मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

सरकार मजबूत है या विपक्ष?


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शिकायत है कि विपक्षी पार्टियां किसानों को गुमराह कर रही हैं। प्रधानमंत्री यह शिकायत पहले भी कर चुके हैं। सवाल है कि जब सारी बातें वे देश के लोगों को समझा लेते हैं और देश के लोग उनकी बात मान भी लेते हैं। जिनको वे नहीं समझा पाते हैं, उनको पार्टी का आईटी सेल समझा देता है। उनकी पार्टी और आईटी सेल ने तो देश के लोगों को ऐसी ऐसी चीजें समझा रखी हैं, जिनका कोई बेसिक आधार नहीं है। कोई सिर-पैर नहीं है। फिर भी लोग उन बातों पर यकीन करते हैं। फिर हैरानी की बात है कि कृषि कानूनों के मामले में सरकार, प्रधानमंत्री और आईटी सेल मिल कर किसानों को क्यों नहीं समझा पा रहे हैं? और उससे भी अहम है कि विपक्ष के पास इतनी ताकत अचानक कहां से आ गई कि वह इतनी आसानी से किसानों को गुमराह कर ले रहा है?


असल में यह समझाने या गुमराह करने का मामला ही नहीं है। यह असली मुद्दा है और किसान को इसको समझ रहे हैं। इसलिए सरकार उनको नहीं समझा पा रही है। पहले भी नरेंद्र मोदी सरकार को किसानों के मामले में ही पीछे हटना पड़ा था, जब उनकी सरकार ने यूपीए के बनाए भूमि अधिग्रहग कानून को बदलने का प्रयास किया था। तब भी यहीं कहा गया था कि विपक्ष किसानों को गुमराह कर रहा है। हालांकि तब भी किसान अपना हित समझ रहे थे और अब भी समझ रहे हैं। वे सरकार से पूछ रहे हैं कि किसानों का भला करने के लिए तीन कृषि कानून बनाने की मांग सरकार से किसने की थी, किस किसान संगठन ने इसके लिए सरकार से कहा था और किसके साथ बात करके सरकार ने यह कानून बनाया। सरकार के पास इसका जवाब नहीं है। सरकार को असल में 30 लाख करोड़ रुपए से ऊपर के खाने-पीने के चीजों के बाजार को निजी उद्यमियों के हाथ में सौंपना है, जिन्होंने पहले से इसकी तैयारी कर रखी है। इसलिए वह बैकफुट पर है और विपक्ष व किसान संगठन आक्रामक हैं।


वैक्सीन से सुर्खियों का प्रबंधन!



 देश में अचानक कोरोना वायरस की वैक्सीन का हल्ला मच गया है। चारों तरफ सिर्फ वैक्सीन की बात है। प्रधानमंत्री ने एक दिन का ‘वैक्सीन टूर’ किया। अहमदाबाद के जायडस कैडिला की फैक्टरी से लेकर हैदराबाद में भारत बायोटेक और उसके बाद पुणे के सीरम इंस्टीच्यूट का उन्होंने दौरा किया और ऐसा आभास दिया कि अब कोरोना से मुक्ति मिलने वाली है। इसकी वैक्सीन आने वाली है।  प्रधानमंत्री ने वैक्सीन बना रही तीन और कंपनियों- जेनोवा बायोफार्मा, बायोलॉजिकल ई और डॉक्टर रेड्डीज लैब के वैज्ञानिकों व प्रबंधकों से बात की। अब उन्होंने चार अक्टूर को कोरोना वायरस पर सर्वदलीय बैठक भी बुलाई है, जिसमें निश्चित रूप से चर्चा का फोकस वैक्सीन की उपलब्धता, उसकी डिलीवरी, सप्लाई, कोल्ड चेन और लोगों को टीका लगवाने पर होगा।


असल में वैक्सीन का यह पूरा हल्ला सिर्फ एक पीआर एक्सरसाइज है, जिसका अभी कोई खास मतलब नहीं है। वैक्सीन का काम रूटीन की अपनी प्रक्रिया से चल रहा है और खुद प्रधानमंत्री ने दस दिन पहले ही कहा था कि कब तक वैक्सीन आएगी, उसकी कीमत क्या होगी, यह कुछ पता नहीं है। उन्होंने कहा था कि इस बारे में वैज्ञानिक ही बता सकते हैं। सवाल है कि जिसके बारे में कुछ पता ही नहीं है, उसका इतना बड़ा हल्ला मचाने का क्या मतलब है? अगर आप इस हल्ले की टाइमिंग को बारीकी से देखेंगे तो पता चलेगा कि यह असल में सुर्खियों के प्रबंधन का प्रयास है, जिसकी जरूरत अचानक कई कारणों से पड़ गई।


पिछले ही हफ्ते नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी एनएसएसओ की ओर से अर्थव्यवस्था का आंकड़ा जारी होना था और सबको पता था कि लगातार दूसरी तिमाही में भी देश सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर निगेटिव रहनी है। उससे पहले कई राज्यों के किसान संगठनों ने ऐलान कर रखा था कि वे दिल्ली मार्च करेंगे और जब तक सरकार तीन कृषि कानूनों को रद्द नहीं करती है, तब तक प्रदर्शन करेंगे। ठीक उसी समय जब किसान दिल्ली के लिए चले और अर्थव्यवस्था का आंकड़ा आया, तभी प्रधानमंत्री ‘वैक्सीन टूर’ पर निकले और वैक्सीन का हल्ला मचाया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि अर्थव्यवस्था वाला मामला तो पूरा ही सुर्खियों से गायब हो गया, बल्कि उलटे यह माहौल बन गया कि महज साढ़े सात फीसदी की गिरावट आई है इसका मतलब है कि सब कुछ ठीक हो रहा है। हां, वैक्सीन के हल्ले के बावजूद किसान आंदोलन का मामला सुर्खियों से नहीं हट रहा है। इसका फ्रस्ट्रेशन प्रधानमंत्री के सोमवार को काशी में दिए भाषण में भी दिखा।


भले वैक्सीन का हल्ला किसान आंदोलन से कमजोर पड़ रहा है पर यह तय मानें कि अब इसका शोर थमने वाला नहीं है। अब सिर्फ इसी का शोर होगा क्योंकि यह सरकार के अनुकूल है। इससे कई चीजों से ध्यान भटकाने में आसानी हो रही है। इससे कोरोना वायरस के अब तक के प्रबंधन का सवाल खत्म हो गया है। यह कोई नहीं पूछ रहा है कि कोरोना काल में स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के लिए क्या कदम उठाए गए। अर्थव्यवस्था और रोजगार के लिए सरकार क्या कर रही है, यह भी नहीं पूछा जाएगा। पीएम केयर्स फंड की तो अब कोई बात ही नहीं करता। अभी भाजपा ने हैदराबाद में जम कर प्रचार किया, रैलियां हुईं और रोड शो हुए हैं। अगले कुछ दिन में यह सब कुछ पश्चिम बंगाल, असम और दूसरे कई राज्यों में होने वाला है। सो, वैक्सीन के हल्ले में यह बात भी दबी रहेगी कि आखिर राजनीतिक रैलियों से कोरोना क्यों नहीं फैल रहा है? सो, पूरा देश अब अगले दो तीन साल सिर्फ वैक्सीन की चर्चा में मगन रहेगा। यह प्रचार चलता रहेगा कि नरेंद्र मोदी देश के 130 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगवा रहे हैं। इसी योजना के तहत वैक्सीन की पूरी व्यवस्था को केंद्रीकृत किया गया है और सब कुछ केंद्र सरकार की कमान में रखा गया है ताकि राज्यों को इसका श्रेय नहीं मिल सके।


परंतु इस पूरे हल्ले में एक बड़ा सवाल यह है कि आखिर वैक्सीन आ जाएगी तो उससे क्या होगा? क्या सारे लोगों को सरकार हाथों हाथ टीका लगवा देगी? क्या सारे नागरिक कोरोना वायरस के खतरे से मुक्त हो जाएंगे? क्या देश और समाज पहले जैसा हो जाएगा? क्या देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी? असल में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। कम से कम अभी अगले दो-तीन साल तक ऐसा कुछ नहीं होगा। वैक्सीन आने के बावजूद इस बात की गारंटी नहीं है कि कोरोना का वायरस नहीं फैलेगा क्योंकि 95 फीसदी सफलता का दावा करने वाली कंपनी भी यह नहीं कह रही है कि उसकी वैक्सीन जो एंटी बॉडी तैयार करेगी वह व्यक्ति के शरीर में कब तक रहेगी? इस वैक्सीन के सैकड़ों स्ट्रेन बताए जा रहे हैं तो कितने स्ट्रेन्स को पकड़ कर वैज्ञानिकों ने वैक्सीन बनाई है यह भी पता नहीं। इससे संक्रमित व्यक्ति के शरीर में अपने आप जो एंटी बॉडी तैयार हो रही है उसकी मियाद 90 दिन बताई जा रही है कि पर पूरी दुनिया में कम से कम दो दर्जन मामले ऐसे आए हैं, जिनमें 90 दिन के भीतर लोगों को कोरोना का दोबारा संक्रमण हुआ। सो, कोई भी वैक्सीन स्थायी रूप से कोरोना से बचाए रखने की गारंटी नहीं है। इसका मतलब है कि कोरोना रहेगा, अस्पतालों में कोरोना के वार्ड बने रहेंगे, वैक्सीन के साथ साथ महंगाई इलाज चलता रहेगा, लोगों को मास्क लगाए रखना होगा और धीरे धीरे सारी चीजों से हाथ धोते जाना होगा।


और वैसे भी जिस बीमारी में 90 फीसदी से ज्यादा लोग अपने आप ठीक हो रहे हैं, उस बीमारी के टीके का इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? आईसीएमआर ने खुद माना है कि 80 फीसदी लोगों में कोई लक्षण ही नहीं आ रहे हैं। जिनमें लक्षण आ रहे हैं उनमें से 80 फीसदी से ज्यादा लोग घर में रह कर ही ठीक हो जा रहे हैं। जिनमें लक्षण दिखते हैं उनमें से पांच फीसदी लोगों को ही अस्पताल जाने या किसी विशेष इलाज की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में वैक्सीन की 90 फीसदी सफलता की तो वैसे ही गारंटी है। फिर किस बात का ढोल पीटा जा रहा है! इस हल्ले में कोई इसके साइड इफेक्ट की चर्चा नहीं कर रहा है। इससे पहले जितने टीके हड़बड़ी में आए हैं, उनसे बड़ा नुकसान हुआ है। पोलियो के शुरुआती टीके से हजारों लोग स्थायी रूप से विकलांग हुए थे, इस तथ्य को ध्यान में रखने की जरूरत है। बहरहाल, कुल मिला कर वैक्सीन के शोर से बाकी सारी सुर्खियों को दबाए रखना है और देश के 130 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगवानी है। यह हजारों या लाखों करोड़ रुपए का खेल है, जिसका फायदा कहने की जरूरत नहीं है कि कुछ गिनी-चुनी फार्मा कंपनियों को मिलने वाला है।


झूठ और मिथ्या प्रचार से कोई मिशन सफल नहीं हो सकता : राहुल-प्रियंका


 कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी तथा महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने सरकार पर हमला करते हुए कहा है कि वह झूठ और मिथ्या प्रचार को आधार बनाकर काम करती है इसलिए किसान आंदोलन खत्म करने का उसका कोई मिशन सफल नहीं हो सकता है।


गांधी ने ट्वीट किया , किसान की आय दुगनी होगी। ‘मित्रों’ की आय हुई चौगुनी और किसान की होगी आधी। झूठ की, लूट की, सूट-बूट की सरकार।


इसके साथ ही गांधी ने एक वीडियो भी पोस्ट किया है जिसमें पुलिस किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़ और लाठी बरसा रही है तथा पानी की बौछारें कर और कंटीले बेरिकेटर लगाकर आंदोलनकारी किसानों को रोक रही है।


वाड्रा ने कहा, “ जब सरकार का उद्देश्य केवल ढोंग और झूठा प्रचार हो तो मिशन फेल हो ही जाएंगे। उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों पर पर्दा डालने के लिए भाजपा सरकार का मिशन शक्ति फेल रहा। युवती को जलाने वालों के खिलाफ एक महीने बाद केस हो रहा है। अपराध बढ़ते जा रहे हैं।”



इसका क्या जवाब है?


 नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के प्रति बेरहमी दिखाने और आंदोलन को बदनाम करने के लिए प्रचार अभियान छेड़ने वाली केंद्र सरकार के पास क्या इस बात कोई जवाब है कि किसानों के लिए बनाई गई योजनाओं को पूरा करने में उसने वैसी ही तत्परता क्यों नहीं दिखाई है? इस हाल में अगर किसान सरकार की नीयत पर शक करते हैं, तो क्या इसका दोष उन्हें दिया जाना चाहिए? इस बात पर गौर कीजिए। कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) मंडियों की पहुंच से दूर कई किसानों, खास कर छोटे एवं सीमांत कृषकों को लाभ पहुंचाने के लिए ग्रामीण हाटों को कृषि बाजार में परिवर्तित करने की योजना खुद सरकार ने बनाई थी। लेकिन वह अब भी ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है। एक वेबसाइट ने इस बारे में आरटीआई के जरिए सूचना हासिल की। इसके मुताबिक नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के 22,000 हाटों को ग्रामीण कृषि बाजार बनाना का लक्ष्य रखा था।


लेकिन अब तक एक भी हाट को कृषि बाजार में परिवर्तित या विकसित नहीं किया जा सका है। यह किसानों को बेहतर कृषि बाजार देने के केंद्र एवं राज्य सरकारों के दावों पर सवालिया निशान खड़े करता है। किसानों की आय दोगुनी करने लिए बनी समिति की सिफारिश को स्वीकार करते हुए सरकार ने 2018-19 के बजट में घोषणा की थी कि कृषि उत्पादों की बिक्री तंत्र को मजबूत करने के लिए देश भर के 22,000 ग्रामीण हाटों को कृषि बाजार में तब्दील किया जाएगा। कहा गया कि जो किसान एपीएमसी मंडियों तक नहीं पहुंच पाते हैं, वे अपने नजदीक इन हाटों में फसल बेचकर लाभकारी मूल्य प्राप्त कर सकेंगे। इसमें से 10,000 ग्रामीण कृषि बाजारों में मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए सरकार ने नाबार्ड के अधीन 2,000 करोड़ रुपये के एग्री-मार्केट इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (एएमआईएफ) को मंजूरी दी थी। इस फंड का उद्देश्य राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को सस्ती दर (करीब छह फीसदी) पर लोन देना है, ताकि वे इस पैसे का इस्तेमाल कर अपने यहां के हाटों को कृषि बाजार में परिवर्तित कर सकें। नाबार्ड के मुताबिक इस फंड को प्राप्त करने के लिए अभी तक एक भी राज्य ने प्रस्ताव नहीं भेजा है। जबकि 31 मार्च 2020 तक राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के भेजे प्रस्तावों और उनके सत्यापन के बाद इस योजना के तहत फंड दिया जाने वाला था। तो किसानों का हित साधने के लिए सरकार के उत्साह की असली तस्वीर यह है।


किसान की आय कितनी है?


 देश के एक औसत किसान की कितनी आय होती है? यह यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब हर उस व्यक्ति से पूछा जाना चाहिए, जो यह कहता है कि 2022 तक किसान की आय दोगुनी कर दी जाएगी। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह बात कही है और केंद्रीय कृषि मंत्री ने भी कहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह बात पिछले छह साल से कह रहे हैं। लेकिन क्या किसी मंत्री ने यह बताया है कि जब प्रधानमंत्री ने किसान की आय दोगुनी करने का ऐलान किया तो उनकी आय कितनी थी और 2022 में कितनी हो जाएगी? कम से कम यह बता देते कि पिछले छह साल के अथक प्रयास से, जिसमें कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय करना भी शामिल है, किसानों की आय कितनी बढ़ गई है? जब अगले एक-डेढ़ साल में आय दोगुनी होने वाली है तो साढ़े छह साल में पौने दोगुनी तो हो गई होगी? या अचानक ही दोगुनी हो जाएगी, अभी जहां के तहां अटकी है?


क्या सरकार के पास किसान की आय की गणना करने का कोई फॉर्मूला है? जैसे नौकरी करने वालों को वेतन मिलता है, महंगाई भत्ता और दूसरे भत्ते मिलते हैं, जिनके आधार पर आकलन होता है कि उनको पूरे साल में कितनी आय हुई! कारोबारी अपना आय कर रिटर्न या जीएसटी रिटर्न दाखिल करता है, जिसमें वह आमदमी और खर्च का हिसाब बताता है तो उससे पता चलता है कि उसे कितनी आय हुई। उसी तरह क्या कोई तरीका है, जिससे पता चले कि किसान की आय कितनी हुई? उसकी आमदमी और खर्च का क्या हिसाब होता है? सरकार हो या निजी कंपनियां हों हर साल अपने कर्मचारियों के वेतन, भत्ते का ख्याल रखती हैं तो उससे पता चलता है कि कितनी वेतन बढ़ोतरी या कमी हुई। क्या ऐसा कोई हिसाब किसानों का रखा जाता है?


हकीकत यह है कि सरकार के पास कोई फॉर्मूला नहीं है। भारत जैसे देश में कोई फॉर्मूला हो भी नहीं सकता है क्योंकि भारत में खेती-किसानी का दायरा इतना बड़ा है। इतने लोग इस पर आश्रित हैं और इतने तरह से लोग खेती के काम में शामिल हैं कि उनकी आमदनी और खर्च का हिसाब लगाना ही मुश्किल है। देश के अलग अलग राज्यों में किसानों की स्थितियां अलग अलग होती हैं। पंजाब और हरियाणा में अनाज मंडियां हैं और मंडियां बहुत सुनियोजित तरीके से काम करती हैं। वहां किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की दर पर अपना अनाज बेचता है तो उसका हिसाब लगाना अपेक्षाकृत आसान है। पर बाकी राज्यों में जहां मंडियों की व्यवस्था नहीं है वहां किसान का अनाज औने-पौने दाम में बिकता है। उनके पास न तो भंडारण की व्यवस्था है और न उनकी हैसियत इतनी है कि वह अनाज को भंडार करके रखे। सो, खेत से फसल आते ही जो दाम मिलता है वह उस पर अपनी फसल बेच देता है। सो, व्यवस्थित तरीके से किसान की आय का हिसाब करना संभव नहीं है।


भारत में सरकार को किसान की आय की कितनी चिंता है, इस बात को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी एनएसएसओ के पास 2012-13 के बाद के किसान की सालाना आय का आंकड़ा नहीं है या कम से कम उसे जारी नहीं किया गया है। 2012-13 के एनएसएसओ के आंकड़े 2016 में प्रकाशित हुए थे। इनके मुताबिक भारत में एक किसान परिवार की औसत आय 6,426 रुपए महीना यानी 77,112 रुपए सालाना थी। सोचें, पांच लोगों के एक औसत परिवार की आय 6,426 रुपए थी यानी प्रति व्यक्ति डेढ़ हजार रुपए से भी कम! जैसे ही इस आंकड़े को किसान की औसत जोत के आधार पर देखते हैं वैसे ही और हैरान करने वाली बात सामने आती है। एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक ही आधा हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान परिवार की मासिक औसत आय 4,152 रुपए है और जिस किसान की जोत 10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा की है उसकी मासिक आमदनी 41,388 रुपए है। जिस हिसाब से कृषि से जुड़े उत्पादों की कीमत बढ़ी है, उस आधार पर अगर सालाना बढ़ोतरी का हिसाब लगाएं तो 2019 तक एक किसान परिवार की औसत आमदनी 10,329 रुपए बनती है।


लेकिन यह आंकड़ा भी एक किस्म का भ्रम है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में कृषि से जुड़े कंपोनेंट्स की कीमत बढ़ने का मतलब यह नहीं है कि उसका फायदा किसान को हो रहा है। उसका फायदा शायद ही कभी किसान को मिलता है। किसान के ऊपर कृषि की लागत बढ़ते जाने का बोझ तो पड़ता है लेकिन उसकी आमदनी नहीं बढ़ती है। तभी सबसे पहली जरूरत यह होनी चाहिए कि सरकार किसान की निश्चित आय तय करे। जैसे दुनिया के तमाम विकसित देशों ने सब्सिडी देकर अपने किसानों की आय तय की है, उस तरह से। इसके लिए कृषि लागत के अनुपात में आमदनी सुनिश्चित करने का फॉर्मूला बने और उसे लागू किया जाए।


सारी सरकारें एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों की चर्चा करती हैं पर उसे लागू कोई नहीं करता। इस फॉर्मूले के मुताबिक कृषि लागत को तीन हिस्सों में बांटा गया है। एक, जो किसान खेती के लिए नकद खर्च करता है, जैसे बीज, खाद, सिंचाई, केमिकल, मजदूरी आदि। दूसरा, जो फैमिली लेबर है यानी किसान का परिवार, जो मेहनत करता है और तीसरा हिस्सा होता है जमीन का किराया और खेती में इस्तेमाल होने वाली मशीनरी का खर्च। इन तीनों को मिला कर स्वामीनाथन आयोग ने लागत निकाली थी, जिसके ऊपर 50 फीसदी मुनाफा किसानों को देने की बात थी। इसे ए2, एफएल प्लस सी2 फॉर्मूले का नाम दिया गया था।


इस तरह से लागत निकाल कर उसके ऊपर किसान को 50 फीसदी आमदनी देने का फॉर्मूला तो तभी बन या सफल हो सकता है, जब सरकार पूरे देश में इस फॉर्मूले के आधार पर हर फसल की लागत तय करे और उसके ऊपर 50 फीसदी मुनाफे के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करे और साथ ही यह सुनिश्चित करे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर देश में कहीं भी किसानों के उत्पाद की खरीद-बिक्री नहीं होगी। लेकिन अफसोस की बात है कि सरकार ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बना रही है, जिससे किसान की न्यूनतम आय सुनिश्चित हो। उलटे वह पूरे देश में ऐसी व्यवस्था बना रही है, जिसमें किसान कारपोरेट और उद्यमियों के हाथ में खिलौना बन जाए। सरकार ने नए कृषि कानूनों से ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिसमें कोई भी व्यक्ति कहीं भी किसान की फसल खरीद सकता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य चुकाने की कोई बाध्यता नहीं होगी। ऊपर से ऊपर फसल की कीमत या भुगतान को लेकर विवाद होता है तो एसडीएम की अदालत में भागदौड़ करनी पड़ेगी।


इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि किसान को अंततः बाजार द्वारा तय की गई दर पर अपनी फसल बेचनी होगी और जब ऐसा होगा तो किसान की आय कैसे बढ़ेगी? खेती वैसे भी किसान के लिए लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। सरकार समझ रही है कि साल में किसानों को छह हजार रुपए यानी 17 रुपए रोज की ‘सम्मान निधि’ देकर वह उनका भला कर रही है। पर असल में वह छह हजार रुपए की राशि सिर्फ इसलिए शुरू की गई थी ताकि जब खेती-किसानी को कारपोरेट के हाथों सौंपने का कानून बने तो सरकार के पास कहने को रहे कि वह किसानों को ‘सम्मान निधि’ दे रही है। वह असल में किसानों को एक बड़े दुष्चक्र में फंसाने की योजना का हिस्सा है।