भाजपा ने हैदराबाद में जम कर प्रचार किया, रैलियां हुईं और रोड शो हुए हैं। अगले कुछ दिन में यह सब कुछ पश्चिम बंगाल, असम और दूसरे कई राज्यों में होने वाला है। सो, वैक्सीन के हल्ले में यह बात भी दबी रहेगी कि आखिर राजनीतिक रैलियों से कोरोना क्यों नहीं फैल रहा है? सो, पूरा देश अब अगले दो तीन साल सिर्फ वैक्सीन की चर्चा में मगन रहेगा। यह प्रचार चलता रहेगा कि नरेंद्र मोदी देश के 130 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगवा रहे हैं। इसी योजना के तहत वैक्सीन की पूरी व्यवस्था को केंद्रीकृत किया गया है और सब कुछ केंद्र सरकार की कमान में रखा गया है ताकि राज्यों को इसका श्रेय नहीं मिल सके।


परंतु इस पूरे हल्ले में एक बड़ा सवाल यह है कि आखिर वैक्सीन आ जाएगी तो उससे क्या होगा? क्या सारे लोगों को सरकार हाथों हाथ टीका लगवा देगी? क्या सारे नागरिक कोरोना वायरस के खतरे से मुक्त हो जाएंगे? क्या देश और समाज पहले जैसा हो जाएगा? क्या देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी? असल में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। कम से कम अभी अगले दो-तीन साल तक ऐसा कुछ नहीं होगा। वैक्सीन आने के बावजूद इस बात की गारंटी नहीं है कि कोरोना का वायरस नहीं फैलेगा क्योंकि 95 फीसदी सफलता का दावा करने वाली कंपनी भी यह नहीं कह रही है कि उसकी वैक्सीन जो एंटी बॉडी तैयार करेगी वह व्यक्ति के शरीर में कब तक रहेगी? इस वैक्सीन के सैकड़ों स्ट्रेन बताए जा रहे हैं तो कितने स्ट्रेन्स को पकड़ कर वैज्ञानिकों ने वैक्सीन बनाई है यह भी पता नहीं। इससे संक्रमित व्यक्ति के शरीर में अपने आप जो एंटी बॉडी तैयार हो रही है उसकी मियाद 90 दिन बताई जा रही है कि पर पूरी दुनिया में कम से कम दो दर्जन मामले ऐसे आए हैं, जिनमें 90 दिन के भीतर लोगों को कोरोना का दोबारा संक्रमण हुआ। सो, कोई भी वैक्सीन स्थायी रूप से कोरोना से बचाए रखने की गारंटी नहीं है। इसका मतलब है कि कोरोना रहेगा, अस्पतालों में कोरोना के वार्ड बने रहेंगे, वैक्सीन के साथ साथ महंगाई इलाज चलता रहेगा, लोगों को मास्क लगाए रखना होगा और धीरे धीरे सारी चीजों से हाथ धोते जाना होगा।


और वैसे भी जिस बीमारी में 90 फीसदी से ज्यादा लोग अपने आप ठीक हो रहे हैं, उस बीमारी के टीके का इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? आईसीएमआर ने खुद माना है कि 80 फीसदी लोगों में कोई लक्षण ही नहीं आ रहे हैं। जिनमें लक्षण आ रहे हैं उनमें से 80 फीसदी से ज्यादा लोग घर में रह कर ही ठीक हो जा रहे हैं। जिनमें लक्षण दिखते हैं उनमें से पांच फीसदी लोगों को ही अस्पताल जाने या किसी विशेष इलाज की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में वैक्सीन की 90 फीसदी सफलता की तो वैसे ही गारंटी है। फिर किस बात का ढोल पीटा जा रहा है! इस हल्ले में कोई इसके साइड इफेक्ट की चर्चा नहीं कर रहा है। इससे पहले जितने टीके हड़बड़ी में आए हैं, उनसे बड़ा नुकसान हुआ है। पोलियो के शुरुआती टीके से हजारों लोग स्थायी रूप से विकलांग हुए थे, इस तथ्य को ध्यान में रखने की जरूरत है। बहरहाल, कुल मिला कर वैक्सीन के शोर से बाकी सारी सुर्खियों को दबाए रखना है और देश के 130 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगवानी है। यह हजारों या लाखों करोड़ रुपए का खेल है, जिसका फायदा कहने की जरूरत नहीं है कि कुछ गिनी-चुनी फार्मा कंपनियों को मिलने वाला है।


झूठ और मिथ्या प्रचार से कोई मिशन सफल नहीं हो सकता : राहुल-प्रियंका


 कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी तथा महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने सरकार पर हमला करते हुए कहा है कि वह झूठ और मिथ्या प्रचार को आधार बनाकर काम करती है इसलिए किसान आंदोलन खत्म करने का उसका कोई मिशन सफल नहीं हो सकता है।


गांधी ने ट्वीट किया , किसान की आय दुगनी होगी। ‘मित्रों’ की आय हुई चौगुनी और किसान की होगी आधी। झूठ की, लूट की, सूट-बूट की सरकार।


इसके साथ ही गांधी ने एक वीडियो भी पोस्ट किया है जिसमें पुलिस किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़ और लाठी बरसा रही है तथा पानी की बौछारें कर और कंटीले बेरिकेटर लगाकर आंदोलनकारी किसानों को रोक रही है।


वाड्रा ने कहा, “ जब सरकार का उद्देश्य केवल ढोंग और झूठा प्रचार हो तो मिशन फेल हो ही जाएंगे। उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों पर पर्दा डालने के लिए भाजपा सरकार का मिशन शक्ति फेल रहा। युवती को जलाने वालों के खिलाफ एक महीने बाद केस हो रहा है। अपराध बढ़ते जा रहे हैं।”



इसका क्या जवाब है?


 नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के प्रति बेरहमी दिखाने और आंदोलन को बदनाम करने के लिए प्रचार अभियान छेड़ने वाली केंद्र सरकार के पास क्या इस बात कोई जवाब है कि किसानों के लिए बनाई गई योजनाओं को पूरा करने में उसने वैसी ही तत्परता क्यों नहीं दिखाई है? इस हाल में अगर किसान सरकार की नीयत पर शक करते हैं, तो क्या इसका दोष उन्हें दिया जाना चाहिए? इस बात पर गौर कीजिए। कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) मंडियों की पहुंच से दूर कई किसानों, खास कर छोटे एवं सीमांत कृषकों को लाभ पहुंचाने के लिए ग्रामीण हाटों को कृषि बाजार में परिवर्तित करने की योजना खुद सरकार ने बनाई थी। लेकिन वह अब भी ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है। एक वेबसाइट ने इस बारे में आरटीआई के जरिए सूचना हासिल की। इसके मुताबिक नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के 22,000 हाटों को ग्रामीण कृषि बाजार बनाना का लक्ष्य रखा था।


लेकिन अब तक एक भी हाट को कृषि बाजार में परिवर्तित या विकसित नहीं किया जा सका है। यह किसानों को बेहतर कृषि बाजार देने के केंद्र एवं राज्य सरकारों के दावों पर सवालिया निशान खड़े करता है। किसानों की आय दोगुनी करने लिए बनी समिति की सिफारिश को स्वीकार करते हुए सरकार ने 2018-19 के बजट में घोषणा की थी कि कृषि उत्पादों की बिक्री तंत्र को मजबूत करने के लिए देश भर के 22,000 ग्रामीण हाटों को कृषि बाजार में तब्दील किया जाएगा। कहा गया कि जो किसान एपीएमसी मंडियों तक नहीं पहुंच पाते हैं, वे अपने नजदीक इन हाटों में फसल बेचकर लाभकारी मूल्य प्राप्त कर सकेंगे। इसमें से 10,000 ग्रामीण कृषि बाजारों में मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए सरकार ने नाबार्ड के अधीन 2,000 करोड़ रुपये के एग्री-मार्केट इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (एएमआईएफ) को मंजूरी दी थी। इस फंड का उद्देश्य राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को सस्ती दर (करीब छह फीसदी) पर लोन देना है, ताकि वे इस पैसे का इस्तेमाल कर अपने यहां के हाटों को कृषि बाजार में परिवर्तित कर सकें। नाबार्ड के मुताबिक इस फंड को प्राप्त करने के लिए अभी तक एक भी राज्य ने प्रस्ताव नहीं भेजा है। जबकि 31 मार्च 2020 तक राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के भेजे प्रस्तावों और उनके सत्यापन के बाद इस योजना के तहत फंड दिया जाने वाला था। तो किसानों का हित साधने के लिए सरकार के उत्साह की असली तस्वीर यह है।


किसान की आय कितनी है?


 देश के एक औसत किसान की कितनी आय होती है? यह यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब हर उस व्यक्ति से पूछा जाना चाहिए, जो यह कहता है कि 2022 तक किसान की आय दोगुनी कर दी जाएगी। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह बात कही है और केंद्रीय कृषि मंत्री ने भी कहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह बात पिछले छह साल से कह रहे हैं। लेकिन क्या किसी मंत्री ने यह बताया है कि जब प्रधानमंत्री ने किसान की आय दोगुनी करने का ऐलान किया तो उनकी आय कितनी थी और 2022 में कितनी हो जाएगी? कम से कम यह बता देते कि पिछले छह साल के अथक प्रयास से, जिसमें कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय करना भी शामिल है, किसानों की आय कितनी बढ़ गई है? जब अगले एक-डेढ़ साल में आय दोगुनी होने वाली है तो साढ़े छह साल में पौने दोगुनी तो हो गई होगी? या अचानक ही दोगुनी हो जाएगी, अभी जहां के तहां अटकी है?


क्या सरकार के पास किसान की आय की गणना करने का कोई फॉर्मूला है? जैसे नौकरी करने वालों को वेतन मिलता है, महंगाई भत्ता और दूसरे भत्ते मिलते हैं, जिनके आधार पर आकलन होता है कि उनको पूरे साल में कितनी आय हुई! कारोबारी अपना आय कर रिटर्न या जीएसटी रिटर्न दाखिल करता है, जिसमें वह आमदमी और खर्च का हिसाब बताता है तो उससे पता चलता है कि उसे कितनी आय हुई। उसी तरह क्या कोई तरीका है, जिससे पता चले कि किसान की आय कितनी हुई? उसकी आमदमी और खर्च का क्या हिसाब होता है? सरकार हो या निजी कंपनियां हों हर साल अपने कर्मचारियों के वेतन, भत्ते का ख्याल रखती हैं तो उससे पता चलता है कि कितनी वेतन बढ़ोतरी या कमी हुई। क्या ऐसा कोई हिसाब किसानों का रखा जाता है?


हकीकत यह है कि सरकार के पास कोई फॉर्मूला नहीं है। भारत जैसे देश में कोई फॉर्मूला हो भी नहीं सकता है क्योंकि भारत में खेती-किसानी का दायरा इतना बड़ा है। इतने लोग इस पर आश्रित हैं और इतने तरह से लोग खेती के काम में शामिल हैं कि उनकी आमदनी और खर्च का हिसाब लगाना ही मुश्किल है। देश के अलग अलग राज्यों में किसानों की स्थितियां अलग अलग होती हैं। पंजाब और हरियाणा में अनाज मंडियां हैं और मंडियां बहुत सुनियोजित तरीके से काम करती हैं। वहां किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की दर पर अपना अनाज बेचता है तो उसका हिसाब लगाना अपेक्षाकृत आसान है। पर बाकी राज्यों में जहां मंडियों की व्यवस्था नहीं है वहां किसान का अनाज औने-पौने दाम में बिकता है। उनके पास न तो भंडारण की व्यवस्था है और न उनकी हैसियत इतनी है कि वह अनाज को भंडार करके रखे। सो, खेत से फसल आते ही जो दाम मिलता है वह उस पर अपनी फसल बेच देता है। सो, व्यवस्थित तरीके से किसान की आय का हिसाब करना संभव नहीं है।


भारत में सरकार को किसान की आय की कितनी चिंता है, इस बात को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी एनएसएसओ के पास 2012-13 के बाद के किसान की सालाना आय का आंकड़ा नहीं है या कम से कम उसे जारी नहीं किया गया है। 2012-13 के एनएसएसओ के आंकड़े 2016 में प्रकाशित हुए थे। इनके मुताबिक भारत में एक किसान परिवार की औसत आय 6,426 रुपए महीना यानी 77,112 रुपए सालाना थी। सोचें, पांच लोगों के एक औसत परिवार की आय 6,426 रुपए थी यानी प्रति व्यक्ति डेढ़ हजार रुपए से भी कम! जैसे ही इस आंकड़े को किसान की औसत जोत के आधार पर देखते हैं वैसे ही और हैरान करने वाली बात सामने आती है। एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक ही आधा हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान परिवार की मासिक औसत आय 4,152 रुपए है और जिस किसान की जोत 10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा की है उसकी मासिक आमदनी 41,388 रुपए है। जिस हिसाब से कृषि से जुड़े उत्पादों की कीमत बढ़ी है, उस आधार पर अगर सालाना बढ़ोतरी का हिसाब लगाएं तो 2019 तक एक किसान परिवार की औसत आमदनी 10,329 रुपए बनती है।


लेकिन यह आंकड़ा भी एक किस्म का भ्रम है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में कृषि से जुड़े कंपोनेंट्स की कीमत बढ़ने का मतलब यह नहीं है कि उसका फायदा किसान को हो रहा है। उसका फायदा शायद ही कभी किसान को मिलता है। किसान के ऊपर कृषि की लागत बढ़ते जाने का बोझ तो पड़ता है लेकिन उसकी आमदनी नहीं बढ़ती है। तभी सबसे पहली जरूरत यह होनी चाहिए कि सरकार किसान की निश्चित आय तय करे। जैसे दुनिया के तमाम विकसित देशों ने सब्सिडी देकर अपने किसानों की आय तय की है, उस तरह से। इसके लिए कृषि लागत के अनुपात में आमदनी सुनिश्चित करने का फॉर्मूला बने और उसे लागू किया जाए।


सारी सरकारें एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों की चर्चा करती हैं पर उसे लागू कोई नहीं करता। इस फॉर्मूले के मुताबिक कृषि लागत को तीन हिस्सों में बांटा गया है। एक, जो किसान खेती के लिए नकद खर्च करता है, जैसे बीज, खाद, सिंचाई, केमिकल, मजदूरी आदि। दूसरा, जो फैमिली लेबर है यानी किसान का परिवार, जो मेहनत करता है और तीसरा हिस्सा होता है जमीन का किराया और खेती में इस्तेमाल होने वाली मशीनरी का खर्च। इन तीनों को मिला कर स्वामीनाथन आयोग ने लागत निकाली थी, जिसके ऊपर 50 फीसदी मुनाफा किसानों को देने की बात थी। इसे ए2, एफएल प्लस सी2 फॉर्मूले का नाम दिया गया था।


इस तरह से लागत निकाल कर उसके ऊपर किसान को 50 फीसदी आमदनी देने का फॉर्मूला तो तभी बन या सफल हो सकता है, जब सरकार पूरे देश में इस फॉर्मूले के आधार पर हर फसल की लागत तय करे और उसके ऊपर 50 फीसदी मुनाफे के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करे और साथ ही यह सुनिश्चित करे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर देश में कहीं भी किसानों के उत्पाद की खरीद-बिक्री नहीं होगी। लेकिन अफसोस की बात है कि सरकार ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बना रही है, जिससे किसान की न्यूनतम आय सुनिश्चित हो। उलटे वह पूरे देश में ऐसी व्यवस्था बना रही है, जिसमें किसान कारपोरेट और उद्यमियों के हाथ में खिलौना बन जाए। सरकार ने नए कृषि कानूनों से ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिसमें कोई भी व्यक्ति कहीं भी किसान की फसल खरीद सकता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य चुकाने की कोई बाध्यता नहीं होगी। ऊपर से ऊपर फसल की कीमत या भुगतान को लेकर विवाद होता है तो एसडीएम की अदालत में भागदौड़ करनी पड़ेगी।


इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि किसान को अंततः बाजार द्वारा तय की गई दर पर अपनी फसल बेचनी होगी और जब ऐसा होगा तो किसान की आय कैसे बढ़ेगी? खेती वैसे भी किसान के लिए लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। सरकार समझ रही है कि साल में किसानों को छह हजार रुपए यानी 17 रुपए रोज की ‘सम्मान निधि’ देकर वह उनका भला कर रही है। पर असल में वह छह हजार रुपए की राशि सिर्फ इसलिए शुरू की गई थी ताकि जब खेती-किसानी को कारपोरेट के हाथों सौंपने का कानून बने तो सरकार के पास कहने को रहे कि वह किसानों को ‘सम्मान निधि’ दे रही है। वह असल में किसानों को एक बड़े दुष्चक्र में फंसाने की योजना का हिस्सा है।


सोमवार, 30 नवंबर 2020

समस्या सिर्फ किसान की नहीं है!


 देश के कई राज्यों के किसान इस कड़ाके की ठंड़ में प्रदर्शन कर रहे हैं और दिल्ली की सीमा पर डटे हैं तो ऐसा बताया जा रहा है, जैसे केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानून, किसानों की अपनी समस्या हैं, जिसका समाधान वे सरकार से चाहते हैं। कुछ लोग इसे और संकीर्ण दायरे में बांधते हुए यह संकेत दे रहे हैं कि समस्या सिर्फ पंजाब और हरियाणा के कुछ किसानों की है। इसे और छोटा बनाने या इसकी साख बिगाड़ने वाला यह प्रचार भी किया जा रहा हैं कि यह पंजाब के आढ़तियों और वहां की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रायोजित आंदोलन है, जिसके पीछे खालिस्तान की ताकतें भी लगी हैं। अब सबकी अपनी श्रद्धा और समझदारी है, जिसके हिसाब से वह किसानों के आंदोलन को देख-समझ रहा है।


परंतु असल में यह सिर्फ किसानों की या पंजाब-हरियाणा के किसानों की समस्या नहीं है, बल्कि देश की समस्या है। केंद्र सरकार ने जो तीन कानून बनाए हैं, वे खेती-किसानी के साथ-साथ देश की पारिस्थितिकी और देश की खाद्य सुरक्षा तीनों को संकट में डालने वाले हैं। ये कानून सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का अधिकार छीनने या मंडियों में अनाज बेचने या नहीं बेचने से नहीं जुड़े हैं, बल्कि ये कानून किसानों को खेती से निकाल कर उनको मजदूर बनाने की दशकों से चल रही साजिश को आगे बढ़ाने वाले हैं। एमएसपी का मामला तो इसका एक पहलू है, जो एक कानून से जुड़ा है। लेकिन संविदा पर खेती और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव के दो और कानून भी तो हैं, जिन पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए जो नहीं हुई है!


असल में यह सिर्फ अभी का तात्कालिक मामला भी नहीं है, जो यह आसानी से सुलझ जाएगा। सरकार ने कोरोना वायरस की महामारी में आपदा को अवसर बनाते हुए बहुत सोच समझ कर ये कानून बनाए हैं। सबसे पहली समस्या तो वहीं से शुरू हुई, जब इन्हें अध्यादेश के रूप में लागू किया गया और बाद में बिना किसी चर्चा के लगभग जोर जबरदस्ती संसद से पास कराया गया। अगर सरकार की मंशा ठीक होती या वह खुले दिन से किसानों के मसले पर विचार करने को तैयार होती तो इतनी जबरदस्ती के साथ इन कानूनों को पास नहीं कराया जाता। सरकार ने जबरदस्ती तीनों कानून पास कराए हैं, इसलिए तय मानें कि वह इसमें कोई खास बदलाव नहीं करने जा रही है। उसके हाथ बंधे हुए हैं और कहने की जरूरत नहीं है किसकी वजह से हाथ बंधे हुए हैं!


अगर सरकार प्रदर्शन कर रहे किसानों को संतुष्ट करना चाहे तो उसके लिए यह काम दो मिनट का है। आंदोलन कर रहे ज्यादातर किसान सिर्फ एक बात समझ रहे हैं। वे चाहते हैं कि मंडियों में एमएसपी पर अनाज बेचने की इजाजत हो। सरकार कह रही है कि उसने एमएसपी की व्यवस्था खत्म नहीं की है, बस अनाज मंडियों से बाहर भी किसानों को अनाज बेचने की इजाजत दे दी है। आंदोलन कर रहे किसानों का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ यह चाहता है कि सरकार कानून में बदलाव करके यह जोड़ दे कि एमएसपी से कम कीमत पर कहीं भी अनाज की खरीद-बिक्री नहीं होगी। एमएसपी से कम कीमत पर अनाज की खरीद-बिक्री को गैरकानूनी बनाने का प्रावधान अगर कानून में जोड़ दिया जाए तो किसान संतुष्ट हो जाएंगे।


पर यह पूरी समस्या का सिर्फ एक पहलू है। यह बहुत छोटा पहलू है, हालांकि हैरानी की बात है कि अगले एक-डेढ़ साल में किसानों की आय दोगुनी करने का चमत्कार करने का दावा कर रही सरकार यह छोटी समस्या भी नहीं सुलझा रही है।


केंद्र के बनाए तीन कृषि कानूनों की असली समस्या कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी संविदा पर खेती कराने वाले बिल और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करके कारोबारियों व उद्योगपतियों को मनचाही मात्रा में अनाज का भंडारण करने की इजाजत देने वाले कानून से है। इस कानून के लागू होने के दो-तीन महीने के भीतर ही जरूरी चीजें की कीमतें जिस तरह से बढ़ने लगी हैं वह सबको दिख रहा है। खाने-पीने की चीजों की खुदरा महंगाई दर में बढ़ोतरी की चिंता में ही भारतीय रिजर्व बैंक ने नीतिगत ब्याज दरों में बदलाव का फैसला टाला है। केंद्रीय बैंक को अंदेशा है कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई और बढ़ेगी। ऐसे में अगर नीतिगत ब्याज दरों में कटौती की गई तो मुद्रास्फीति की दर बहुत बढ़ सकती है।


सो, अगर इससे महंगाई बढ़ती है तो सवाल है कि यह समस्या सिर्फ किसान की कैसे हुई? यह तो आम आदमी की समस्या है। खाने-पीने के चीजों के भंडारण की सीमा खत्म की गई है, जिससे अनाज के दाम बढ़ने लगे हैं तो इसका असर तो व्यापक समाज पर हो रहा है! इतनी सरल सी बात आखिर लोगों को समझ में क्यों नहीं आ रही है कि सरकार ने इस कानून के जरिए देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है? यह लोगों को क्यों नहीं दिख रहा है कि देश के दो सबसे बड़े कारोबारी किस तेजी से खाने-पीने की चीजों के उत्पादन और उनकी बिक्री के बाजार में घुस रहे हैं, किस पैमाने पर भंडारण की व्यवस्था कर रहे हैं और कैसे विलय व अधिग्रहण के जरिए खुदारा कारोबार पर कब्जा कर रहे हैं? आखिर इस काम में उनकी इतनी दिलचस्पी कैसे पैदा हुई है?


एमएसपी और आवश्यक वस्तु अधिनियम कानून में बदलाव के बाद तीसरा कानून संविदा पर खेती का है। यह कानून देश के किसानों को खेती से निकाल कर उनको मजदूर बना देने वाला है। देश में करीब 90 फीसदी किसान डेढ़-दो एकड़ की जोत वाले हैं, जिनके लिए पहले से खेती करना मुश्किल काम हो गया है। कृषि की लागत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि वे खुद ब खुद खेती से बाहर हो रहे हैं। सरकारें स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की बातें करती हैं पर किसी ने इसकी पहल नहीं की है। सो, किसान पहले से परेशान है। उसे अब एक आसान विकल्प दिया जा रहा है कि वह कारोबारियों-उद्यमियों के साथ करार करे और अपनी ही जमीन पर मजदूर की तरह काम करे, जिसके बदले में उद्यमी उसको उसकी सेवाओं की कीमत देगा।


पारंपरिक किसान का इस तरह से खेती के काम से बाहर होना कई तरह के संकट को न्योता देने वाला है। सबसे पहले तो गांवों की पूरी सामाजिक संरचना प्रभावित होगी। कॉरपोरेट फार्मिंग में ज्यादा खेत मजदूर की जरूरत नहीं रह जाएगी। इससे गांवों से पलायन तेज होगा। देश की मौजूदा आर्थिक हालत को देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं है कि किसी भी सेक्टर में इतनी क्षमता नहीं है कि वह खेती-किसानी से हटे सब लोगों को रोजगार दे सके। सो, बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ेगी। पारंपरिक किसान के खेती से बाहर होने का एक बड़ा खतरा यह है कि कॉरपोरेट फार्मिंग में कंपनियों का ध्यान सिर्फ मुनाफा कमाने पर केंद्रित होगा। वे पारंपरिक फसलों की बजाय नकदी और कमाई करने वाली फसलों की खेती पर फोकस करेंगी। इससे जमीन की गुणवत्ता खराब होगी और ग्रीन हाउस गैसेज का उत्पादन बढ़ेगा, जिससे अंततः पूरी पारिस्थिति प्रभावित होगी। यानी सरल शब्दों में कहें तो केंद्र के बनाए तीन कृषि कानून प्रदर्शन कर रहे किसानों से ज्यादा देश के 130 करोड़ लोगों के जीवन, समाज और पारिस्थितिकी के लिए संकट हैं।


शनिवार, 28 नवंबर 2020

कांग्रेस को सलाहवीर नहीं संघर्षवीर चाहिए

 


कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने माफ करो और भूल जाओ की अपनी उदारता के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा पर बनाई एक महत्वपूर्ण नई कमेटी में गुलामनबी आजाद को मनोनीत किया है। पर दो दिन भी नहीं हुए कि आजाद ने फिर मीडिया के माध्यम से कांग्रेस पर हमला बोल दिया। आश्चर्यजनक है कि इस बार उनका निशाना काफी जूनियर नेताओं पर है। आजाद ने संगठन चुनाव की तो बात की जो वे पहले भी कुछ नेताओं के साथ मिलकर लिखी चिट्ठी में कर चुके हैं मगर इस बार उन्होंने एक नया शिगुफा फाइव स्टार कल्चर का छेड़ा है।


बिहार चुनाव के बाद दिए इस इंटरव्यू में वे कांग्रेस पर पांच सितारा होटल कल्चर में लिप्त होने का हास्यास्पद आरोप लगा रहे हैं। जबकि मजेदार बात है कि बिहार में तो अभी तक कोई फाइव स्टार होटल ही नहीं है। और बिहारी कल्चर इतना मजबूत है कि यहां कोई दूसरा कल्चर पनप ही नहीं सकता है। पटना में ले देकर दो तीन ही ठीक ठाक होटल हैं। इनमें से एक तो चुनाव से पहले ही बीजेपी ने पूरा बुक करा लिया था। बाकी दो होटलों में भी जिन नेताओं के रूकने का आजाद आरोप लगा रहे हैं वे वहां रूके ही नहीं। ज्यादातर नेता दोस्तों के घरों में रुके। लगता है कुछ नई जानकारी देने के नाम पर किसी ने आजाद को हवाई कहानियां सुना दीं। बिहार में कांग्रेस की कम सीटें जीतने के कई कारण हो सकते हैं मगर नेताओं के कथित फाइव स्टार में रूकने से कांग्रेस हारी यह आरोप तो बेहद हल्के स्तर का हो गया।खैर, जिस फाइव स्टार कल्चर की आजाद को याद आई तो वह या तो शुरू से कांग्रेस में रही है तब से जब आजाद यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष थे या फिर वह है ही नहीं! ऐसा नहीं हो सकता कि वह आपके समय नहीं रही हो और आज जब वह अपने सबसे कमजोर टाइम में चल रही हो तो अचानक उसका उदय हो जाए।


यहां सिर्फ याद दिलाने के लिए कैटल क्लास का जिक्र कर रहा हूं कि इसे कहने वाले शशि थरूर भी गुलाम नबी आजाद के साथ 23 पत्र लेखकों में शामिल थे। सोनिया गांधी या राहुल पर आप चाहे जितने आरोप लगा लो मगर प्रदर्शन प्रियता का आरोप शायद कोई विरोधी भी न लगा पाए। सादगी और सभ्यता इस परिवार के जीवनसंस्कारों में है। तो यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के कहने से यूपीए सरकार ने अपने मंत्रियों से सादगी बरतने को कहा था। फाइव स्टार होटलों और हवाई जहाज के बिजनेस क्लास से दूर रहने को कहा था। तब सरकार में मंत्री थरूर ने व्यंग्य किया था कि क्या अब उन्हें ‘ कैटल क्लास ‘ (जानवरों का तरह) में चलना पड़ेगा? और जनता क्लास के लिए कैटल क्लास उपयोग करने की सज़ा थरूर को मिली थी। उनका मंत्री पद छीन लिया गया था।


सवाल है कि राहुल गांधी पर अप्रत्यक्ष हमला करने वालों में से क्या किसी कांग्रेसी ने उनके 16 साल की राजनीतिक यात्रा को नजदीक से देखा है?  शुरूआती दौर में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ आंदोलन करते हुए राहुल मई जून की तपती हुई दोपहरी में 46- 47 डिग्री तापमानमें  झांसी की सड़कों पर धरना देकर बैठ गए थे। आलोचना करने के लिए बहुत सारे पाइंट हो सकते हैं मगर राहुल के सड़कों के संघर्ष को भट्ठा पारसौल से लेकर अभी हाल में हाथरस जाते हुए पुलिस के गिरा देने तक के एक से बढ़कर एक कई उदाहरण हैं। लेकिन अफसोस कांग्रेस पर जमीन से कट जाने के आरोप लगाने वालों के पास अपनी चार दशक से ज्यादा की राजनीति में ऐसा सड़क पर उतरने का एक भी उदाहरण नहीं होगा।


एक बहुत मशहूर शेर का मिसरा (एक पंक्ति) है- “ बुत हमसे कहें काफिर! “ कांग्रेस के विघ्नसंतोषियों पर यह पूरी तरह फिट होता है। कुछ बातें बताना अच्छी नहीं लगतीं। मगर समय कभी ऐसा भी होता है कि कहना पड़ती हैं। तो नेशनल हेराल्ड मामले में 5 साल पहले जब सोनिया गांधी, राहुल को अदालत से जमानत करवाना पड़ी तो आजाद ने कहा कि वे पहली बार अदालत में गए। चार दशक से ज्यादा समय से राजनीति करने वाले किसी नेता को इस बीच पुलिस मुकदमों और अदालत से वास्ता न पड़ा हो तो उसके सफर को क्या कहना चाहिए? जमीनी संघर्ष या फाइव स्टार कम्फर्ट?


सत्तर के दशक में जम्मू कश्मीर के तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ  आजाद इंदिरा गांधी के पास आए थे। उसके बाद उन्होंने तरक्की की जो सीढ़ियां चढ़ी वैसी राजनीति में कम लोगों को नसीब हुई हैं। कांग्रेस की हर सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया। कम लोगों को यह बात पता होगी कि अपने गृह राज्य जम्मू कश्मीर से वे बहुत देर बाद 1996- 97 में संसद पहुंचे।


तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने उन्हें राज्यसभा सीट दी। इससे पहले कांग्रेस नेतृत्व उन्हें दूसरे राज्यों से संसद पहुंचाता रहा। यह राजनीति का सामान्य चलन है। मगर आज अचानक जब कांग्रेस अपने सबसे खराब दिनों में है तो नेतृत्व के साथ जुटकर काम करने के बदले उसे उपदेश दिए जा रहे हैं।  आदर्शवाद की उच्चतम राजनीति करने की सलाहें दी जा रही हैं।


यह वैसा ही है कि जब परेशानी में मददगार की जरूरत हो और आपसे सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाले सलाहकार बन जाएं!  सबसे दुखद यह है कि इन सलाहों में कोई ईमानदारी नहीं है। आश्चर्यजनक है कि आज जो लोग कांग्रेस में ब्लाक से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष तक के चुनाव करवाने की मांग कर रहे हैं ये वही लोग है जो राहुल के एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के चुनाव करवाने के फैसले का मजाक उड़ाते थे। कांग्रेस में चुनाव की मांग इस तरह उठाई जा रही है कि जैसे यहां चुनाव होते ही नहीं हों। अभी तीन साल पहले कांग्रेस ने पूरी


पारदर्शिता और विधि विधान से अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव करवाया था। जिसमें राहुल गांधी निर्विरोध चुने गए थे।यही नेता थे, मीडिया था किसी ने भी उस समय चुनाव की प्रक्रिया पर एक ऊंगली तक नहीं उठा पाए थे। खुदसोनिया गांधी संगठन का चुनाव लड़ीं। 20 साल पहले जितेन्द्र प्रसाद उनके खिलाफ अध्यक्ष पद का चुनाव लड़े। राजेश पायलट उनके प्रमुख सहयोगी थे। और जीतने के बाद सोनिया ने वैसे ही जैसे अभी राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाए रखे हुए आजाद के खिलाफ बदले की कोई भावना नहीं रखी उनके खिलाफ भी कभी कोई दुराव नहीं बरता। दोनों के न रहने पर उनकी पत्नियों को कांग्रेस का टिकट दिया। जितेन्द्र प्रसाद की पत्नी कांता प्रसाद नहीं जीत सकीं मगर राजेश पायलट की पत्नी रमा पायलट जीतीं। दोनों के लड़कों ने बगावत की मगर


सोनिया ने दोनों जतिन और सचिन को मंत्री बनाया। उन सोनिया पर जब वे अस्वस्थता के बावजूद कांग्रेसी नेताओं के कहने से ही पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं आरोप पर आरोप लगाना कहां की पार्टी के प्रति वफादारी है।कांग्रेस के लिए यह सबसे कठिन संघर्ष का दौर है। और ऐसे में रोज घर के भेदी लंका ढहाने में लगे हुए हैं। आजाद से पहले कपिल सिब्बल भी नेतृत्व पर हमला बोल चुके हैं। बिहार का हारना जैसे इन लोगों के लिए एक अवसर बन गया। अभी और चुनाव आएंगे। हारना जीतना लगा रहेगा। लेकिन देखने वाली बात


बस एक होगी कि राहुल हिम्मत तो नहीं हारते! सर्किल में खूब कहा जा रहा है कि भाजपा और उससे पहले जनसंघ तो इतने चुनाव हारती रही। लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी।सचमुच कांग्रेस को घबराने की क्या जरूरत है? यह समय है बदलेगा तो फिर लोग कांग्रेस को लाएंगे। यही सच्चाई है। दुनिया भर में आज एक अलग तरह की राजनीति हो रही है। अमेरिका में चुनाव हार कर भी ट्रंप मानने को तैयार नहीं हैं। तो ऐसे में कुछ कांग्रेसियों द्वारा जहाज डूबने की भविष्यवाणियां करने का कोई मतलब नहीं है। शायद वे कांग्रेस रूपी जहाज से कूद कर किसी दूसरे जहाज में शरण लेने की भूमिका बना रहे हों। जो भी हो कांग्रेस का जहाज इस समय देश में विपक्ष का जहाज है जिसे जनता इतनी आसानी से डूबने नहीं देगी।


शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है


ट्रांसपेरेन्सी इन्टरनेशनल की ताजा रपट के अनुसार एशिया में सबसे अधिक भ्रष्टाचार यदि कहीं है तो वह भारत में है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को इससे गंदा प्रमाण-पत्र क्या मिल सकता है ? इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि भारत में लोकतंत्र या लोकशाही नहीं, नेताशाही और नौकरशाही है ? भारत में भ्रष्टाचार की ये दो ही जड़े हैं। पिछले पांच-छह साल में नेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें काफी कम आई हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त हो गई है। उसका भ्रष्टाचार मुक्त होना असंभव है। यदि नेता लोग रिश्वत नहीं खाएंगे, डरा-धमकाकर पैसा वसूल नहीं करेंगे और बड़े सेठों की दलाली नहीं करेंगे तो वे चुनावों में खर्च होनेवाले करोड़ों रु. कहां से लाएंगे ? उनके रोज खर्च होनेवाले हजारों रु. का इंतजाम कैसे होगा ?


उनकी और उनके परिवार की ऐशो-इसरत की जिंदगी कैसे निभेगी ? इस अनिवार्यता को अब से ढाई हजार साल पहले आचार्य चाणक्य और यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अच्छी तरह समझ लिया था। इसीलिए चाणक्य ने अपने अति शुद्ध और सात्विक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत किया और प्लेटो ने अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में ‘दार्शनिक राजा’ की कल्पना की, जिसका न तो कोई निजी परिवार होता है और न ही निजी संपत्ति। लेकिन आज की राजनीति का लक्ष्य इसका एक दम उल्टा है। परिवारवाद और निजी संपत्तियों के लालच ने हिंदुस्तान की राजनीति को बर्बाद करके रख दिया है।  नेताओं का भ्रष्टाचार ही नौकरशाहों को भ्रष्ट होने के लिए प्रोत्साहित करता है। हर नौकरशाह अपने मालिक (नेता) की नस-नस से वाकिफ होता है। उसे उसके हर भ्रष्टाचार का पता या अंदाज होता है। इसीलिए नौकरशाह के भ्रष्टाचार पर नेता उंगली नहीं उठा सकता है। भ्रष्टाचार की इस नारकीय वैतरणी के जल का सेवन करने में सरकारी बाबू और पुलिसवाले भी पीछे क्यों रहें ? इसीलिए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि भारत के लगभग 90 प्रतिशत लोगों के काम रिश्वत के बिना नहीं होते। इसीलिए  आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है। हमारे नेताओं और नौकरशाहों को गर्व होना चाहिए कि एशिया में सबसे अधिक शिष्ट (भ्रष्ट) होने की उपाधि भारत को उन्हीं की कृपा से मिली है।


ये चिकित्सा उचित है, बशर्ते…

 

भारत में कोरोना महामारी के फैलाव के साथ ही आयुर्वेदिक दवाओं और प्राकृतिक चिकित्सा की मांग तेजी से बढ़ती गई है। ऐसी खबरें इस साल के आरंभ से आनी शुरू हुईं कि बड़ी संख्या में लोग प्राचीन “आयुर्वेदिक” दवाओं का रुख कर रहे हैं। तब कंपनियां लोगों की वैकल्पिक चिकित्सा की मांग पूरी करने में जुटी गईं। हल्दी वाला दूध और तुलसी की बूंदों जैसे घरेलू नुस्खे आकर्षक पैकेजिंग के साथ दुकानों की शेल्फ पर दिखने लगे। ऐसे हर्बल ड्रिंक का विज्ञापन आने लगे जिनका दावा था कि यह कोरोना वायरस से सुरक्षित रख सकता है। अब विज्ञापन आए तो लोग सहज ही समझते हैं कि वो उत्पाद अच्छा ही होगा। स्वस्थ जीवन शैली और परंपरागत ज्ञान से प्रचलन में आए घरेलू उपचारों को अपनाने में कोई हर्ज भी नहीं है। बल्कि उनसे कुल मिलाकर सेहत को फायदा ही होता है। इसके बावजूद ये मानना कि ऐसी कोई दवा कोरोना जैसी नई महामारी का इलाज है, ये ठीक नहीं होगा।


आयुर्वेदिक दवाएं कोरोना को रोकने में कितनी कारगर हैं, इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण फिलहाल नहीं है। इसलिए किसी दवा को रामबाण मानकर निश्चिंत हो जाना अपने लिए खतरे को आमंत्रित करना है। यह सच है कि आयुर्वेद का कारोबार हाल के दशकों में काफी फैला है। बहुत से लोग ये मान कर ऐसी दवाएं लेते हैं कि प्राकृतिक इलाज कैंसर से लेकर सर्दी जुकाम तक सब ठीक कर सकता है। इसीलिए इस समय यह उद्योग 10 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच चुका है। कोरोना महामारी ने इस कारोबार को और बल प्रदान किया है। कोरोना वायरस की वैक्सीन आने में देर ने लोगों को प्राकृतिक उपचारों की तरफ जाने पर मजबूर किया है। आयुर्वेद और दूसरे पारंपरिक इलाजों को सरकार भी खूब बढ़ावा दे रही है। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद केंद्र में बकायदा अलग से आयुष मंत्रालय का गठन किया गया। आयुष मंत्रालय के अंतर्गत आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्धा, सोवा रिग्पा और होम्योपैथी को शामिल किया गया है। जनवरी में आयुष मंत्रालय ने पारंपरिक इलाजों को कोरोना वायरस से लड़ने का उपाय बताया था। बात आजमाने तक रहे तो ठीक है। लेकिन यह अंधविश्वास का रूप ले ले, तो बेहद खतरनाक रूप ले लेगी। मसलन, कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं होने के बाद भी गाय के गोबर और गौमूत्र से कोरोना वायरस का इलाज करने की हिमायत की गई है। इसलिए इस बारे में विवेक का परिचय देना अनिवार्य हो गया है।


बुधवार, 25 नवंबर 2020

बैंकिंग का क्या नया दौर शुरू होगा?

 


अगर किसी से पूछा जाए कि भारत में इस समय सबसे ज्यादा संकट किस सेक्टर में हैं तो ज्यादातर लोगों का जवाब होगा- बैंकिंग सेक्टर में। बैंकों की हालत लगातार खराब हो रही है और सिर्फ कोरोना वायरस की महामारी के कारण नहीं खराब नहीं हो रही है, बल्कि उससे बहुत पहले से खराब होने लगी थी और अब लाखों करोड़ रुपए के सरकार के आर्थिक पैकेज की वजह से और ज्यादा खराब हो रही है। क्योंकि सरकार ने लाखों करोड़ रुपए का जो पैकेज दिया है वह सब कर्ज बांटने का पैकेज है। इससे बैंकों की हालत और ज्यादा खराब ही होनी है क्योंकि जब जब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी, औद्योगक गतिविधियों में तेजी नहीं लौटेगा, लोग खर्च करना नहीं शुरू करेंगे तब तक बैंकों की हालत ठीक नहीं होने वाली है।


इसी संकट के बीच भारत में बैंकिंग का नया दौर शुरू करने की तैयारी हो रही है? कोई 50 साल पहले इंदिरा गांधी ने बैंकों का निजीकरण करके भारत में बैंकिंग के नए दौर की शुरुआत की थी। आर्थिक उदारीकरण के दौर में इसमें कुछ बदलाव हुआ फिर भी बैंकिंग का मूल चरित्र बचा रहा। कुछ निजी बैंक शुरू हुए लेकिन सरकारी बैंकों का ही दबदबा रहा। लोगों का भरोसा भी सरकारी बैंकों पर ही रहा। अब सीधे कारोबारों के हाथ में बैंकिंग व्यवस्था सौंपने की तैयारी हो रही है। देश और दुनिया के तमाम आर्थिक व वित्तीय जानकारों की राय को दरकिनार करके भारतीय रिजर्व बैंक ने इसकी तैयारी शुरू की है। अब कारपोरेट कंट्रोल बैंकिंग के नए दौर की शुरुआत होने वाली है।


रिजर्व बैंक ने एक इंटरनल वर्किंग ग्रुप बनाया था, जिसने सुझाव दिया है कि भारत के कारपोरेट घरानों को बैंक खोलने की इजाजत दी जाए। अभी इसके डिटेल्स बताए जाने जाने बाकी हैं पर शुरुआती जानकारी के मुताबिक आरबीआई के इंटरनल वर्किंग ग्रुप ने इस बारे में जितने  लोगों से सलाह मशविरा किया है या जितने लोगों से राय मांग हैं उनमें से सिर्फ एक जानकार को छोड़ कर बाकी सबने इस आइडिया का विरोध किया है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सामने आकर इस प्रस्ताव का विरोध किया है। उन्होंने इसे देश की अर्थव्यवस्था, आम लोगों और बैंकिंग सबके लिए विध्वंसकारी बताया है। इसके बावजूद रिजर्व बैंक इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने को तैयार है।


यह असल में भारत में तेजी से फैल रहे क्रोनी कैपिटलिज्म का ही एक बड़ा और नया रूप होगा। सबसे बड़ी खतरा इसमें यह बताया जा रहा है कि इसमें सीधे कंपनियां अपने बैंक खोलेंगी और जिसे चाहेंगी उसे कर्ज देंगी। उनका अपना कारोबार है, जिसे वे अपने बैंक से फाइनेंस करेंगी। अपने दूसरे कारोबारी सहयोगियों को अपने बैंक से फाइनेंस करेंगी। इसमें किस तरह से नियमों का पालन होगा? हितों का टकराव कैसे टाला जाएगा? कारोबार में प्रतिस्पर्धा के माहौल का क्या होगा? लोगों के जमा पैसे की सुरक्षा का क्या होगा? कहा जा सकता है कि चाहे कोई भी कारपोरेट बैंक खोले, लेकिन उसकी निगरानी रिजर्व बैंक की होती है और उसे बैंकिंग के नियमों के तहत ही काम करना होता है। पर अभी आरबीआई की निगरानी में एक के बाद एक बैंक दिवालिया होने की कगार पर पहुंची हैं उनका क्या? आरबीआई की देख-रेख में दर्जनों बैंकों का एनपीए दिन-दुनी, रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ा है और एनपीए कम दिखाने के लिए बैंकों का विलय और अधिग्रहण करके किसी तरह से परदा डाला जा रहा है। ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि आरबीआई कारपोरेट कंपनियों के बैंकों पर सख्ती से नियमों का लागू करेगी?


आखिर देखते देखते हुए आईएलएंडएफएस जैसी वित्तीय कंपनी में एक लाख करोड़ रुपए के करीब डूब गए और अब डीएचएफएल में 65 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम डूबने वाली है। यह सब भी तो रिजर्व बैंक की देख-रेख में हुआ है? आरबीआई की देख-रेख में ही दर्जनों गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं दिवालिया हो गई हैं या दिवालिया होने की कगार पर हैं। इसके बावजूद सरकार ने बैंकिंग के नियमों में बदलाव करके सहकारी बैंकों के नियंत्रण का काम राज्य सरकारों के हाथ से लेकर आरबीआई को सौंप दिया है, जिसकी विफलता लगातार कई बरसों से जारी है। अब आगे आरबीआई की तैयारियों के मुताबिक बड़े कारपोरेट घरानों को एनबीएफसीज के शेयर दे दिए जाएंगे और बाद में उनको बैंकिंग में तब्दील कर दिया जाएगा। यानी कंपनियां अपना कारोबार करेंगी और साथ साथ बैंक चलाएंगी। उनके बैंकों में लोग पैसे जमा करेंगे, जिससे वे अपने और अपने करीबी लोगों के कारोबार को फाइनेंस करेंगी। फाइनेंस डूब गया या एनपीए बढ़ता गया तो सरकार उनके बैंकों का विलय दूसरे बैंकों में करेगी, इससे भी काम नहीं चला को बैंक एक दिन दिवालिया हो जाएंगे और उसमें पैसा जमा करने वाली जनता आत्मनिर्भर हो जाएगी!


ध्यान रहे 1997-98 के एशियाई संकट के समय ऐसा ही हुआ था। एकदम चकाचौंध के साथ आगे बढ़ रहे पूर्वी एशियाई देशों में अचानक आर्थिक संकट आया था। उस समय सब कुछ इतना अच्छा चलता दिख रहा था कि बैंकिंग और कारपोरेट के रिश्तों पर ध्यान नहीं दिया गया। बैंक खुले हाथ फाइनेंस करते गए। चारों तरफ मॉल बन रहे थे, कॉल सेंटर खुल रहे थे, आईटी आधारित सेवाओं का बाजार बढ़ रहा था और अचानक यह बुलबुला फूटा तो किसी को समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए। बाद में संकट इतना बढ़ गया कि अकेले इंडोनेशिया में अपने बैंकों को बचाने के लिए देश की जीडीपी का 40 फीसदी हिस्सा खर्च करना पड़ा।


भारत में स्थिति पहले से ज्यादा खराब है। यहां कि सबसे बड़ी गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं दिवालिया हो गई हैं। निजी बैंकों पर आपस में ही मिलीभगत करके कर्ज बांटने के मामले में सबसे बड़े निजी बैंक की चेयरपर्सन के ऊपर मुकदमा चल रहा है। ऐसे में भारत में कारपोरेट को बैंक खोलने की इजाजत देना सचमुच विध्वंसकारी हो सकती है। तमाम आर्थिक जानकार मान रहे हैं कि इससे कनेक्टेड लेंडिंग यानी अपने ही कारोबार को फाइनेंस करने की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जिससे अंततः बैंकिंग के साथ साथ कारोबार का पूरा माहौल प्रभावित होगा।


अपनी शर्तों पर कर्ज के लिए?

 



अब तक यह साफ हो चुका है कि नरेंद्र मोदी सरकार के न्यूनतम शासन का मतलब बाजार की खुली प्रतिस्पर्धा के लिए अवसर बनाना नहीं, बल्कि (कुछ) कॉरपोरेट घरानों का मुनाफा बढ़ाने के लिए अनुकूल स्थितियां बनाना है, इसलिए इस प्रस्ताव पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। वरना, ऐसे फैसले का स्वस्थ पूंजीवाद में कोई स्थान नहीं हो सकता, जिससे सारी आर्थिक गतिविधियां कुछ हाथों में सीमित होती जाएं। अगर ये फैसला हुआ तो उसका असर यह होगा कि अब बैंकिंग और उद्यम (निवेश) का फर्क मिट जाएगा। खबर यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की एक समिति ने बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को बैंक खोलने की अनुमति देने का प्रस्ताव रखा है। समिति ने बड़ी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को बैंक में बदलने की अनुमति देने का भी प्रस्ताव किया है। केंद्रीय बैंक के इंटरनल वर्किंग ग्रुप (आईडब्ल्यूजी) के इन प्रस्तावों पर 15 जनवरी 2021 तक प्रतिक्रिया स्वीकार की जाएगी। उसके बाद आरबीआई अपना फैसला सुनाएगा।

फिलहाल कई जानकरों ने इस प्रस्ताव पर आपत्ति जताई हैं।


यहां ये याद दिलाया गया है कि बीते कुछ सालों में पीएमसी बैंक, यस बैंक और लक्ष्मी विलास जैसे बैंकों की वित्तीय हालत बेहद खराब हो गई और आरबीआई को उनका नियंत्रण अपने हाथों में ले लेना पड़ा। दूसरे कई बैंक ऐसे हाल तक तो नहीं पहुंचे, लेकिन बड़े ऋण के ना चुक पाने के कारण उनका वित्तीय स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। एसबीआई और एचडीएफसी जैसे बड़े बैंक भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। इसी पृष्ठभूमि में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया है। उनके अनुसार आईडब्लूजी ने जितने विशेषज्ञों से सलाह ली थी, उनमें से एक को छोड़ सबने प्रस्ताव का विरोध किया था। इसके बावजूद समूह ने प्रस्ताव की अनुशंसा कर दी। दोनों अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कॉरपोरेट घरानों को बैंक खोलने की अनुमति देने से ‘कनेक्टेड लेंडिंग’ शुरू हो जाएगी। ऐसी व्यवस्था, जिसमें बैंक का मालिक अपनी ही कंपनी को आसान शर्तों पे लोन दे देता है। राजन और आचार्य के अनुसार इससे सिर्फ कुछ व्यापार घरानों में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण की समस्या और बढ़ जाएगी। इसीलए कई बड़े औद्योगिक घराने बैंक खोलने का लाइसेंस मिलने की राह देख रहे हैं। पिछले कुछ सालों में इन सभी ने एनबीएफसी भी खोल लिए हैं। क्या ये प्रस्ताव उनके ही हित में नहीं किया गया है?


मोदी सरकार के सहयोगी दल आरएलपी यह कैसा गठबंधन ! हनुमान बेनीवाल साध रहे पूर्व सीएम राजे पर निशाना




 जयपुर। प्रदेश में हो रहे पंचायतीराज चुनावों  में इस बार बीजेपी और कांग्रेस के अलावा आरएलपी  भी मजबूती से ताल ठोक रही है। मोदी सरकार के सहयोगी दल आरएलपी के संयोजक एवं नागौर से सासंद हनुमान बेनीवाल  चुनावी सभाओं में कांग्रेस पर तो निशाना साध ही रहे हैं। लेकिन वे बीजेपी के नाम पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे  पर भी जमकर निशाने साध रहे हैं।


हाल ही में बेनीवाल ने टोंक के मालपुरा क्षेत्र में पंचायत चुनावों के प्रचार प्रसार के दौरान वसुंधरा राजे के खिलाफ जमकर बयानबाजी की। लेकिन खास बात यह है की अब तक प्रदेश बीजेपी के किसी भी नेता ने आगे बढ़कर अपने बयानों में इसका विरोध नहीं किया। उसके बाद सियासी गलियारों में ये चर्चा का विषय बना हुआ है। इस बारे में जब केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल से सवाल किया गया तो वे भी खुलकर जवाब देने में बचते नजर आए. सवालों से पीछा छुड़ाने के लिये मेघवाल ने यहां तक कह दिया कि पूर्व में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने इस संबंध में अपना वक्तव्य जारी कर दिया था। जबकी प्रदेश अध्यक्ष का ऐसा कोई वक्तव्य सामने नहीं आया है।


चतुर्वेदी बोले इस तरह का बयान दिया गया है तो पूरी बीजेपी इसकी निंदा करती है

वहीं पूर्व प्रदेशाध्यक्ष डॉ. अरुण चतुर्वेदी से जब इस बारे में सवाल पूछा गया तो होने साफ तौर पर कहा कि वसुंधरा राजे पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और यदि उनके खिलाफ कोई भी बयान दिया गया है तो पूरी बीजेपी इसकी निंदा करती है। चतुर्वेदी के अनुसार आरएलपी भले ही केंद्र में हमारा सहयोगी दल हो लेकिन इसके आधार पर आरएलपी के नेताओं को यह अधिकार नहीं मिलता कि वे हमारी पार्टी के किसी भी नेता पर कोई व्यक्तिगत या सामाजिक रूप से टीका टिप्पणी करे।

बेनीवाल ने कई बातें सार्वजनिक रूप से कही

उल्लेखनीय है कि बेनीवाल ने चुनावी सभा में पूर्व मुख्यमंत्री के लिए यह तक कह दिया कि पहले सरकार में लोग कहते थे कि '8 पीएम नो सीएम'। यही नहीं बेनीवाल ने इससे भी बढ़कर राजे के खिलाफ कई बातें सार्वजनिक रूप से कह डाली। लेकिन पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के खिलाफ दिये गए इस बयान को लेकर आगे बढ़कर प्रदेश बीजेपी के किसी भी नेता ने अपना वक्तव्य या विरोध जाहिर नहीं किया।


टीकाकरण इतना केंद्रीकृत क्यों?



भारत में कोरोना वायरस की महामारी की नई लहर और टीकाकरण की तैयारी की चौतरफा चर्चा है। टीकाकरण की तैयारी सारी दुनिया में हो रही है इसलिए भारत में भी है, अन्यथा भारत में अभी वैक्सीन खरीद का कोई सौदा नहीं हुआ है। पर चूंकि दुनिया के दूसरे देशों में टीकाकरण की तैयारी हो गई है, इसलिए भारत में भी तैयारी की जा रही है। फिलहाल कम से कम वैक्सीन बनाने वाली चार कंपनियों ने तीसरे और अंतिम चरण की अंतरिम रिपोर्ट जारी कर दी है। अमेरिकी कंपनी बायोएनटेक फाइजर ने सबसे पहले अपनी वैक्सीन के तीसरे चरण की रिपोर्ट जारी की और कहा कि उसकी वैक्सीन 95 फीसदी प्रभावी है और पूरी तरह से सुरक्षित भी है। इसके बाद दूसरी अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना ने भी ऐलान किया कि उसकी वैक्सीन 95 फीसदी कारगर और सुरक्षित है। इसके तुरंत बाद रूसी कंपनी ने अपनी वैक्सीन स्पूतनिक वी के 92 फीसदी सफल और सुरक्षित होने का ऐलान किया। सबसे आखिरी में ब्रिटिश स्वीडिश कंपनी ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका ने अपनी रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि एक डोज 72 फीसदी और डेढ़ डोज 90 फीसदी से ऊपर कारगर है और सुरक्षित भी है।


ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन कोवीशील्ड का भारत में भी तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा है। वैक्सीन बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया की देख रेख में यह परीक्षण हो रहा है। ब्रिटेन में इस वैक्सीन के इमरजेंसी इस्तेमाल के लिए दिसंबर के मध्य में कंपनी आवेदन करेगी और उसे मंजूरी मिल जाने का पूरा भरोसा है। ब्रिटेन में इस वैक्सीन के इस्तेमाल की मंजूरी मिलने के तुरंत बाद भारत में भी इसे मंजूरी मिल जाएगी।


पर सवाल है कि सिर्फ मंजूरी मिल जाने भर से क्या भारत में टीकाकरण वैसे ही होने लगेगा, जैसे ब्रिटेन, अमेरिका या यूरोपीय संघ के देशों में होगा? भारत में फिलहाल यह संभव नहीं लग रहा है क्योंकि दुनिया के बाकी विकसित देशों ने वैक्सीन की करोड़ों डोज का सौदा पहले किया हुआ है। इसलिए उन्हें वैक्सीन की आपूर्ति पहले होगी। भारत में आम लोगों तक इसकी पहुंच तभी हो पाएगी, जब भारत बायोटेक की अपनी वैक्सीन बन कर तैयार होगी। इस वैक्सीन के भी परीक्षण का तीसरा चरण चल रहा है। लेकिन इसके अगले साल मार्च तक तैयार होने की संभावना है।


सो, फिलहाल तो यह समझ लेना चाहिए कि भारत में वैक्सीन की बड़ी संख्या में डोज फिलहाल नहीं आने जा रही है। दिसंबर के मध्य में जिन वैक्सीन को अमेरिका और ब्रिटेन में इमरजेंसी इस्तेमाल की इजाजत मिलेगी वह बहुत सीमित संख्या में भारत में आ सकती है। इसलिए भारत में टीकाकरण को लेकर अभी चल रहे हल्ले का कोई खास मतलब नहीं है। पहले ही यह कहा जा चुका है कि सीमित मात्रा में जो वैक्सीन आएगी वह पहले फ्रंटलाइन वर्कर्स यानी डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी और पुलिसकर्मियों को लगेगी। अगर भारत सरकार वैक्सीन की ज्यादा से ज्यादा डोज खरीदने का सौदा करती है तो अगले साल के मध्य से आम लोगों को वैक्सीन मिलनी शुरू हो सकती है। लेकिन यहां भी सवाल है कि वह किससे सौदा करेगी? फाइजर को इस साल पांच करोड़ और अगले साल 130 करोड़ डोज तैयार करनी है। मॉडर्ना का भी अगले साल के अंत तक सौ करोड़ डोज तैयार करना है। लेकिन मुश्किल यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया सहित अनेक विकसित और पैसे वाले देशों ने आठ सौ करोड़ डोज से ज्यादा का सौदा किया हुआ है। तभी सवाल है कि भारत या इस जैसे विकासशील देशों में वैक्सीन की उपलब्धता कैसे सुनिश्चित होगी, जब दुनिया के दूसरे देशों ने पहले से पैसे चुका कर डोज बुक कराए हुए हैं।


भारत में एक दूसरी समस्या टीकाकरण को केंद्रीकृत करने का है। भारत में वैक्सीनेशन को इतना ज्यादा केंद्रीकृत किया जा रहा है उसका कारण समझना मुश्किल हो रहा है। भारत में जिस तरह से आधार कार्ड के जरिए टेस्टिंग हो रही है और इलाज में आधार का इस्तेमाल हो रहा है उसी तरह टीकाकरण के लिए सरल तरीके से आधार कार्ड का इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन सरकार ने इसके लिए बहुत जटिल प्रक्रिया तय की है। बताया जा रहा है कि हर व्यक्ति को आधार के जरिए ही टीका लगेगा लेकिन इसके लिए एक क्यूआर कोड जेनेरेट किया जाएगा और टीका लगने के बाद भी वह क्यूआर कोड संभाल कर रखना होगा। उसे डिजिलॉकर में रखने की बात हो रही है क्योंकि वह इम्युनिटी पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल होगा। यह भी कहा जा रहा है कि भविष्य में कहीं भी ट्रैवल करने के लिए इसको अनिवार्य किया जा सकता है।


दूसरे, भारत सरकार ने यह तय किया है कि टीका सिर्फ केंद्र सरकार ही खरीदेगी। यह भी कोरोना वैक्सीन के केंद्रीकरण का एक संकेत है। सवाल है कि जब स्वास्थ्य राज्यों का विषय है और सारे राज्य कोरोना वायरस के अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं तो उन्हें वैक्सीन खरीदने और लोगों को लगवाने की खुली छूट क्यों नहीं होनी चाहिए? क्यों केंद्र सरकार इसकी कमान अपने हाथ में रखना चाहती है? अगर देश के हर नागरिक के लिए वैक्सीन केंद्र सरकार को खरीदनी है तो क्या उसने इसके लिए हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान अलग से किया हुआ है?


जैसा कि सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला ने कहा था कि सरकार को वैक्सीन के लिए इस साल 80 हजार करोड़ रुपए की जरूरत होगी। क्या सरकार ने इतने पैसे अतिरिक्त आवंटित किए हैं? बहरहाल, सरकार को राज्यों की इसमें भागीदारी बढ़ानी चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से टीकाकरण कार्यक्रम चलाने देना चाहिए। अब तक इसे केंद्रीकृत करके रखने का ही नतीजा है कि भारत ने वैक्सीन का कोई बड़ा सौदा नहीं किया है। भारत की विशाल आबादी और डेढ़ या दो डोज की जरूरत को देखते हुए भारत को तीन सौ करोड़ डोज तक खरीदने की जरूरत है, लेकिन अभी तक किसी सौदे की सूचना नहीं है। सो, बिना टीका खरीद का सौदा किए बगैर भारत में टीकाकरण की एक रहस्यमयी और केंद्रीकृत व्यवस्था बनाई जा रही है।


मोदी ने अब 2029 का गोलपोस्ट बनाया!


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के विकास के लिए पांच साल का समय मांगा था। बीच में एक बार अमित शाह ने कह दिया था कि देश के विकास में 25 साल लगेंगे तो इस पर बड़ा विवाद हुआ था और बाद में सफाई वगैरह भी देनी पड़ी थी। पर अब खुद प्रधानमंत्री ने विकास का गोलपोस्ट आगे बढ़ा दिया है। अब उन्होंने कहा है कि भारत के विकास के लिए 2029 तक का समय बहुत अहम है। उन्होंने सांसदों के बहुमंजिला आवास योजना की वर्चुअल शुरुआत करते हुए अपने भाषण में भारत को युवा लोकतंत्र बताते हुए कहा कि भारत के विकास के लिए 2014 से 2029 का समय बहुत अहम है।


प्रधानमंत्री ने साथ ही यह भी कहा कि अभी तक के साढ़े छह साल में बहुत काम हुआ है पर अगला नौ साल बहुत अहम रहने वाला है। अब सोचें, कितनी चीजों के लिए कितना समय उन्होंने पहले कहा था कि उस समयावधि में क्या हुआ? प्रधानमंत्री के सारे टारगेट पहले 2022 के थे। उन्होंने बार बार कहा कि जब 2022 में देश की आजादी की 75वीं सालगिरह मनाई जाएगी तो देश में खुशहाली आ जाएगी। उन्होंने 2022 तक सबको पक्का मकान देने का ऐलान किया था। लेकिन अब दूर दूर तक इसके आसार नजर नहीं आ रहे हैं। ले-देकर 2022 तक नई संसद बन जाने की संभावना है, जिसकी योजना के चौतरफा विरोध के बावजूद सरकार ने रद्द नहीं किया और काम शुरू हो गया है।


पहली बार यानी 2014 में केंद्र में सत्ता में आने के बाद ही पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा गया था। साढ़े छह साल बाद देश के किसान अपनी बेसिक आमदनी बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। सरकार ने तीन कृषि कानून बनाए, जिनके विरोध में देश भर का किसान आंदोलित है। इसी तरह एक दिन ऐलान किया गया कि भारत पांच साल में पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि कोरोना संकट के बीच लगभग पूरी दुनिया में सबसे खराब प्रदर्शन भारत का रहा है। चालू साल की पहली तिमाही में जीडीपी में 24 फीसदी की गिरावट आई। इसी से उबरने में देश के काफी समय लगना है।


सरकार बनने के एक साल के भीतर विदेशों में रखा काला धन लाने का ऐलान किया गया था। लेकिन अब कहीं भी काले धन की चर्चा नहीं होती है। नोटबंदी से देश की अर्थव्यवस्था के डिजिटल और कैशलेस होने की पोल खुल चुकी है। आज देश में चार साल पहले के मुकाबले डेढ़ गुना से ज्यादा नकदी है और उसी अनुपात में जाली नोट भी बढ़ा है। जीएसटी का बुलबुल फूट चुका है और सरकार किसी तरह से जान बचाने में लगी है। देश में 2018 तक गंगा को स्वच्छ बनाने का ऐलान किया गया था, दो सौ स्मार्ट सिटी बनने वाले थे लेकिन न कहीं गंगा स्वच्छ हुई और न कोई स्मार्ट सिटी बनी है। सो, सारे डेडलाइन अब तक फेल हो गए हैं या आधे-अधूरे तरीके से पूरे हुए हैं और इस बीच अब नया गोलपोस्ट 2029 का आ गया है।


पिनाराई विजयन केरल के सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री हैं : भाजपा

 


 भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की आलोचना करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने बुधवार को केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की जम कर खिंचाई की। केरल भाजपा के अध्यक्ष के. सुरेंद्रन ने कहा, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन देश के सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री हैं।


मीडिया से बात करते हुए, सुरेंद्रन ने कहा कि यह सबसे आश्चर्यजनक और अजीब बात है कि एक मुख्यमंत्री राजनीति करने के लिए भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) पर इतना बड़ा आरोप लगा रहा है।


सुरेंद्रन ने कहा, आज तक, विपक्ष ने भी इस तरह के आरोप नहीं लगाए हैं। कोई ये कैसे कह सकता है कि कैग ने अंतिम रिपोर्ट में अलग से कुछ जोड़ दिया है, जो पहले मसौदे में नहीं था। इसका मतलब है कि मुख्यमंत्री ने कैग रिपोर्ट को विधानसभा में रखे जाने से पहले देखा है। उन्हें मुख्यमंत्री बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि यह गोपनीयता की शपथ का उल्लंघन है।


सुरेंद्रन विजयन द्वारा कैग की लगातार आलोचना का जवाब दे रहे थे। जब से केआईआईएफबी पर कैग रिपोर्ट आई है, विजयन इसकी लगातार आलोचना कर रहे हैं। केरल के वित्त मंत्री थॉमस इसाक ने कहा कि कैग से ऑडिट करने में गलती हुई है और उसने ऑडिट की मूल बातों का उल्लंघन किया है।


केंद्र की एनडीए सरकार ने केरल को इतना कुछ दिया है। एक समय था जब केरल से आठ केंद्रीय मंत्री थे। तब भी केरल को अपना वाजिब हिस्सा नहीं मिला था। विजयन को सफाई देनी होगी और यह बताना होगा कि कितना केंद्रीय धन केरल में आया है। जब से जुलाई में केरल में सोने की तस्करी का मामला सामने आया है, सुरेंद्रन का विजयन पर हमला जारी है।


शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

निजी रेलगाड़ी परिचालन के आवेदन प्रस्ताव में एलएंडटी, जीएमआर, वेलस्पन आदि को योग्य पाया गया


 लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी), जीएमआर, वेलस्पन उन कंपनियों में से हैं, जिन्हें ट्रेनों के निजी परिचालन के आवेदन प्रस्ताव (आरएफपी) चरण में भाग लेने योग्य पाया गया है। जिसके तहत 12 ट्रेनों के समूह में कुल 151 ट्रेनों का परिचालन होना है।


रेल मंत्रालय ने आधिकारिक बयान में कहा कि उसे 16 कंपनियों से 120 आवदेन प्राप्त हुए थे। इनमें से 102 आवेदनों को योग्य पाया गया।


भारतीय रेल नेटवर्क पर निजी यात्री रेलगाड़ी परिचालन से 30,000 करोड़ रुपये का निजी निवेश आने की उम्मीद है।


इसके लिए निजी क्षेत्र की इकाइयों को दो चरण वाली प्रतिस्पर्धात्मक एवं पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया से गुजरना होगा। इसमें पात्रता आवेदन (आरएफक्यू) और आवेदन प्रस्ताव (आरएफपी) की प्रक्रिया शामिल है।


सरकार ने 12 क्लस्टरों के लिए आरएफक्यू एक जुलाई 2020 को जारी किया था। इसके तहत मिले आवेदन सात अक्टूबर 2020 की तय तिथि को खोले गए।


यात्री रेलगाड़ी निजी परिचालन परियोजना के आरएफपी चरण के लिए योग्य पाई गई कंपनियों में- अरविंद एविएशन, भेल, कंस्ट्रक्शंस वाई. ऑक्जिलर डी. फेरोकैरीज, क्यूब हाईवे एंड इंफ्रास्ट्रक्चर, गेटवे रेल फ्रेट लिमिटेड, जीएमआर हाईवेज लिमिटेड, भारतीय रेल खानपान एवं पर्यटन निगम (आईआरसीटीसी), आईआरबी इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स और मालेमपति पावर प्राइवेट लिमिटेड इत्यादि शामिल हैं।


समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक हाई फुटफॉल और राजस्व के साथ फर्मों ने दिल्ली और मुंबई समूहों में सबसे अधिक रुचि दिखाई।


जबकि 19 फर्मों में से दो को मुंबई और दिल्ली क्लस्टर के लिए पात्र पाया गया है, चंडीगढ़ और चेन्नई क्लस्टर में पांच पात्र आवेदक थे। इलाहाबाद, जयपुर और सिकंदराबाद समूहों में नौ-नौ पात्र आवेदक थे, जबकि हावड़ा, बेंगलुरु और पटना क्लस्टर में आठ-आठ पात्र आवेदक थे।


भारतीय रेलवे की योजना आंतरिक प्रक्षेपण के अनुसार, 12 ट्रेनों के साथ मार्च 2023 तक निजी ट्रेन परिचालन शुरू करने की योजना है। रेलवे 2027 तक 151 ऐसी सेवाओं को लाने की योजना बना रहा है।


‘सत्ता ने भाजपा को खोखला कर दिया है’: अरुण शौरी


 एक साक्षात्कार में वरिष्ठ लेखक-पत्रकार अरुण शौरी ने कहा कि मीडिया का ध्यान एक बड़े परिवर्तन पर नहीं गया है। यह है भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) में आया बदलाव। शौरी का संघ-भाजपा से लंबे समय तक निकट संबंध रहा। उन्हें एक बार आर.एस.एस. ने अपना सर्वोच्च सम्मान भी दिया था। वैसे भी, शौरी तथ्य लेखन के लिए जाने जाते रहे हैं। इसलिए उन की बातें ध्यातव्य हैं।


शौरी ने कहा कि कि पहले भाजपा में आर.एस.एस. के कुछ लोग भेजे जाते थे। तब भाजपा के पास अपने कार्यकर्ता होते थे। लेकिन अब भाजपा के पास अपने कैडर नहीं हैं। वह कोई पार्टी नहीं रह गई है। केवल ऊपर नेताओं का एक फेन या झाग (‘फ्रॉथ’) है, जिसे दिखाकर वोट लिया जाता है। वे चाहे नाटक, तमाशे कर या किसी चतुराई से चुनाव जीतते हैं। बाकी नीचे लोग उन के आसरे रहते हैं। मंत्री जैसे लोग भी, जिन्हें अब कुछ बोलने का अवसर नहीं है।


इस बीच, उन ऊपरी नेताओं के लिए पूरे देश में कैडर का काम आर.एस.एस. के लोग कर रहे हैं। वे  आर.एस.एस. के सरसंघचालक के हाथ में नहीं रह गए। शौरी के अनुसार, “मोहन भागवत बड़े भले आदमी हैं। मगर अब उन के हाथ-पैर नहीं हैं। यदि भाजपा सत्ताधारी ने कह दिया कि एक हजार आर.एस.एस. कार्यकर्ता बिहार भेजने हैं, तो वे भेजे जाएंगे। चाहे भागवत जी चाहें या न चाहें।” इस प्रकार, आर.एस.एस. पूरी तरह भाजपा की सेना बन गई है।


यह अनायास नहीं हुआ। शौरी 1980 के दशक का एक प्रसंग सुनाते हैं, जब वे अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे। एक बार तात्कालीन आर.एस.एस. सरसंघचालक बालासाहब देवरस के छोटे भाई, और प्रमुख संघ नेता भाऊराव जी देवरस ने उन्हें दिल्ली के झंडेवालान मिलने बुलाया। शौरी गए तो देखा कि एक छोटी सी कोठरी में भाऊराव रहते हैं, जिस में एक चारपाई और एक कुर्सी है। एक आदमी उन की सेवा के लिए है। बातचीत से शौरी चकित हुए कि भाऊराव जी की दृष्टि कितनी पैनी थी, उन्हें शौरी के लेखन के नुक्तों की गहरी समझ थी। वापस आकर उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका को बताया कि उतना प्रखर और बड़ा व्यक्ति कैसा साधु सा रहता है! किन्तु गोयनका पर कुछ असर नहीं हुआ। वे बोले, कि ‘अरे, उन लोगों को अभी तक कुछ मिला ही नहीं, इसलिए साधु बने फिर रहे हैं! एक बार सत्ता-सुन्दरी मिलने दो, फिर देखना उन की साधुता या भोग-विलास।”


शौरी के अनुसार, आर.एस.एस. के आम नेता गोयनका के इस टेस्ट में फेल हुए हैं। भाजपा सत्ताधारियों ने आर.एस.एस. के मँझोले, निचले नेताओं को अपना आदमी बना लिया है। इस से इन की पूछ बढ़ गई है। जिन्हें कोई पहचानता तक न था, उन्हें लेने के लिए गाड़ी आती है, बढ़िया गेस्ट-हाउस रहता है, एयरपोर्ट पर लोगों को किनारे हटा कर उन के लिए रास्ता खाली कराया जाता है। बेचारों को यह महत्व कब मिला था! लिहाजा वे भाजपा चुनाव-मशीनरी के पुर्जों में बदल गए हैं। ऊपर के चार-पाँच आर.एस.एस. नेता संस्कृति, हिन्दुत्व, आदि पर भाषण देते रहते हैं। जबकि उन के राज्य और जिले स्तर के लोग अब सीधे भाजपा सत्ताधारियों के कब्जे में हैं, और खुश हैं। संघ के ऊपरी नेता यह पसंद करें या नहीं, अब बेबस हैं।


भाजपा-आर.एस.एस में आया यह परिवर्तन विचारणीय है। यह केवल शौरी का अवलोकन नहीं। कुछ पुराने संघ-भाजपा नेता भी मानते हैं कि बहुत कुछ बदल गया है। पुराने, प्रतिष्ठित आर.एस.एस. कार्यकर्ताओं की स्थिति चुपचाप सब स्वीकारने या किनारे पड़े रहने की है। भाजपा मशीनरी शहर के किसी भी व्यक्ति को कार्यकारी बना कर चुनावी काम करवाती है। वह व्यक्ति आर.एस.एस. से बाहर का व्यापारी, चालबाज, कारकुन, आदि कोई भी हो सकता है। मुख्य.काम है – चुनाव जीतना। ताकि आगे फिर चुनाव जीता जा सके। यह अपने आप में संपूर्ण गतिविधि हो गई है। सत्ता ने भाजपा को खोखला कर दिया है। उस में अब कोई नया विचार, समाधान, आदि देने की क्षमता नहीं है। भाजपा मानो एक रोजगार-एजेंसी भर है, जिस में किसी तरह ऊपर का ध्यान आकृष्ट कर, ठकुरसुहाती करके कोई पद, सुविधा, आदि पाई जाती है।


यह दयनीय दृश्य है। बड़े-बड़े पदों पर लोग काम के लिए नहीं, बल्कि ऊपर की कृपा बनाए रखने के लिए हैं। ऐसे में हमारी राष्ट्रीय स्थिति शोचनीय हो सकती है। क्योंकि ऐसे लोगों में कोई रीढ़ या विवेक होने की संभावना संयोग भर है। यद्यपि वे गंभीर जिम्मेदार पदों पर हैं। इस पर हम जैसों की आलोचना का कोई महत्व नहीं। किन्तु चीन जैसी ताकतें पूरे हालात को गौर से देख रही होंगी, कि ऐसे कार्यकारी लोग उन का दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकता। कोई संकट झेल नहीं सकता। क्योंकि कार्यकारी बड़े औसत किस्म के हैं, जिन की स्थितियाँ योग्यता और सामर्थ्य से नहीं बनी है। वे तो केवल ऊपर का मुँह जोहते हैं। जो अपने नेता से साफ-साफ कुछ बोलने तक का साहस नहीं रखते।


यदि शौरी की बातों में आधा भी सही हो, तो चिन्ता का विषय है। चुनाव जीतना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। असल चीज है कि देश का क्या हो रहा है? ब्राजील और तुर्की जैसे समृद्ध देशों के उदाहरण से शौरी कहते हैं कि वहाँ नेता चुनाव जीतते गए हैं, पर अपने देश को कहाँ पहुँचा दिया! तुर्की पूरे मुस्लिम विश्व में इस्लाम की जकड़ से निकल कर विकसित होने का उदाहरण बन सकता था। यही कमाल पाशा की महान विरासत थी। उसे एरदोगान ने तहस-नहस कर दिया। भारत में भी भाजपा के चुनाव जीतते जाने के हजार कारण बताए जा सकते हैं। जिस में विपक्ष की दुर्गति और राष्ट्रीय संस्थाओं का पतन भी कारण हो सकते हैं। यदि संस्थाएं बिगाड़ी जाती रहें, जो इंदिरा गाँधी के समय से शुरू होकर लगातार चल रहा है, तो लोग किस के पास जाएंगे? कानून सत्ताधारियों को लाभ पहुँचाने के लिए बनाए जाते हैं। जैसे, हाल के चुनावी बाँड कानून के कारण बड़े उद्योगपति सत्ताधारी दल को ही चंदा देंगे, जिस का हिसाब भी दल को नहीं देना है। इस का मुकाबला विपक्षी दल कैसे कर सकते हैं? फिर उन में स्वार्थ, आपसी ईर्ष्या, आदि से वे थोड़े समय के लिए भी एकताबद्ध नहीं हो पाते। अतः भाजपा का चुनाव जीतना अपने-आप में कोई अनोखी बात नहीं।


कई लोग अरुण शौरी की आलोचना को ‘अंगूर खट्टे हैं’ जैसा लेते हैं। किन्तु उन आलोचनाओं को स्वतंत्र रूप से परखा जा सकता है, इसलिए परखा जाना चाहिए। क्योंकि वही बात कोई दूसरा अवलोकनकर्ता, कोई तटस्थ लेखक कहे, तो क्या उत्तर दिया जाएगा? सदैव आलोचक का चरित्र-हनन करना कोई उत्तर नहीं है। यह तो उलटे आलोचना के सही होने का संकेत हो जाता है। चूँकि देश और समाज किसी पार्टी या संगठन से बहुत ऊँचा है। उस के भवितव्य को किसी पूर्वाग्रह से उपेक्षित करना अनुचित है। फिर, देश-सेवा के दावे को किसी कसौटी से क्यों बचना चाहिए?


स्वयं शौरी को अपने बारे में अधिक मुगालता नहीं है। वे कहते हैं, “हम जैसे लिखने-पढ़ने, टीका-टिप्पणी करने वाले तो कीट-पतंग हैं, जिन की तकलीफ बेमानी है। किन्तु हमारे द्वारा दिखाए तथ्यों की उपेक्षा करने वाले ही कष्ट भोगेंगे। साथ ही, देश की और आम लोगों की हानि होगी । चिन्ता उसी की करनी चाहिए।” निस्संदेह। विचारशील लोगों को सारी बात पर शान्ति से अवश्य सोचना चाहिए।


कांग्रेस वालों जनसंघ को याद रखों!


 पता नहीं कपिल सिब्बल को जनसंघ नाम याद है या नहीं? पार्टियों के मौजूदा नेताओं-टीवी चैनलों के एंकरों को शायद ही इतिहास ध्यान हो कि 1951 से लेकर 1977 तक भाजपा की पूर्वज जनसंघ पार्टी चुनावों में दो-पांच-बीस-बाईस सीटे जीतती थी। बाद में अटलबिहारी वाजपेयी- लालकृष्ण आडवाणी ने जनसंघ का भाजपा अवतार बनाया तो उसे 1984 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो सीटे मिली! जनसंघ से भाजपा तक हिंदू पार्टी के वोट तीन से सात प्रतिशत हुआ करते थे। तब जनसंघ या भाजपा कोई नगरपालिका जीतती, मसलन दिल्ली में महानगर परिषद् जीत लेती तो संघ वाले दीवाली मनाते थे। जाहिर है जनसंघ-भाजपा-आरएसएस ने कोई पैंतालिस साल विपक्ष में धक्के खाएं।


क्यों? इसलिए कि तब भारत का मतदाता कांग्रेस के आईडिया-उसकी विचारधारा में भला बूझता था। वे जनसंघ-भाजपा-आरएसएस की हिंदू चिंता-विचारधारा पर ठप्पा लगाने वाले नहीं थे। पर चुनाव-दर-चुनाव हारने के बावजूद जनसंघ में कभी यह हल्ला नहीं हुआ, मीडिया में यह नैरेटिव नहीं बना कि तीन सीटे मिली है तो श्यामाप्रसाद मुकर्जी निकम्मे है, लीडरशीप का टोटा है, उनसे पार्टी मुक्त पाएं। 1967 में विपक्ष-संविद-गैर कांग्रेसवाद की भारी हवा के बाजवूद जनसंघ को लोकसभा चुनाव में सिर्फ 35  सीटे मिली तो यह हल्ला नहीं हुआ कि दीनदयाल उपाध्याय भले मगर नासमझ- पप्पू है इसलिए पद छोड़े या उसके बाद 1971 के चुनाव में जनसंघ 22 सीटे ही जीत पाई तो हल्ला नहीं हुआ कि अटलबिहारी वाजपेयी फेल है। न तब सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी ने, उनकी सरकार, उनके मीडिया प्रबंधन ने हल्ला बनवाया कि वाजपेयी से जनसंघ डुबेगी। 1984 में आडवाणी की कमान में लोकसभा की दो सीटे आई तब भी भाजपा में किसी ने यह नहीं सोचा कि हार का कारण आडवाणी है।


क्या कपिल सिब्बल, कार्ति चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद को यह इतिहास मालूम नहीं है? चुनाव में पार्टी विशेष की हार-जीत के पीछे दस कारण होते है लेकिन निर्णायक कारण मतदाताओं के बीच समय विशेष में बनी राय, मनोभावना होती है जिसका नेता के चेहरे से ज्यादा प्राथमिक रोल होता है। वक्त विशेष में लोगों के दिल-दिमाग में बनी राय से लोकतंत्र में, चुनाव में पार्टियों की जीत-हार होती है। 45 साल तक जनसंघ-आरएसएस की विचारधारा के लोग ग्राहक नहीं थे। हिंदू विचार का दीया टिमटिमाता जलता रहा लेकिन हिंदू मतदाताओं ने गांधी के महात्मा रूप, नेहरू की मनभावक गुलाबी उदार इमेज, आजादी की विरासत और बड़ी-बड़ी बातों की दिवानगी में नेहरू-गांधी की तीन पीढियों को राज भोग कराया। कांग्रेस सत्ता की पर्याय रही। तब भला जनसंघ और भाजपा की दुकान पर हिंदू ग्राहक कहां से जुटते?


मगर भाजपा का दीया हिंदू विचारधारा की लौ था तो 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना के आक्रमण के साथ जब दुनिया बदलनी शुरू हुई तो इस्लाम का वह वैश्विक संर्घष बना जिसमें कई बलंडर हुए, कई भस्मासुर बने और जुनून, जिहाद का वह जलजला आया जिसने दुनिया में सोच बदली, राजनीति बदली और भारत में भी मुसलमान-इस्लाम पर खदबदाहट बनी। फिर वह घटनाक्रम बना जिसका किसी को पूर्वानुमान नहीं था। नतीजतन भारत में भी हिंदू बनाम मुस्लिम विमर्श शुरू हुआ और कांग्रेस के हिंदू वोट धीरे-धीरे भाजपा की और शिफ्ट होने लगे।


सोचे इस प्रक्रिया में दो सीट वाली भाजपा को कितना वक्त लगा? जवाब है चौदह साल! 1984 में लोकसभा की दो सीट से 1998 में 182 सीटों पर वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो आरएसएस-जनसंघ-भाजपा के पांच दशक के इंतजार के बाद वह था। मतलब 1951 से 1998 के 47 साल की तपस्या, इंतजारी के बाद हिंदू विचार हिंदू मतदाताओं को ग्राहक हुए। इस हकीकत में कांग्रेस की कपिल सिब्बल एंड पार्टी या सेकुलर जमात के बौद्धिकों  की इस बैचेनी का क्या अर्थ है कि कांग्रेस जीत क्यों नहीं रही या राहुल गांधी निकम्मे है!


मूर्खतापूर्ण है यह हल्ला, यह नैरेटिव की कांग्रेस छह सालों से हार रही है तो कांग्रेस खत्म है। सोचे 47 साल भाजपा हारती रही, वह अछूत रही लेकिन तब हल्ला नहीं था कि जनसंघ-भाजपा खत्म है। श्यामाप्रसाद, दीनदयाल, वाजपेयी, आडवाणी निकम्मे है! इन्हे हटाओं पार्टी बचाओं या संघ के खूंटे से मुक्ति दिलाओं तो पार्टी चलेगी। संघ से पार्टी आजाद नहीं हुई तो भाजपा सफल नहीं होगी।


कांग्रेस न खत्म हो सकती है न ऐसा मानना चाहिए और न ऐसा चाहना चाहिए। इसलिए कि देश का जरूरी विकल्प है कांग्रेस। जो कांग्रेस के खत्म होने याकि चुनाव हारने का रोना रो रहे है वे भूल रहे है कि उनके हित में, सबके हित में, देश के हित में है जो कांग्रेस को कभी खत्म हुआ नहीं माने। न ही गांधी-नेहरू परिवार के खूंटे से पिंड छुड़ाने की सोचे। खासकर सेकुलरों, वामपंथियों, गैर-भाजपा राजनीति की पैरोकार क्षेत्रिय पार्टियों को कांग्रेस को खत्म हुआ कतई नहीं बूझना चाहिए। कांग्रेस का होना उस वैकल्पिक विचारधारा का जिंदा रहना है जिससे भारत का भविष्य में बचा रहना संभव हो सकेगा। राहुल गांधी, प्रिंयका का मतलब नहीं है लेकिन परिवार के खूंटे से बंधी कांग्रेस का इसलिए है क्योंकि हिंदू और मुसलमान ने साझा तौर पर इस पार्टी से वह विरासत, वह अनुभव लिया है जिसमें साथ-साथ जीने का एक स्थापित भरोसा इतिहास में दर्ज है। और जो सर्वदेशीय, सर्ववर्ण, सर्व वर्ग, सर्वजन के बतौर मंच देश के हर गांव में ज़ड़ बनाए हुए है।


छह साल, दो आम चुनाव, दस-बीस साल देश की उम्र और राजनीति में मतलब नहीं रखते है। चुनाव हारना यदि पार्टी का मरना है तो उसे फिर पहले से ही मरा समझे। तब भला उस पर क्या विचार करना। जनसंघ का बेचारा दीया चालीस साल टिमटिमाएं चलता रहा तो वह लोकसभा-विधानसभा के असंख्य चुनावों में हारने के बाद मरा हुआ कहां था? उसने इंतजार किया। संघ के नागपुर मुख्यालय में लगन बनी रही कि हमारे भी दिन आएंगे क्योंकि दीये की तेल-बाती में हिंदू की चिंता है और जिस दिन आम हिंदू उस अनुसार दुनिया देखेंगा तो कांग्रेस का वक्त वैसे ही हाशिए में जाएगा जैसे -तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान। भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण!


ऐसा आगे नरेंद्र मोदी और भाजपा के साथ भी होगा क्योंकि 138 करोड लोगों के इस देश के यक्ष प्रश्नों में  विकल्प से नए जवाब बनेगें और जान बचेगी।


बहरहाल कांग्रेस और कांग्रेसजनों की तीन पीढियों ने अपनी विचारधारा में देश का राज चलाया। सत्ता भोगी। सत्ता के दसियों युद्ध जीते। अब वक्त बदला है और नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने पानीपत की लड़ाई से हिंदुओं को गोलंबद करके सत्ता पाई है तो अभी तो महज छह साल हुए है। इतनी कम अवधि पर ही कांग्रेसी क्यों अपनी पार्टी पर अस्तित्व का संकट माने? क्यों राहुल गांधी और नेतृत्व की कमी बूझे? राजनीति में लड़ना जब विचार, विचारधारा, आईडिया से है तो उसे तुरत-फुरत दुरस्त-बदला नहीं जा सकता। संघ-जनसंघ ने 45 साल मेहनत कर हिंदू के घर-घर संदेश बनवाया तो उन तीरों की धार के अंत परिणामों तक तो इंतजार करें। कांग्रेसी अपने आईडिया ऑफ इंडिया को घर-घर पहुंचवाने में जुटे। अपने कोर मतदाताओं को, मुसलमान-दलित-पढे-लिखों को ही फिलहाल समझाते रहे कि औवेसी से, भीम सेना से सुरक्षा नहीं होनी है बल्कि महात्मा गांधी के हिंदू राग वाली कांग्रेस है मोदीशाही का असली विकल्प!


बुधवार, 18 नवंबर 2020

सरकार के लिए विपक्ष है गैंग



 लोकतंत्र में पार्टियां एक दूसरे की वैचारिक विरोधी होती हैं। एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ती हैं और हारती-जीतती हैं। पर कोई पार्टी दूसरी पार्टी के लिए दुश्मन नहीं होती है। अब तो भारत में वैसे भी वैचारिकता की सारी सीमाएं मिट गए हैं इसलिए पार्टियां वैचारिक विरोधी भी नहीं हैं। पार्टियां चुनावी विरोधी हैं। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ती हैं और चुनाव बाद आपस में मिल पर सरकार बना लेती हैं। जैसे 2014 में जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी अलग अलग लड़े थे और भाजपा ने पीडीपी को अलगावववादियों का समर्थक बताया था। लेकिन चुनाव के बाद भाजपा ने दो बार उसके साथ ही मिल कर सरकार बना ली। कश्मीर की दूसरी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस पहले भाजपा के साथ रह चुकी है। लेकिन अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी को ‘गुपकर गैंग’ बताया है और कहा है कि ये लोग घाटी में आतंकवाद वापस लाना चाहते हैं।


असल में भाजपा ने अपने तमाम विरोधियों को गैंग या गिरोह बना दिया है। राजनीतिक दल हों या छात्र संगठन हों या गैर सरकारी संगठन हों या मीडिया समूह हों, अगर वे सरकार की आलोचना करते हैं तो उनको ब्रांड कर दिया जाता है। जैसे जेएनयू के छात्रों ने सरकार का विरोध किया उन्हें ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का नाम दिया गया। जेएनयू के छात्रों का जिसने भी समर्थन किया उसे ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ का सदस्य बताया गया। इसी तरह कुछ सामाजिक कार्य़कर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों से जुड़े लोगों के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘खान मार्केट गैंग’ का जुमला बोला। यह सब कुल मिला कर विपक्ष और हर किस्म की असहमति की आवाज की साख खराब करने का प्रयास है।


ब्लैक पेपर के जरिये BJP ने साधा राजस्थान सरकार पर निशाना


 जयपुर। भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी माहौल में राज्य सरकार  और कांग्रेस  पर ब्लैक पेपर के जरिये निशाना साधा है। बीजेपी ने इस बार ब्लैक पेपर में 24 मुद्दे शामिल किए हैं लेकिन उनमें से अधिकांश मुद्दे वहीं हैं, जो पहले शहरी निकाय के चुनाव में भी उठाये जा चुके हैं। 


केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल , बीजेपी की राष्ट्रीय मंत्री अल्का गुर्जर , प्रदेश उपाध्यक्ष मुकेश दाधीच, मीडिया प्रभारी विमल कटिया और सह-प्रभारी नीरज जैन की मौजूदगी में जारी किए गए काले चिट्ठे में ग्रामीण विकास से जुड़े कुछ मुद्दे ज़रूर नये कहे जा सकते हैं जबकि लॉ एंड ऑर्डर, किसानों की कर्ज माफी और बेरोजगारी भत्ते के साथ ही कोरोना काल में सरकार के प्रबंधन और बिजली के मुद्दों पर बीजेपी ने पहले की तरह ही बिना किसी नयेपन के अपनी बात रखी है। 




खास बात यह भी है कि बीजेपी की तरफ़ से जारी यह 'काला-चिट्ठा' पार्टी की चुनाव प्रचार सामग्री का हिस्सा तो होगा लेकिन बीजेपी ने इस पर मुद्रक और प्रकाशक का नाम नहीं लिखवाया है। बीजेपी की तरफ़ से जारी 'कांग्रेस के काले चिट्ठे' में 24 बिन्दुओं को शामिल किया गया है।


1: कांग्रेस सरकार ने प्रदेश की पंचायती राज संस्थाओं की पंचम राज्य वित्त आयोग की वित्तीय वर्ष 2019-20 की प्रथम किश्त की बकाया 1085 करोड़ रुपये और द्वित्तीय किश्त की संपूर्ण राशि 1480 करोड़ रुपये यानि कुल राशि 2565 करोड़ रुपये आवंटित नहीं की है।


2: वित्तीय वर्ष 2020-21 में राज्य सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थाओं की 4000 करोड़ रुपये की राशि आवंटित नहीं की गई है।


3: राज्य सरकार के द्वारा पंचायती राज्य संस्थाओं एवं स्वायत्तशासी संस्थाओं को राशि आवंटन की सिफारिश हेतु छठे राज्य वित्त आयोग का गठन भी नहीं किया गया है, जिससे भविष्य में भी पंचायतीराज संस्थाओं को राज्य सरकार से फंड आवंटन की सारी संभावनाएं धूमिल हो गई हैं। पिछले 25 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है।


4: खास बात यह है कि 800 करोड़ का FTO order तो पिछले तीन महीने से वित्त विभाग ने रोक लिया है।


5: प्रधानमंत्री आवास योजना में राज्य सरकार खुद के हिस्से की (40%) राशि 1400 करोड़ रूपये जारी नहीं कर रही है, जिससे प्रदेश के 2 लाख 60 हज़ार गरीब परिवार बेघर हेकर दर-दर भटक रहे हैं।


6: पंचायत राज संस्थाओं के 1.50 लाख जनप्रतिनिधियों (सरपंच एवं वार्ड पंच) तथा 47 हजार मानदेय कर्मियों (पंचायत सहायक, सुरक्षा गार्ड, पम्प चालकों) की मानदेय की राशि जारी नहीं करने से इनकी इस बार काली दिवाली मनी।


7: राज्य में गहलोत सरकार द्वारा अपनी हठधर्मिता और आर्थिक कुप्रबंधन के चलते कर्मचारियों की वेतन कटौती करना, मार्च माह में 16 दिन का वेतन रोकना, माह जुलाई 2019, जनवरी एवं जुलाई 2020 की महंगाई भत्ते की तीन किश्त जारी नहीं की गई। उपार्जित अवकाश समर्पित करने के बाद दी जाने वाली राशि भी नहीं दी जा रही। सरकार का यह निर्णय असंवेदनशील और अमानवीय है, जिससे प्रदेश के कार्मिकों में जबरदस्त असंतोष है।


8: यह अकर्मण्य, भ्रष्ट, निकम्मी राजस्थान की कांग्रेस सरकार है जिसने 59 लाख किसानों का 10 दिन में 99 हजार 995 करोड़ रुपये का ऋण माफ करने का वादा किया था लेकिन हकीकत में 18 लाख किसानों का 5 हजार 600 करोड़ रुपये का ही ऋण माफ हुआ, जो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।


9: शेड्यूल बैंक, वाणिज्य बैंक, नोटिफाइड बैंक से फसली ऋण लेने वाले लगभग 22 लाख किसानों के 2 लाख रुपये तक का कर्ज माफ करने का वादा करने वाली इस सरकार ने मंत्रिमंडलीय समिति बनाकर चुप्पी साथ ली है। यह कर्ज माफी योजना से वंचित अन्नदाता किसानों के साथ धोखा है।


10: किसानों के सशक्तिकरण हेतु अकाल राहत कोष बनाने की इस सरकार की घोषणा तो झूठी साबित हुई और राष्ट्रीय आपदा राहत कोष से मिलने वाली राशि का भी इस सरकार द्वारा भुगतान नहीं किया गया।


11: सत्ता में आने से पूर्व जनता को भ्रमित करने के लिये अपने घोषणा पत्र में कांग्रेस ने किसानों को कृषि कार्य हेतु आसान दर पर गुणवत्तापूर्ण बिजली उपलब्ध कराने का वादा किया था जो कहीं नजर नहीं आ रहा है। जनहित नही बल्कि निजिहित को वरीयता देने वाली इस कांग्रेस सरकार द्वारा पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा 10 हॉर्स पावर तक के पम्प पर 833 रुपये प्रति माह दिये जाने वाले अनुदान को भी बंद कर दिया गया तथा 1 लाख कृषि कनेक्शन जारी करने का अपने घोषणा पत्र में वादा करने वाली इस सरकार के द्वारा मात्र 18 हजार कृषि कनेक्शन ही जारी किये गये जो किसान हितैषी बनने वाली इस सरकार की कार्यशैली पर सवालिया निशान है।


12: राज्य सरकार द्वारा राज्य के किसानों की फसलों को जानवरों और रोजड़ों से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए कार्ययोजना बनाने का वादा भी अभी तक प्रभावी नीति बनाने की राह देख रहा है।


13: जनघोषणा पत्र में राज्य के वृद्ध किसानों को पेंशन देने की घोषणा पूर्णतया कपोल-कल्पित साबित हुई।


14: राज्य सरकार ने प्रत्येक ग्राम पंचायत समिति तथा जिला परिषद को अधिकाधिक अधिकार देने का अपने जनघोषणा पत्र में झूठा वादा किया. पहली बार केन्द्रीय वित्त आयोग के 1 हजार 840 करोड़ और राज्य वित्त आयोग के 1 हजार 88 करोड़ तथा महानरेगा योजना में मजदूरी भुगतान व सामग्री हेतु केन्द्र सरकार से प्राप्त 1 हजार 200 करोड़ रुपये पंचायतराज संस्थाओं को हस्तांतरित नहीं करके अपने पी.डी. खाते में हस्तांतरित कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के ग्रामस्वराज की परिकल्पना का सरकार ने अपमान किया है।


15: पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा शुरू की गई मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन योजना जिसकी प्रशंसा पूरे देश और देश के बाहर सार्क देशों के सम्मेलन में भी की गई जिसके अंतर्गत 3 लाख 36 हजार जल संरक्षण ढांचे तैयार किये गये थे। इस योजना के प्रभावी क्रियान्वयन से 5 मीटर तक भूजल स्तर ऊंचा हुआ था लेकिन योजना को बंद करने से जलसंरक्षण आंदोलन को धक्का पहुंचाया।


16: राज्य सरकार ने अपने जनघोषणा पत्र में वादा किया था कि अनुचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग व विशेष पिछड़ा वर्ग के रिक्त पदों के बैकलॉग शीघ्र भरे जायेंगे, जिस पर सरकार खरा नहीं उतर सकी और न ही इस ओर कोई कारगर कदम उठाया गया। 


17: डीएमएफटी की रॉयल्टी के पैसे से पूर्व में विकास के कार्य करवाये जाते थे, जिसमें सभी जिला प्रमुख की अध्यक्षता में सभी विधायक सदस्य होते थे, किन्तु कांग्रेस सरकार ने जिला प्रमुख के स्थान पर इसका अध्यक्ष जिला कलेक्टर को बना कर नौकरशाही को बढ़ावा देकर जनकल्याण में लगने वाली राशि को रोकने का कार्य किया।


18: इस सरकार के राज में राजस्थान की महिलायें और बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। महिलाओं के विरुद्ध दुष्कर्म से संबंधित अपराधों में पूरे देश में राजस्थान प्रथम स्थान पर है। जिससे प्रदेश की गरिमा गिरी है और प्रदेश में महिलाएं व बालिकाएं अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही हैं। बच्चों के प्रति अपराधों में भी 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।


19: बिजली के बिलों का भारी भरकम भुगतान करना राज्य की जनता के लिए चुनौती बना है। यही कांग्रेस पार्टी चुनाव के समय अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह कहते हुए सरकार में आई कि यदि कांग्रेस की सरकार बनी तो बिजली की दरों में वृद्धि नही करेंगे, परन्तु जैसी कांग्रेस की रीति-नीति रही है, कि शासन में आते ही न केवल दरों में वृद्धि की बल्कि स्थाई हुल्क (फिक्स चार्ज) भी बढ़ा दिए गए। यही नहीं, कांग्रेस की सरकार किसानों की विरोधी बनती है। इस सरकार ने गरीब किसान (अन्नदाता) को भारतीय जनता पार्टी सरकार द्वारा दी गई 833 रुपये प्रतिमाह बिजली के बिल में छूट को बंद कर गरीब किसान पर बिजली का अतिरिक्त भार डाल दिया। यहां तक की कोरोना काल में भी आमजन को राहत नहीं दी।


20: राजस्थान के 27 लाख बेरोजगार युवाओं को आज भी बेरोजगारी भत्ते का इंतजार है लेकिन इस सरकार की नजर में वोट प्राप्त करने के बाद युवा अब नजरअंदाज है।


21: गरीब को भूल चुकी इस सरकार ने भामाशाह योजना को बंद कर आमजन के साथ खिलवाड़ किया है। भामाशाह स्वास्थ्य योजना जो कि पूर्ववर्ती भाजपा शासनकाल में शुरू की गई, जिसके अंतर्गत प्रत्येक गरीब व्यक्ति 3 लाख रुपये तक इलाज, चाहे वो सरकारी हॉस्पिटल हो या निजी हॉस्पिटल में बिल्कुल मुफ्त करा सकता था, जिसका लाखों गरीबों को फायदा हुआ, उस गरीब की योजना को बंद कर गरीब को इलाज के लिए दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया। यहां तक की नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा 5 लाख रूपये तक मुक्त इलाज वाली "आयुष्मान" योजना को भी राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने लागू नहीं किया।


22: खुद काम नहीं कर पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा किये गये कामों पर नये पत्थर लगा कर थोथी वाहवाही लूटने का काम कर रही प्रदेश सरकार राजस्थान में पिछले दो वर्षों से कोई नया कार्य शुरू करने की जगह केवल भाजपा की सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लोकापर्ण कर उनके शिलान्यास पट्टों पर अपना नाम लिखवाकर अपनी झूठी वाहवाही करवा रही है।


23: सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के अंतर्गत भाजपा सरकार के समय सभी बैंक खाते खोलकर प्रत्येक माह एक निश्चित तारीख को वृद्धावस्था, विधवा और दिव्यांग पेंशन वितरण की व्यवस्था की. जबकि कांग्रेस सरकार आने के बाद नये पेंशन आवेदन पत्रों को सत्यापन के अभाव में लम्बित कर वृद्ध, विधवा दिव्यांगों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।


24: कोरोना काल में वैश्विक महामारी से जहां एक और देश संघर्ष कर रहा है, वहीं राज्य सरकार ने अव्यवस्थाओं का ऐसा आलम बना रखा है कि राशन से लेकर अन्य सुविधाओं में न केवल भेदभाव किया, बल्कि गरीबों को भी समुदाय के आधार पर बांटने का शर्मनाक कार्य किया और सरकार के प्रतिनिधि होटलों में बैठकर आपसी मतभेदों तक सीमित रहे।